Wednesday 29 July 2020

जिंदगी जमीन है





कटिहार - एक शानदार और जानदार शहर । कहने को तो दिल्ली और मुंबई देश के सबसे महंगे शहरों में शुमार हैं लेकिन जिन्होंने यह सर्वे किया है वे अभी भी मां के गर्भ में ही है और उन्होंने कटिहार नहीं जाना । महंगाई के मामले में अमेरिका का न्यूयॉर्क शहर भी पीछे छूट जाए । यहां आपको खड़े होने की भी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।

सामान्य दिनों में चारों तरफ धूल - ही - धूल उड़ती आपको यह एहसास दिलाती रहती है कि एक दिन आपको इसी धूल में ही मिल जाना है । यह कोई मामूली धूल नहीं । यह धूल है लोकतंत्र की ।  आपको अपना बेशकीमती वोट देकर ज्यादा - से - ज्यादा धूल उड़ाने वाले को चुनना होता है। तब जाकर यह दुर्लभ धूल आपके फेफड़े में जाकर आपको सुकून दे पाता है और मरते वक़्त आपका छाती शान से फूला रहता है। इससे बढ़िया इम्यूनिटी बूस्टर और कोई नहीं । आपको किसी तरह की कोई चूरन लेने की जरूरत नहीं । सीधा आपके नाक और मुंह को तर करते हुए आपके श्वसन तंत्र की क्षमता बढ़ाते  हुए आपके दिलों दिमाग को दुरुस्त कर देगा । कोई यहां निकम्मा नहीं । सभी धूल झाड़ने और मच्छर मारने में व्यस्त हैं ।  यहां की फिजाओं में खास किस्म की खुसबू लिए यह धूल यूं ही नहीं आता । इसका एक पेटेंट तरीका है । नालियों से पहले कीचड़ निकालकर नालियों के ही किनारे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है और जो उत्तम किस्म का पावडर जैसा धूल होता है प्राकृतिक तरीके से धीरे - धीरे यहां की फिजाओं में घुल - घुलकर आपको एक नशा सा देता रहता है । मोटका धूल फिर से नाली में अपने आप चला जाता है और फिर से अगली बार की तैयारी में लग जाता है ।  यहां के चाट - घुपचुप के अद्भुत स्वाद का श्रेय इसी पवित्र और खुशबूदार धूल और लाल पानी को जाता है । इस शहर को छोड़ने वाले यहां के नायाब स्वाद को नहीं भूल सकते और कुछ तो यहां के पीले चाट पर कविताएं लिखते - लिखते राष्ट्रकवि हो जाते हैं ।

' जल ही जीवन है ' इस बात को यहां के लोगों से ज्यादा कोई भी नहीं जान सकता । जल जीवन देता है तो ले भी लेता है तो क्या ग़म है । हर साल आपको वैतरणी पार करवाने के लिए  बाढ़ खुद चली आती है और कुछ उनके साथ अनंत यात्रा पर निकल जाते हैं । यहां के पानी में भले ही फ्लोराइड और शीशा हो मगर लोगों ने इसे भी आयरन ही मानकर अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है। गोरा आदमी भी आयरन की प्रचुरता लिए थोड़ा अजीबोगरीब लाल - पीला होकर अपने सफेद दातों पर पीला तो कहीं काला परत चढ़ाए  अपने सफेद गंजी को ठीक लाल - लाल किए दांत निकालकर हंसता हुआ आपको लगभग हर जगह दिख ही जाएगा । धूल आपका वजूद है और पानी का आयरन ही आपको भीतर ही भीतर लौह पुरुष का रूप देता है जिसको कोई भी साधारण पुरुष आपके लाल - लाल होते बनियान से ही भांप लेता है । यह दोनों आपको बिना किसी दाम के समान रूप से पोषित कर समानता के भाव को स्थापित करता रहता  है । जीवन की इस सच्चाई को यह शहर आपको चाह कर भी भूलने नहीं देता ।

यहां कोई हवा - हवाई नहीं है । लोग यहां जमीन से जुड़े हैं । जमीन ही लोगों का वजूद है। जिंदगी ही जमीन है । पैदा होने का एकमात्र लक्ष्य है – ‘एक धूर जमीन’ । अंत में सबकुछ मिट्टी में मिल जाएगा सो मिट्टी से अत्यधिक लगाव है यहां । जैसा पानी वैसा ही भेष और विचार । यहां के पानी के शीशा , आयरन और फ्लोराइड को लोगों ने चरणामृत की तरह पी - पीकर पानी का सारा शीशा , आयरन और फ्लोराइड अपने पेट में जमा कर फुला रखा है । हर फुले हुए पेट में फैट या चर्बी होता है इस भ्रम में ना रहें , शीशा और आयरन का गोला भी होता है या फिर नेचुरल गैस । बढ़े हुए पेट को देख गलती से भी आप ये मत समझ लीजिएगा कि आदमी यहां  कसरत नहीं करता है और हेल्थ कॉन्शस नहीं  । यहां आदमी सीरीयस होने के बाद ही सीरीयस होता है और उससे पहले सीरीयस होकर सीरीयस नहीं होना चाहता । यहां का गुणकारी पानी मिनरल वाटर को उठाकर पटक देने की हैसियत रखता है । किसी भी बाबे के काढ़े से ज्यादा असरदार यहां का रोगनाशक जल है । बस आप आंख बंद कर अपने इष्टदेव का नाम ले लेकर पीते रहें बाकी तो विधि का विधान स्वयं विधाता भी नहीं टाल सकते ।

कुदरत की एक बेहतरीन  चीज आपको यहां घर - घर मिलेगी । वो बेहतरीन चीज है - मकरा । आप चाहे कितना भी मकरा का झूल झाड़ लें , अगले ही दिन फिर से आपको उतना ही झूल घर में मिल जाएगा । इतनी तेजी से संसार के किसी भी कोने में मकरा झूल नहीं बना सकता । कटिहार का मकरा कोई मामूली मकरा नहीं , उड़ती धूल को भी धूल चटा देने का बेहतरीन सामर्थ्य है इसमें । लोगों ने भी हार नहीं मानी है धूल और झूल से । जिंदगी आपकी यहां धूल और झूल झाड़ने में व्यस्त रहती है फिर भी समय खूब है यहां लोगों को ।

हजार जन्मों का पुण्य प्रताप ही है कि आप इस पुण्य भूमि पर पैदा हुए । काला पानी , फिजाओं में धूल ही धूल , काले - काले मोटे मच्छरों से लैस , सड़कों और हाईवे पर तरणताल जैसे गड्ढों की विशेष सुविधा लिए यह शहर गोरे लोगों पर अपनी लाल-लाल परत चढ़ाएं उनके पीले - पीले दांतो से दिल्ली और मुंबई तो क्या न्यूयॉर्क और वेनिस की स्थिति पर भी हंसता रहता है । अगर आप इटली के वेनिस शहर घूमने का ख्वाब संजोए रखे हैं और अपने जीवन की गाढ़ी कमाई को विदेशी मुद्रा में खर्च करने की सोच रहे हो तो थोड़ा इंतजार कीजिए । बस एक बरसात का इंतजार कीजिए । एक हल्की सी भी बारिश हो जाए। बस अब आपको वेनिस जाकर अपनी जेब ढीली करने की जहमत नहीं उठानी होगी । कटिहार में भी मुफ्त में आप इस का लुफ्त उठा सकते हैं। हल्की सी बारिश के साथ ही सुंदर सा नजारा आपको पल भर में विस्मित कर लेगा । चारों तरफ स्वच्छ जल कल-कल बहता मिलेगा । एकदम वेनिस शहर को भी मात देता । बस एक नाव की जरूरत पड़ेगी आपको । चारों तरफ लोग अपने पीले - पीले दांतों को निकाल कर वेनिस को भी मात देने वाली मुफ्त व्यवस्था के लिए यहां देव भाषा में यहां के सुविधा दाताओं को दुआएं देते दिख जाएंगे । बहुत ही शानदार एवं खुशनुमा माहौल होता है। छोटका नाली , बड़का नाला , छोटका गड्ढा , बड़का गड्ढा, सुख्खा सड़क , गिल्ला मैदान सब के सब परम आनंदित होकर भेदभाव भूलकर एकाकार हो जाते हैं । मल - मूत्र बस का भी भेदभाव मिट जाता है । गंगा - जमुनी संस्कृति के जीते जागते ज्वलंत उदाहरण से आप दांतों तले अपनी अंगुलियां दबाकर काट खाएंगे । एकाकीपन का यह रूप आपको मोह लेगा।

सड़कों पर पानी से भरे गड्ढे को देखकर उसे मामूली गड्ढा समझने की बचकानी भूल बिल्कुल भी ना करें । निश्चित तौर पर वह डीजल ही होगा । पेट्रोल और डीजल का अथाह भंडार छिपा है यहां । हीरा - मोती , सोना- चांदी , मुक्ता- माणिक्य और मकरंद ना जाने क्या क्या बेशकीमती चीजें दबी हैं यहां की जमीन में । यहां की जमीन के नीचे कब कौन सी बेशकीमती चीजें निकल आए यह कोई नहीं जानता। नींव की खुदाई करते ही सोने के सिक्कों और ईंट - गहनों से भरा मटका मिल जाना तो आम सी बात है । बस नींव खोदने भर की देर है और आप राजा बन गए । यहां के सारे बड़े लोग उसी मटके से ही तो आदमी बन गए हैं। पहले वो आदमी नहीं थे ।

बात रोजगार की करें तो यहां सौ फीसदी रोजगार है । बेरोजगारी ही यहां सबसे बड़ा रोजगार है । काम कुछ नहीं, फुरसत कभी नहीं ' - यह नायाब चीज आपको बस यहीं और यहीं मिलेगी । एक मेंढ़क भी अगर नाली से बाहर आ जाय तो जमा भीड़ को तीतर - बितर करने के लिए प्रशासन को लाठी चार्ज करना पड़ जाए । नाला में फंसा ट्रैक्टर कैसे निकल पाता है यह देखने के लिए लोग मोटरसायकिल रोक - रोक के घंटों जायजा लेते रहते हैं और ट्रैक्टर का ड्राइवर चुप - चाप खैनी मलता हुआ मुस्कि मारता रहता है । यहां आदमी समय को बस में कर काट - काटकर भुजिया बना बना कर दूसरों में बांटता रहता है । ' कुछ बड़ा होने के इंतजार में मर जाने से अच्छा है छोटा चीज में ही जीते जी  मजा ले  लेना '  यह बात यहां कुकुर  - बिलाय  को भी पता है ।  हम तो आदमी हैं । समय की कोई कमी नहीं यहां बस आप समय चक्र को तोड़कर फेक दीजिए एक बार । जी हां शहरों में बेशुमार, यह शहर है - कटिहार । अगर आप कटिहार नहीं जानते तो आप मां के गर्भ में ही हैं ।

पूरे सीमांचल को अपने कलेजे में समेटे छोटका एम्स चौबीसों घंटे इमरजेंसी सुविधा से लैस , चमचमाता - गमगमाता स्कूल - कॉलेज जहां आप अपना ललका चेहरा साफ - साफ देख सकते हैं ,  निरमा सरफ़ वाला दूधिया साफ मार्केट , मिरचाई बाड़ी से पूर्णिया तक रोड किनारे आपको आंखें बाहर कर आश्चर्य से देखता टंगा हुआ मुर्गा और खस्सी , लेलहा चौक पर हलाल होते मुर्गे से नजरें बचाते हुए मुर्गा - भात पर घात लगाए तेज लोगों का जखीरा, मेडिकल कॉलेज का जलजला और दिलजला , बाज़ार का अफलातून भीड़ , भीड़ - भीड़ का खेल खेलता भीड़ , अंग्रेजी मीडियम को हिंदी में आसानी से बच्चा के साथ साथ मां - बाप को भी पढ़ाता हुआ प्राइवेट स्कूल, अंगरेजी बोलते बच्चा को देख सीना फुलाए पापा - मम्मी,   सोशल मीडिया में पीएचडी करता लगभग हर जवां लड़का , मोबाइल में घुसकर अध्ययन और योग - साधना करता बच्चा - बच्चा और उसको देखकर दांतों तले उंगली दबाए गार्जियन, चाय - पान और नाई की दुकान पर बड़े - बड़े विद्वानों की विद्वता की धज्जियां अपने असीमित ज्ञान की फूंक से  उड़ाता बुद्धिजीवी युवा और सोशल मीडिया पर राष्ट्र-हित में युद्ध लड़ते - लड़ते थककर पब्जी खेलता और टिक - टौक पर अपना हुनर मुफ़्त में बांटता बच्चा - बच्चा , खैनी और गुटका को चबा - चबाकर धूल में मिलता और हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला कमोबेश हर शख़्स । और क्या - क्या बयां करें यहां का गुणगान । कोई नहीं ऐसा , कटिहार जैसा ।

इतनी खूबी लिए इस शहर की जमीन की कीमत को यदि आप ज्यादा समझ रहे हैं तो आप निरे मूर्ख हैं ।  आप अभी भी अजन्मे है और ना ही जन्मे तो ठीक हैं । जितने में आप दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास और मुंबई के बांद्रा और मालाबार हिल्स के पास एक बंगला ले लें , रोड किनारे एक धुर ही बमुश्किल से आप पा सकते हैं और वह भी बिना कबूलती किए या पाठा गछे तो सोचिए भी मत । यहां जमीन की कोई कीमत नहीं । सड़क से सटे जमीन में हीरा दबा होने से करोड़ों की कीमत , तो ठीक उसके पीछे लोहा होने से हजार या लाख । जमीन के नीचे दबा क्या है इसी से इसकी कीमत जमीन वाला लगाता है और जो दलाल है उसी को बस पता होता कि जमीन के नीचे दबा क्या-क्या है । हाईवे से सटी जमीन की कीमत तो आप पूछने की भूल भी ना करें। एक करोड़ से शुरू होकर खत्म कहां होता कोई नहीं जानता । आप करोड़ों की जमीन रोड किनारे लोन और करजा लेकर खरीद कर उसमें झोपड़ी डाल तंदूर मुर्गा का दुकान ,  चाय का दुकान, मैगी - पनीर पकौड़ा का दुकान या खाली दही - पेड़ा का दुकान खोलकर रोज कमा खाकर अपना पेट पाल सकते हैं । और हां , चापाकल का कोनो जरूरत नहीं । बस एक प्लास्टिक का आयरन से पीला वाला एक मग रखना है और उठा लीजिए कहीं से भी । खाली एक बार सूंघ लीजिए कहीं डीजल तो नहीं निकला है । एक बात याद रखना है आपके जमीन के नीचे का हीरा खोद पर नहीं निकाल खाना है । काहे की हीरा चाटने से ही आदमी खत्म हो जाता है सो हीरा को दबा ही रहने दीजिए और चाय बिस्कुट और मैगी खा कर ही मस्त रहना है । दबे हीरे के एहसास से ही आपका कॉन्फिडेंस बना रहता है ।

इस जमीन का सड़क कोलकाता से मिलेगा, यह वाला फोरलेन से सटा जमीन होगा, इस जमीन के बगल में फलाना कॉलेज होगा, इस जमीन पर पेट्रोल चेक हो रहा है, ठीक सामने फलाना स्कूल बनेगा और भी न जाने क्या - क्या । यह सब हमारे पैदा होने से पहले दादा के जमाने से ही हम सुनते आ रहे हैं ।

चौक पर रोड पर पहले कटरा बनाने का सपना आपको सोने नहीं देता। दसियों जगह से उधार - पैंचा ले, सोना - गहना गिरवी रख, आधा पेट खाकर आप दो-तीन कटरा बनाकर अपना सीना फुला सकते हैं । यह बात अलग है कि आपके फूले हुए सीने के भीतर पिचका हुआ दिल कब आपका साथ छोड़ दे आपको नहीं पता हो । लाखों लगा कर दो - तीन हजार कमाने के हुनरमंद यहीं पाए जाते हैं । कटरा आपको अपार शांति देता है और बिना खाए आपको खुद को जिंदा भी रखने का हुनर भी देता है । हर कटरे का भाड़ा उस दुकानदार का दुकान कितना चलता है उससे तय होता है । कुछ तेज दिमाग वाले कम लागत के जीरो मेंटेनेंस की लौज बना लेते हैं और दिन भर कैरम खेल खेल कर स्वर्ग का मजा यहीं ले लेते हैं। लौज में मौज लेते लड़कों को देखकर लौज़ वाला भी मस्त रहता है और मुर्गा - भात में साझेदारी कर मालिक और दास का भेद - भाव ख़तम कर देता है ।

कुछ लोग अपने माथे पर फोन का टॉवर लगवाकर भी बड़ी - बड़ी कंपनियों को भी अपना गुलाम बना लेते हैं और भाड़े के साथ - साथ मशीन का डीज़ल भी पी जाते हैं । टॉवर से खतरनाक रेडिएशन निकलकर इंसान को पागल कर दे या कैंसर इस बात से आप उनको बेवकूफ नहीं बना सकते । यदि आप समझाने की कोशिश करने वाले हैं तो ठहर जाइए । एक बार ठंडे दिमाग से सोच लीजिए कहीं आप उनको मिलने वाली सल्तनत से जल - भुन तो नहीं रहे । सल्तनत का नशा गांजे के नशे पर भारी होता है और आप वो हो जाते हैं जो आप हैं नहीं । मकान मालिक का होना ही आपको ओज और तेज से भर देता है। भाड़े-दार पर हुकूमत चलाकर जो सुख है वह देश की हुकूमत चलाने में कहां । सबसे निरीह प्राणी भाड़े- दार ही होता है। जिसके पास एक धुर भी जमीन नहीं वह पैदा ही क्यों हुआ ? जीवन को सार्थक करने के लिए यहां आपको अपनी जमीन चाहिए । जमीन नहीं तो कोई इज्जत नहीं । सड़क किनारे आपकी जमीन का होना आपकी हुनरमंदी को जगजाहिर करता है । लड़के का अपना पक्का घर है, दो ठो कटरा है और बस कुछ और ना भी हो तो चलता है । मकान मालिक आपको एक नायाब तोहफा घर लेते ही बिना आपसे पूछे तपाक से दे देता है । वो है बिना मीटर के बिजली । एक बल्ब का इतना लगेगा , पंखा का इतना , टीवी का इतना औरो हीटर और आयरन चलाते देख लिए तो कहानी ख़तम । बात यहीं ख़त्म नहीं होती । मकान मालिक रोज कभी - न - कभी किसी भी बहाने अपनी तिरछी और पैनी नज़रों से आपके घर के कोने - कोने को छानकर यह निश्चित कर निश्चिंत होकर सो जाता है कि सब ठीक है । बिना आयरन और हीटर जलाए भी सम्मानित रकम का बिजली का बिल आपसे वसूलकर आपके आत्मसम्मान को बनाए रखने में मकान मालिक की भूमिका आपके मानसपटल पर जीवनपर्यंत बना रहता है ।

मकान भाड़े में एक अलग ही रस  है यहां । एक तो पैसे का रस और दूसरा आपको अपनी सल्तनत और रि़याया पर हुक्म चलाने का नायाब अनुभव । दूसरा वाला अनुभव ज्यादा मजा देता है । किराएदार कितना भी किराया दे दे , मकान मालिक का कर्जा कभी नहीं उतार पाता है । इतना बड़ा मजा चाहिए तो जमीन के पीछे दीवानगी का होना लाजिमी है ।

भाड़े-दार रोज मुर्गा - मछली खाए और मकान मालिक भले ही नून - भात मगर ओहदा हमेशा मकान मालिक का ही बड़ा होता है। मकान मालिक अगर टूटल सायकिल पर बार - बार चेन चढ़ाकर चले और भाड़े- दार बुलेट पर तो क्या हुआ? भाड़े-दार लाख कमाकर भी गरीब होता है और मकान मालिक निकम्मा होकर भी मालिक ही होता है । इसी गरीबी को दूर करने के लिए गरीबों की दौड़ है यहां मालिक बनने की ।

क्या सेठ, क्या डॉक्टर, क्या बाबू, क्या नेता सब के सब ज्यादा से ज्यादा जमीन खरीद कर ज्यादा से ज्यादा इज्जत खरीद लेना चाहता है । रोड किनारे प्लॉटिंग,  ई फलाना नेता का, ई फलाना डॉक्टर का , ई फलाना सेठ का , ई फलाना बाबू का । ई लोग नहीं बेचेगा , आप पीछे वाला ले लीजिए । नेता जी के पीछे वाला 50 लाख, सेठ जी के पीछे 40 लाख,  डॉक्टर के पीछे 1 करोड़ ।  50 लाख वाला में रास्ता नहीं मिलेगा आपको उड़ कर जाना पड़ेगा । 40 वाला में थोड़ा लफड़ा है, अगर आज बयाना कीजिएगा तो अभी लफड़ा सलता देंगे ।  एक करोड़ वाला में दवाई दुकान खोल दीजियेगा तो भयानक चलेगा । पूर्णिया वाला रोड का दोनों तरफ बिक गया है, डी एस कॉलेज से कोलकाता तक बिक गया है, मिर्चाई बाड़ी से फलका तक सब खत्म हो गया है , मनिहारी रोड के दोनों किनारे सब सेठ गोदाम और स्कूल के लिए खरीद लिया है । दलाल को एक सौ साल बाद का भी सब कुछ पता रहता है । दलाल एक सौ साल तक जिंदा नहीं रहेगा इसलिए आपको दिलाकर चैन से दुनिया से चले जाना चाहता है ।

यह सोना विहार है, यह चांदी नगर , यह हीरा विहार , यह मोती नगर , यह पन्ना विहार , यह माणिक्य नगर , यह कुबेर खंड , यह लक्ष्मी विहार …. सब बुक हो गया है । यहां मॉल होगा , यहां टॉल होगा , यहां ताजमहल बनेगा , यहां प्रधानमंत्री जी ले लिए हैं , अमिताभ बच्चन यहीं आ रहे हैं, मुकेश अंबानी अपना एंटिला छोड़कर फोर लेन के पास रहेंगे , बाबा रामदेव अब हरिद्वार छोड़ बाबा - विहार में यहीं आश्रम लेंगे , फेसबुक का फैक्ट्री यहीं खुलेगा , साहेबगंज का पूल बनते ही सब साहब लोग यहीं रहने आएंगे यह सब बात का जानकारी आपको बिना पैसा का चाय - पान के दूकान पर या सैलून में चूल कटाते - कटाते  मिल जाएगा । दू साल बाद आप खरीद नहीं पाइएगा , यहां का जमीन का दाम आग हो जाएगा जिसमें आप जलकर भस्म हो जाइएगा , अभिए बायानानामा कर दीजिए यह सब बात सुनकर आप हदस कर हदस जाएंगे ।

शहर में सौ में नब्बे बुलेट दलाल लोग खरीदकर रोज चमकाकर चलाता आपको दिख ही जाएगा  और हां , दलाल आपको जमीन मालिक से ज्यादा स्मार्ट दिखेगा । उसपर यहां का आयरन का लाल पीला रंग नहीं चढ़ा मिलेगा काहे कि वो मिनरल वॉटर पीता है । जमीन मालिक के जैसन वह खैनी नहीं खाता मिलेगा । पान - पराग और तुलसी का खुशबू से आप मस्त हो जाएंगे । सादा ड्रेस और रंगीन चस्मा और काला जूत्ता में डील-डौल देखकर आपको अपने आप पर लाज़ आयेगी और आप संट हो जाएंगे ।  दलाल शब्द थोड़ा ठीक नहीं जान पड़ता सो आप मुंह पर मत बोल दीजियेगा और उसका नंबर मोबाइल में दलाल बोलकर सेभ मत कीजिएगा। वह आपका सबसे बड़ा हितैषी है सो आप उनका नाम सोच समझकर सेभ कीजिएगा । वही आपका तारणहार है और वही आपको मोक्ष देगा बाकी सब मोह - माया है ।

अमला टोला, बनिया टोला, कालीबारी, राज हाता ,बिनोदपुर , दुर्गापुर, नया टोला , चूड़ी पट्टी , गामी टोला, दुर्गा स्थान ई सब जगह में एक धुर के लिए कम से कम एक करोड़ चाहिए । वह भी तब जब जमीन बेचने वाला को आपका थोबरा पसंद आ जाए । यह सारे इलाके आपको वेनिस का मजा देंगे । आपके बेड तक पानी की सुविधा है यहां । मंगल बाजार, न्यू मार्केट , बड़ा बाजार, एमजी रोड में घर या दुकान लेना कनॉट प्लेस में लेने से कोनो कम नहीं है । शहीद चौक की बात करेंगे तो लोग आपको ' पगला गया है ' कहके आपके पीठ पीछे मुंह में गुटका दबाए ही जोर का हंसी हंस देंगे ।

आप घर में कितने ही निकम्मे क्यों न हो आपको पूरा इज्जत मिलेगा बाहर में अगर आपके पास किराए पर देने के लिए कटरा या मकान है । रजिस्ट्री आफिस के सामने रोज की कचा - कच भीड़ यह दिखलाती है सब लोग उतनी ही इज्जत पाने को कितना बेताब हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि आप खाली जमीन खरीदकर उसमें आज बाउंड्री वाल दे दे और कल ही आपको बिना खरीदार के ही  20 से 25 लाख के फायदे का एहसास अपने आप हो जाएगा । जमीन खरीदने वाला न जाने कितनी रात इसी खुशनुमा अहसास से  नहीं सोता । सबकुछ दांव पर लगाकर भी कई रातों तक न सोकर भी स्वर्ग - सुख का अनोखा अहसास यहीं , बस यहीं दिखता है। यहां आदमी नहीं जमीन ही जिंदा है और जमीन ही जिंदगी जीता है आदमी नहीं । आबोहवा ही शहर की कुछ ऐसी है कि जमीन लेते ही आप बन गए। क्या बन गए ? यह तो आप ही जान जानते हैं और हम ।

(राजू दत्ता ✍🏻)


Sunday 26 July 2020

नींद

सरकार और व्यवस्था को कोसने से कोई फायदा नहीं । इसे आपने स्वयं खड़ा किया है और पोषित भी। आपके प्रतिनिधि आपके ही प्रतिबिंब हैं। हर व्यवस्था में आपके ही अपने लोग स्थित हैं । जबतक समाज का प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं करेगा , स्थिति में बदलाव नहीं होगा । सत्ता को अयोग्य व्यक्ति के हाथों सौंपकर यदि व्यक्ति सो जाए तो दुस्वप्न निश्चित है । अधिकार स्थाई नहीं होता अपितु समय - समय पर आपकी उपस्थिति की अनुभूति अपरिहार्य है अन्यथा आपके अधिकारों पर कब्जा हो जाना कोई आश्चर्य नहीं । बिना आपकी मर्जी के कोई आपके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता । बिना उठे , बिना जगे आप बस एक मृत व्यक्ति मात्र ही हैं। जागना आवश्यक है। एक सजग और सचेत समाज में ही लोकतंत्र फलीभूत हो सकता है ।

किरदार

आप महज एक किरदार हैं । एक ऐसे किरदार जिनको अपना अभिनय तक पता नहीं । बस रंगमंच पर यूं ही उतार दिया गया है । पटकथा पहले ही लिखी का चुकी है । कौन मेहमान कलाकार है , कौन मुख्य यह बस उस निर्देशक को पता है। आप अपने किरदार में इस कदर खो जाते हैं कि आपको कुछ पता ही नहीं चलता कि आप महज एक किरदार हैं । इस रंगमंच का निर्देशन ही इतना उम्दा है कि आप बस खो जाते हैं। चंद किरदार ही होश में होते हैं और उन्हें ज्ञात होता है कि वे महज एक किरदार ही हैं । जिंदगी के सारे ताने - बाने बस यूं ही रचते चले जाते हैं और पटकथा यूं ही रचती चली जाती है ।

भीड़

यह जरूरी नहीं कि आपके पास भीड़ हों और वो भीड़ आपके अपनों की हो। इसकी पूरी संभावना है कि आप शिकार हों और आप चारों तरफ शिकारियों से घिरे हों । हितैषियों की कभी भीड़ नहीं होती । आपके असली चाहने वाले कभी भीड़ में नहीं होते । वो भीड़ से अकेले खड़े मिलेंगे । इसलिए अपने पीछे की भीड़ को कभी भी अपनी ताकत मानने की मूर्खतापूर्ण भूल ना करें । आपकी ताकत बस चंद लोग ही हो सकते हैं । ऐसे भी उचित कार्य के लिए ताकत की नहीं , नेक इरादों की जरूरत होती है । भीड़ और बल का प्रयोग सदा अनुचित कार्यों में ही होता है । महान कार्य के लिए साधना आवश्यक है जो एकांत में ही हो सकती है,  भीड़ में कदापि नहीं ।

हैसियत आपकी

लोग आपको जिंदगी में अपनी जगह आपकी हैसियत के हिसाब से देते हैं । जैसी आपकी हैसियत वैसी आपकी जगह लोग तय करते हैं । यही बात आपके प्रति आचरण और व्यवहार में भी लागू होता है । लोगों का आपके प्रति भाव ही आपका भाव तय करता है और आपका भाव ही यह तय करता है कि आपको लोग कितना भाव देंगे । रिश्तों की अहमियत आपकी अहमियत से तय होती है । अलग - अलग लोगों के लिए अलग - अलग व्यवहार इसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । भले ही हम इसे नजरअंदाज करते रहते हैं परन्तु  यह एक कटु सत्य है बाक़ी सब दिल को बहलाने वाली बातें हैं ।

Friday 17 July 2020

जिद्द

हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे 
उठना पड़ेगा ख़ुदा को भी
कुछ ऐसा कर जाएंगे ।

तकलीफों के समंदर को पार किया
बार - बार किया 
मरा बार - बार, फिर भी जीया 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

धूप और भूख को जीता बार - बार
हर तूफ़ान को किया तार - तार
झुका , गिरा फिर उठा मैं बार - बार
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

कैसा दुःख और फिर संताप कैसा 
जिंदा हूं जबतक फिर ताप कैसा 
हर ताप सहा , बार - बार सहा 
खड़ा हूं मैं अब भी फिर संताप कैसा 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

तपता हूं बार - बार 
फिर भी हंसता हूं बार - बार
कैसा दुःख और फिर संताप कैसा 
मिली है छाव भी तो 
फिर ताप से संताप कैसा
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

समय पर समय का ही जोर नहीं
बिना शांति के हो सकता शोर नहीं
बात बस सोच की है कोई कमजोर नहीं 
गिरा दे हौसले को आंधियों में वो जोर नहीं 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

बिना लड़े ही जीता जंग बस खड़े- खड़े 
विपदाएं अाई रहे हम अड़े - अड़े
सीखा था सबकुछ यूं ही जड़े - जड़े 
रोया, फिर हंसा, फिर भी ना रुका 
मैं न थका , बस वो ही थका 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

मैं मुस्कुराया सदा
रोया फिर हसा सदा
तूफानों से सीखा सदा
कैसे रहना है खड़ा सदा 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

Tuesday 14 July 2020

अविश्वास प्रस्ताव

अरे भाई राजनीति व्यापार है ...समाज सेवा थोड़े ना है । समाज सेवा के लिए राजनीति की जरूरत नहीं होती । समाज खुद विकसित होकर बनता है । राजनीति 20-20 का गेम है जहां सट्टा लगता है । दशरथ मांझी अगर किसी पार्टी को ज्वॉइन करता तो पहाड़ काटकर रास्ता नहीं बनता । पार्टी जॉइन करने का मकसद पार्टी करना होता है । नेता काम करेगा ये  सोचना यह यह साबित करता है कि आप अभी जन्मे ही नहीं है । जहां पार्टी का टिकट ही पैसे से मिलता हो उसपर काम की उम्मीद वो भी समाज सुधार और विकास की तो आप सभ्य भाषा में बहुत ही भोले- भाले हैं । बिना बोतल बांटे आपका जमानत जहां ज़ब्त हो जाए वहां आपको बाद में खाली बोतल ही मिलेगा और आप बोतल चुन चुन कर बोतल हो जाएंगे । ऐसे लोकतंत्र मूर्खों का शासन है बाबा अरस्तू खुद ही मूर्ख बनकर पहले ही चल दिए । 

गुनाह करके कहाँ जाओगे ग़ालिब,

ये जमीं और आस्मां सब उसी का है।

Tuesday 7 July 2020

मारवाड़ी पाठशाला , कटिहार - " यादों की पाठशाला "

*मारवाड़ी पाठशाला , कटिहार - "यादों की पाठशाला"*

*अनकही बातों का दौर और कभी न खत्म होने वाली बातों के शोर से पूरे का पूरा स्कूल हमेशा की तरह चिर - परिचित काय - काय की शोर से गुंजायमान था कि अचानक एक कड़क और दमदार आवाज के भारीपन ने उस कोलाहल को जैसे अपने वजनी वजन से दबाकर चित सा कर दिया था । चारों तरफ अब निः शब्द शांति फैल चुकी थी । वह दमदार और सब को हिला देने वाली आवाज दसवीं कक्षा के सेक्शन बी के कमरे से निकलकर पूरे स्कूल में फैल गई थी । यह जानी पहचानी कड़क आवाज स्कूल की दरो - दीवार तक छेद देने का सामर्थ्य रखती थी । स्कूल से सटे आसपास के घरवालों तक को समझते देर न लगती कि यह चिल्ल - पौं अचानक शांति का चोगा ओढ़कर कैसे बैठ गई । लगभग 6 सवा 6 फूट के आसपास अधेड़ उम्र वाली हल्की सफेदी बालों में लिए मगर गठीले और सधे हुए जिस्म पर खादी का सफेद कुर्ता और घोती बिना सिलवट लिए उस रौबदार वजनी आवाज वाले शख्स पर पूरी तरह फब रहा था । चेहरे पर तीखा तेज और  आंखों में सिहरन पैदा करने वाली अनजानी चमक के साथ शब्दों की गर्जना से पूरे की स्कूल की काय काय को दबा देने का अद्भुत बल लिए वह शालीन व कड़क व्यक्तित्व कोई और नहीं सी. पी. सिंह सर थे । हां , वो सिंह ही तो थे हम बारे में बंद लगभग 600 के आसपास मेमनाओं के लिए , जिनकी गर्जना से आधी जान तो पहले ही निकल जाती थी । सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल तो कतई  नहीं दिखते थे । सरकारी स्कूल के सरकारीपन ने भी उन्हें अपनी आगोश में लेने की हिमाकत अब तब तक नहीं की थी । उनका व्यक्तित्व और डील डौल प्रिंसिपल से भी भारी था । यूं कहा जाए तो किसी रौबदार मंत्री की शख्सियत रखने वाले थे। नया टोला जैसे मोहल्ले के हिम्मतवर और खूंखार छात्रों ने भी उस शख्सियत के सामने झुककर नील डाउन होकर दो - चार हाथ  खाकर अपने- अपने सुनहरे भाग्य को सराहा था । उनकी आवाज और शख्सियत की मार ही  काफी थी । 5 सालों की पढ़ाई में दो - चार बार से ज्यादा रूबरू होने का सौभाग्य हमें नहीं मिला था ।* 

*बड़ा बाजार, चूड़ी पट्टी, नया टोला, अरगड़ा चौक , हरिगंज चौक , गामी टोला ,दुर्गा स्थान ,एक और दो नंबर कॉलोनी, गांधी नगर ,बनिया टोला , मंगल बाजार और कटिहार की हर गली मोहल्ले के छात्रों को अपने में समेटे यह स्कूल कटिहार के बीचो- बीच अपना सिक्का जमाए  हुए गर्व से इठलाया करता था ।*

*जगह की कमी और छात्रों की भीड़ का दबाव कहा जाए या नियति की मार , लड़कों और लड़कियों का एक साथ पढ़ना मयस्सर नहीं हुआ । सुबह के 6:00 बजे से 11:00 बजे तक का समय लड़कियों का और 11:00 से 4:00 बजे का समय लड़कों का था । केवल छठी कक्षा के लिए लड़कों का समय 6:00 से 11:00 का था, मगर उसमें भी लड़कों का सेक्शन अलग ही था । छठी कक्षा पर इतनी मेहरबानी और आरक्षण क्यूं थी, इसका  कारण भूतकाल के गर्त में ही रहे  तो उचित है । हर एक  क्लास के दो सेक्शन थे -  सेक्शन - ए और सेक्शन - बी । सेक्शन - ए के लड़के अपने को ए - ग्रेड समझते और सेक्शन - बी के लड़के को बी - ग्रेड । ए से अच्छे और बी से बुरे होने की लड़ाई आम बात थी । यह महज एक इत्तफाक था या सोची समझी योजना थी कि लड़कों के डील - डौल  और हाव-भाव से भी यही लगता था या फिर सेक्शन- बी के अधिकांश लड़कों ने अपनी यदि नियति मानकर खुद से समझौता कर लिया था ।* 

*छठी कक्षा के क्लास टीचर नरेश सर थे । गोरे रंग का सामान्य कद काठी के नरेश सर हिंदी और संस्कृत की क्लास लेते थे । सधी हुई टनकदार आवाज के साथ हिंदी और संस्कृत के काव्य- उच्चारण की ध्वनि कोई नहीं भूल सकता । पढ़ाने के अलावा हमने हमेशा उन्हें रजिस्टर  लेकर कुछ ना कुछ करते ही देखा था । वह दो ही जगह पर पाए जाते या तो स्कूल के भीतर या फिर रबिया होटल के भीतर चाय की टेबल पर । इसका दुष्परिणाम हमारे लिए यह होता कि हम रबिया होटल की चौक पर ना तो चौका - विहार कर पाते और ना ही मटरगश्ती ही ।उनकी लेखन शैली और आलेख की छवि हमारे जेहन में आज भी तरोताजी  है । साधारण होकर भी वह असाधारण थे । शायद ही ऐसा कोई था जिसका कान मचोड़कर उन्होंने लाल नहीं कर डाला होगा ।*

*बात अगर जब छठी कक्षा की हो तो झरना मैडम, दुर्गा मैडम, रत्ना मैडम और शिप्रा मैडम की बात ना हो तो बेमानी होगी।*

*झरना मैडम की आवाज से पूरे का पूरा क्लास शांत रहा करता था ।उनकी कड़क आवाज ही हमारे अनुशासन के लिए पर्याप्त थी । झरना मैडम हमें अंग्रेजी पढ़ाया करतीं और अंग्रेजी से रूबरू हम उनकी क्लास से ही ठीक से हो पाए ।  ऊपर से इतनी कड़क मगर भीतर से नरम- हृदय का इतना  बेहतर सामंजस्य बहुत ही कम दिखने को मिलता है ।*

*दुर्गा मैडम हमें चित्रकला सिखाया करती थी । नाम के अनुरूप ही उनकी छवि भी मां दुर्गा की तरह हुआ करती थी । उनका व्यवहार सदा ही हमारी ओर वात्सल्य भरा रहा । शांति और अदम्य मुस्कान का वह रूप आंखों से उतरकर सीधे हमारे आत्मा की गहराई में उतर आता ।*

*रत्ना मैडम विज्ञान पढ़ाया करती थी। उनकी सौम्यता के कारण उनकी क्लास में किसी को कोई डर नहीं था । उनकी उपस्थिति ही स्वत शांति और अनुशासन साथ लेे आती ।* 

*अगर शिप्रा मैडम की बात की जाए तो भला कौन है जो उनको नहीं जानता । कड़े अनुशासन का पालन कराने की वजह से वह पूरे विद्यालय में मशहूर थी । खासकर लड़कियों की क्लास में उनका अच्छा खासा खौफ और दबदबा था । मगर यह दबदबा अनुशासन और चरित्र की नीव को मजबूती से थामे रखने का था ।*

*छठी कक्षा के समापन के बाद भोर का वह विद्यालय हमारे जीवन से सदा के लिए सांझ की तरह समाप्त हो गया । भोर की लालिमा अब दिन के तपते सूरज ने ले लिया था । छठी कक्षा के बाद की पढ़ाई का समय 11:00 बजे के बाद का था । लड़कियों की 11 बजे की छुट्टी के के समय उनके निकालने का इंतजार करते लड़कों की भीड़ से पूरी सड़क भारी होती । सड़क के दोनों ओर लड़कों कि भीड़ और बीच से निकलती लड़कियों का रेला। वह पल ही सबके लिए धड़कने बढ़ाने वाला अद्भुत पल होता । कुछ तो मनवांछित दर्शन कर वहीं से वापस लौट आते और फिर अगली सुबह और 11 बजे के इंतज़ार में सारा दिन यूं ही गुज़ार दिया करते थे । बिना मोबाइल के भी उस दौड़ में संपर्क साधने की कोई कमी न थी । अद्भुत दौड़ था वो । समय ने सबको काफ़ी समय दे रखा था । समय इतना होता कि उसे काट - काट कर खत्म करना होता था । अंतहीन समय का दौर था वो ।*

*सातवीं कक्षा के सेक्शन - ए के क्लास टीचर लक्ष्मी सर हुआ करते थे । वे हमें अंग्रेजी पढ़ाया करते थे । क्लास की पहली घंटी अंग्रेजी से आरंभ हुआ करती थी । अंग्रेजी पढ़ने में किसी को यकीन नहीं था । मगर क्लास टीचर ही अगर अंग्रेजी का शिक्षक हो तो हमारे पास कोई उपाय नहीं था । किसी तरह पिट - पिटा कर  हमने अंग्रेजी पास करनी सीख ही ली थी ।श्याम वर्ण होने के साथ-साथ लक्ष्मी सर का व्यक्तित्व भी काफी निराला था। प्रभु की दुकान की पान की लाली उनके मुख मंडल पर खूब फबती थी । हम उन्हें पढ़ाते वक्त कम और स्कूटर चलाते वक्त ज्यादा ध्यान से देखा करते थे । तिरछे होकर 20 किलोमीटर प्रति घंटे की निश्चित रफ्तार में स्कूटर चलाने का अंदाज हमारे लिए मनोरंजन और कौतूहल का विषय था ।*

*पतले - दुबले  और छरहरे बदन के सुनील सर हमें कभी-कभी संस्कृत पढ़ाने आया करते थे । मगर भारी व्यक्तित्व नहीं होने की वजह से हमने कभी उनके क्लास को तवज्जो नहीं दी थी ।वह दौर ही ऐसा था कि भारी व्यक्तित्व और दबंगता के बिना छात्र शिक्षण लाभ ले ही नहीं पाते थे ।*

*किसी तरह सातवीं कक्षा से प्रोन्नत होकर हम आठवीं कक्षा के सेक्शन- ए में पहुंच गए ।*

*आठवीं कक्षा के सेक्शन - ए के क्लास टीचर थे - दुर्गानंद झा सर । वे हमें में हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे । उनके साथ हमारा समय ज्यादा व्यतीत हुआ । एक तो वे हमारे मुहल्ले ( दुर्गापुर) में रहते थे और ऊपर से उनका एकमात्र पुत्र पिंटू (दिव्यांशु) हमारे साथ हमारा क्लास - मेट हुआ करता था । छठी कक्षा से ही उन्होंने हमें कॉन्पिटिशन एग्जाम के बारे में जानकारी ही नहीं दी  बल्कि तैयारियां भी शुरू करवा दी थीं । सफेद कुर्ते - पजामे में हमेशा मुस्कुराते और पान चबाते 6 फुट के आसपास के एक महान व्यक्तित्व ने हम जैसे निचले तबके के छात्रों में आशा की किरण बचपन के उस मोड़ पर प्रज्वलित कर दिया था  उसकी रोशनी आज भी जीवन को सही दशा और दिशा दिखा रही है । अपने बच्चे और आम छात्रों में रत्ती भर का विभेद नहीं किया उन्होंने । लेख और सुलेख का पाठ हमने उन्हीं से पढ़ा । हिंदी साहित्य को प्रत्येक लिहाज से उन्होंने हमें उसी उम्र में ही अवगत करा दिया था । बिना गुरु - दक्षिणा के घर पर समय देकर उन्होंने हमें सदा कृतार्थ किया जिनका ऋण जन्म जन्मांतर तक नहीं चुकाया जा सकता ।*

*बात अगर शिक्षकों की हो तो कामदेव सर के शांत एवं सौम्य व्यवहार को कैसे भुला जा सकता है ? ऐसा कौन होगा जो उनके शांत और सौम्य व्यवहार से अभिभूत ना रहा हो ?  बिना किसी डांट- डपट के उनके क्लास में स्वत शांति का छा जाना उनके विशाल व्यक्तित्व के प्रभाव को मूर्त रूप दिया करता था । उनके मुख- मंडल  पर एक दिव्य प्रकाश हमें सदा दिखता रहता था ।*

*बात अगर हिंदी और संस्कृत की हो और चंद्रकांत सर आंखों के सामने साक्षात खड़े न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता । हमारे मनो- मस्तिष्क में वो समाहित हैं ।चंद्रकांत सर का भारी भरकम लंबा - चौड़ा व्यक्तित्व और चेहरे का ओज पूरे शहर को सुशोभित करता जान पड़ता था । नया टोला में रहने के कारण वहां के मशहूर और दबंग छात्र तक भी  डर से अपनी बगलें हांका करते थे उनके सामने । बिना बेंत की मार से ही अच्छे अच्छे टेढों को भी सीधा करने का अद्भुत सामर्थ था उनमें । बिना पुस्तक उठाए संस्कृत के भारी-भरकम श्लोकों की बौछार से घायल होने से भला कौन बचा होगा ? सफेद धोती -  कुर्ते में चौड़े माथे पर चंदन का लाल तिलक और उनके कंठ से निकला संस्कृत का एक-एक श्लोक से ऐसा जान पड़ता मानो किसी यज्ञ वेदी पर हम आहुति देने बैठे हों और कोई दिव्य- पुरुष अपने मंत्रोच्चारण से यज्ञ संपन्न करवा रहा हो । उनके व्यक्तित्व और शब्दों की छाप हमारे मन मस्तिष्क पर आज भी तरोताजा है । संस्कृत पढ़ाने में पूरे शहर में उनका कोई सानी नहीं था और उनका इसपर एकाधिकार था ।*

*प्रेमचंद सर का अद्भुत सानिध्य  हमें मिला था।  करिश्माई व्यक्तित्व , असाधारण भाव - भंगिमा और वाकपटुता के स्वामी । न जाने कितने विशिष्ट गुणों से युक्त प्रेमचंद सर पूरी सृष्टि में केवल एक ही हो सकते थे । इतिहास पढ़ाते थे। उनकी लिखावट का सौंदर्य इतिहास जैसे बेझिल विषय को भी अपनी खूबसूरती से जीवंत बना देने के लिए पर्याप्त होती थी । उन्होंने केवल इतिहास ही नहीं पढ़ाया बल्कि स्वयं इतिहास रचा था । बिना वाक्यों के ही बस सुंदर आलेख के माध्यम से उन्होंने मृत हो चुके इतिहास  को जीवंत कर डाला था । उनकी जादुई बातों का दौर और कहानियों की कड़ी हमें जाग्रत अवस्था में ही स्वप्नलोक की सैर करा दिया करता था । काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद चौक से बिल्कुल सीधा लिखते हुए उनकी लिखावट की छाप सीधे हमारी आत्मा में उतर आती । वे स्काउट गाइड के प्रभारी शिक्षक भी थे जिनके सानिध्य में न जाने कितने छात्रों ने अपने जीवन की दशा और दिशा दोनों को एक नया आयाम दिया था । प्रयोगशाला दिखाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी । शब्दों को भी उनके बारे में लिखने का सामर्थ्य नहीं । कभी न भूले जाने वाला वह महान शख्स आज भी हमारे मानस पटल पर काली ब्लैक बोर्ड पर सफेद चौक से मोतियां पिरोते दिखता रहता है ।*

*उन दिनों स्कूल में नया नया कंप्यूटर आया था । कंप्यूटर क्लास के प्रभारी  कंदगोपाल सर थे । कंप्यूटर के लिए आरक्षित कमरा था जिसमें दो या तीन गेट होते थे। सभी का प्रवेश वर्जित था। केवल वे ही छात्र उस कमरे में प्रवेश पाते जिन्होंने कंप्यूटर कोर्स में अपना नाम डलवा रखा था । अधिकांश तो उस समय कंप्यूटर को देख भी नहीं पाते थे । कंप्यूटर वायरस भी हमें आदमी को बीमार कर देने वाला वायरस ही समझ आता था। कंद गोपालसर कंप्यूटर पढ़ाने के साथ-साथ एडवांस मैथ भी पढ़ाया करते थे। उनका साधारण व्यक्तित्व मनमोहक हुआ करता था।*

*राजदूत लेकर आने वाले आजाद सर को भला कौन भूल सकता है ? वह हमें भूगोल पढ़ाया करते थे । उनका साम्य व्यवहार हमारे बीच काफी मशहूर था ।*

*तीखे नैन - नक्स और माध्यम कद के विश्वनाथ सर का एक अलग ही स्थान था ।विश्वनाथ सर हमें लगभग सारा सब्जेक्ट पढ़ा दिया करते थे ।*

*फिर दुबले - पतले गौड़ वर्ण के आंखों में मोटे फ्रेम का चस्मा लिए भवेश सर को कौन भूल सकता है ? भवेश सर बीमार रहने की वजह से  कभी-कभी ही क्लास लिया करते थे । मैथ सिखाने का का उनका तरीका निराला था । त्रिकोणमिति के फार्मूले को हमारे दिमाग में स्थित करने में उसने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी ।*

*सुरेंद्र सर गणित पढ़ाते थे। इनकी एक विशिष्ट पहचान थी । पान चबाते  समय जीभ को बार-बार बाहर कर दाएं - बाएं करने की इनकी नकल करने में  न जाने कितने लड़के अपनी सामत बुला बैठते थे । थी शानदार तरीके से आसानी से कठिन सवालों को समझाना उनके लिए चुटकी का काम था।*

*जगदीश मंडल सर मैथ और साइंस पढ़ाने वाले बहुत ही सौम्य स्वभाव सब के व्यक्तित्व थे । ऐसे तो  वे बहुत  ही शांत स्वभाव के थे लेकिन अनुशासन तोड़े जाने पर हाथ पांव भी तोड़ देने का सामर्थ रखते थे ।*

*समय बदला और नए ज्वॉइन किए शिक्षकों में अजय सर अन्य शिक्षकों से ज्यादा मशहूर हुए । वे हमें जीव - विज्ञान पढ़ाया करते थे। लंबे और गोरे रंग वाले, आंखों में चश्मा लिए अजय सर के दोस्ताना व्यवहार ने हमारे मन में बैठे उन पुराने शिक्षकों  के भय को बहुत हद तक दूर कर दिया था । दोस्ताना व्यवहार के बावजूद अनुशासन का दामन थामे हमने भी नई दशा और दिशा को हरसंभव सम्मान दिया था ।* 

*आज भी स्कूल के पास से गुजरने पर ऐसा आभास होता है मानो न जाने कौन सा शिक्षक पीछे से कान खींचकर वही पुराना सबक न पूछ ले। स्कूल के आहाते में झालमूढ़ी का अपना खोमचा लिए परमेश्वर जितनी तन्मयता से हमारे लिए झालमुढ़ी बनाया करता वो स्वाद , वो जायका भी समय के साथ फीका पड़ता जा रही ।*

*कुल मिलाकर हमारा स्कूल प्रतिभावान शिक्षकों से भरा था, जिनकी प्रतिभा के आलोक में हजारों जिंदगियां गुलज़ार हुआ करती थी जिसकी रोशनी आज भी हजारों जीवन का पथ आलोकित कर रही है। अब शिक्षा और शिक्षक का प्रारूप बदलते समय के साथ बदल चुका है । डर के साथ - साथ सम्मान की भावना की जगह व्यावसायिक संबंधों ने लेे लिया है जिनकी जड़ें उतनी पुख्ता नहीं जितनी कल हुआ करती थीं । राजनीतिक इच्छशक्ति की कमी ने सिलेबस के साथ - साथ वो सबकुछ बदल दिया है जो जीवन को जीवंत रखने का आधार हुआ करती थी ।*

(राजू दत्त ✍🏻)

Sunday 5 July 2020

ख़ून पसीना

*एक गरीब दोस्त भी फटका चप्पल में पेपर बेचकर तुमको पढ़ाया - लिखाया डाक्टर बनाया । यहां तक कि तुमको - आप आप बोलकर इज्ज़त देता रहा और तुम उसका बोटी - बोटी नोच नोच के खाया । सूख - सूख के चूसा हुआ केतारी जैसन हो गया उ । सब रस पी गिया तुम । उ रोज रोता है छिप - छिप के । उसका क्या ? घर का गरीब तुमको नै दिख रहा है ? उ अभी भी अपना बचा खुचा ख़ून बहाने का तैयार है तुमरे लिया । किडनी , लीवर , आंख शरीर का सब्बे चीज से दोस्ती निभाया उ । खाली पैर बिना चप्पल के तुम रा खातिर सब सावन में बाबा धाम गया । इतना कबूलती किया कि आज तक पूरा नै कर पाया । भगवान सब भी गुस्सैल है । तुमको नै पता कितना ख़ून पसीना से तुमको पाला पोसा और पढ़ाया  औरो तुम साला अभी भी विद्यार्थी जीवन का चद्दर ओढ़ कर टाटा गोल्ड का चायपत्ती और फूल क्रीम वाला दूध वाला चाय और आमलेट चबाता रहा । आज तक उ लड़का टाटा गोल्ड वाला चाय पीना तो दूर सूंघा तक नहीं है । नंगा पैर पेपर लेकर दौड़ दौड़ के जो कमाया तुमको भेजा और तुम नायकी का जुत्ता पहिन के घूमा है । उसका खून पसीना वाला पैसा तुम लौंडियाबाजी में भी लुटाया । हमको बोलने दो आज । बहूते लिहाज़ किए हम अब उ लड़का का दरद नै देखा जा रहा । तुमको उ कुछ नै कहेगा । तुमरे लिए देशी घी का ठेकुआ नीमकी बनाते बनाते अपना हड्डी गला दिया । अपने धी नै खाया कभी तुमको खिलाया । छाती फटता है हमारा । उ तुमको कभी नै बोलेगा , कभी नै ।*

बाल - विद्यापीठ

बाल - विद्यापीठ

सफेद इस्तरी की हुई धोती, हल्के हरे रंग का खादी का कुर्ता और ऊपर से काले रंग का हाफ नेहरू जैकेट और लंबी और तीखी नाक पर मोटे फ्रेम वाला चश्मा पहने गौर वर्ण का दुबले-पतले  आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी जिनकी आवाज में इतनी टनक होती कि पूरे स्कूल को सुनाई पड़ जाती । उस शानदार व्यक्तित्व का नाम था - सच्चिदानंद दास, बाल विद्यापीठ का प्रधानाध्यापक । विद्यालय ही उनका घर था । पांचवी कक्षा का लकड़ी से घिरा कमरा और एक कुर्सी - टेबल और कुछ किताबों - स्टेशनरी के बोझ से दम तोड़ती लाचार अलमारी, बस यही थी उसकी जीवन भर की कमाई और जमापूंजी । चने के सत्तू का एक डब्बा और हॉर्लिक्स की बोतल यही था उनका किचन का सामान । स्कूल का चापाकल और शौच - घर ही उनके लिए पर्याप्त था । एक रस्सी पर सूखती सफेद रंग की धोती की दिव्य सफेदी मानस पटल पर आज भी तरोताजा है । प्रधानाध्यापक के साथ साथ वे पांचवी कक्षा के प्राचार्य भी थे । पतले बांस की करची से न जाने कितने लोगों का भविष्य रच डाला था उस असाधारण व्यक्ति ने ।

उस जमाने में भी उस विद्यालय में लड़के लड़कियों में विभेद नहीं था । सब साथ - साथ पढ़ते थे । कक्षा 1- बी के टीचर थे श्रीवास्तव सर,  1- ए के महेंद्र सर 1 के राजेंद्र सर , दो के राय सर , 3 के  शर्मा सर , 4 के  कमलू सर और पांच के स्वयं सच्चिदानंद सर ।

श्रीवास्तव सर सूखे पेट की भी चमड़ी पकड़कर सजा देने में माहिर थे,  तो राजेंद्र सर के पहाड़े की क्लास में शायद ही कोई उनकी बेंत की मार से  बचा हो ।  राय सर का नाम ही खौफ के लिए काफी था और वो सेकेंड सर के नाम से हमारे बीच मशहूर थे । शर्मा सर कानों के नीचे बाल खींच कर सीधा कर देते और कमलू सर पूरे सर के बाल खींचकर शरीर तक को उठा लेने का सामर्थ रखते थे । सच्चिदानंद सर तो प्रिंसिपल ही थे । टी. सी. के नीचे बाद भी बेमानी थी ।

पठन- पाठन से ज्यादा महत्व बिगडों को सुधारने पर था, जिसका भरपूर ज्ञान शिक्षकों को था । उन दिनों स्कूल में पिटने का मतलब घर पर भी धुलाई थी, आज की तरह हमें उतनी तवज्जो नहीं दी जाती थी । स्कूल ना जाने का कोई बहाना काम नहीं करता था। शिक्षक स्वयं घर आकर हमें उठा ले जाते थे । उन दिनों घड़ियां भी घरों में कम होती थी । जूट मील का  साढ़े नौ बजे के सायरन से डरावनी आवाज आजतक नहीं सुनी । पहली सायरन बजते ही खौफ का मंजर होता शुरू होता । घसीटकर स्कूल भेजने की तैयारी की जाती । चारों तरफ रुदन  और हाहाकार फैला होता। पौने दस बजे के सायरन पर रुदन का जोर और भी परवान चढ जाता और दस बजे के सायरन के साथ हमें किसी तरह घसीटकर स्कूल पहुंचा ही दिया जाता, जहां पहुंचकर सब कुछ सामान्य हो जाने की नियति से हम भय वश  समझौता करने को विवश थे।

आज भी वो जूट मील की सायरन और स्कूल की घंटियों की टनटनाहट कानों में गूंजती रहती है । स्कूल में टिफिन ले जाने की परंपरा नहीं थी । टिफिन के समय भी ठीक डेढ़ बजे जूट मील का सायरन बजता और इधर ही स्कूल की घंटी । दो बजे फिर घर से खाना खाकर आने की असहनीय पीड़ा किसे याद नहीं होगी । चार बजे छुट्टी होती थी । छुट्टी की घंटी का संगीत का आनंद मोक्ष के आनंद पर भी भारी था । 26 जनवरी और 15 अगस्त को केवल चॉकलेट बंटने की नाखुशी आज भी बरकरार है। जलेबियां न बटने का कष्ट काफी दुष्कर था । शानदार पढ़ाई के पीछे शानदार दंड- विधान का महत्वपूर्ण योगदान था । हर एक शिक्षक के दंड - विधान का अपना एक अलग ही तरीका था । मुर्गी बनाना, मुर्गा बनाना ,कान पकड़ कर बेंच पर खड़ा होना और हंसना भी नहीं, पीठ पर ईंट रखना, धूप में खड़ा करना ,क्लास में झाड़ू लगाने और उंगलियों के बीच पेंसिल डालकर उंगलियों को दबाकर पेंसिल को धीरे - धीरे घुमाकर सजा जैसा दंड सामान्य था । 

बारिश के मौसम में स्कूल की छतों से टपकता पानी, उन दिनों हमें एक खेल सा लगता था ।हमें शायद यह नहीं पता था कि यह महज  टपकता पानी ही नहीं बल्कि कुछ और ही था । शायद कम अर्थों के बोझ के कष्ट का रुदन था वो । हमारी फीस काफ़ी काम थी और उसपर भी कम लोग ही समय पर फीस दे पाते थे ।जर्जर अर्थवयवस्था ने स्कूल की नीव के साथ - साथ छतों को भी यातना दे दे कर उसे तोड़ दिया था ।

वार्षिक परीक्षा के समापन के बाद परिणाम घोषित होने वाले दिन में मुख्य अतिथि हर बार एक ही होते थे । वो थे - डॉक्टर दौलतराम ढंड। प्रथम , द्वितीय और तृतीय स्थान लाने वाले छात्रों को एक कलम प्रदान की जाती थी ।

समय की मार और धन के अभाव में वह देवालय एक बार दो हिस्सों में बट गया और वह पुराना और अमूल्य विद्यालय खाली हो गया और खाली हो गई हमारी अंतरात्मा । यह बंटवारा हमारी अनगिनत सुनहरी यादों का था, उन अमूल्य भावनाओं का था जिनकी जड़ें उसके  प्रांगण में आज भी जीवित है और प्रतीक्षारत भी ।आज भी अनायास ही कदम उस तरफ जाकर ठहर जाते हैं । नीले अक्षरों में स्कूल का धुंधला सा नाम आज भी अपनी गौरवपूर्ण दास्तां बयां कर रहा है। स्कूल की घंटी की जगह घिसावट का निशान आज भी ज्यों की त्यों है । स्कूल का वह प्रांगण आज कचरों से भरा है, जहां कल न जाने कितने सुंदर-सुंदर फूल खिले होते थे । स्कूल का वह चापाकल जो कभी न थकता था आज निस्तेज होकर सूखा पड़ा है । कानों में वो शोर अब भी गूंज रहा  पर कोई वहां नहीं है । स्कूल के सामने चाट वालों का खोमचा, झालमुड़ी वाले का पिटारा और खट्टे - मीठे मौसमी फलों की टोकरियां अब नहीं सजती। चाट की खट्टी खुशबू और  झालमुड़ी की तीखी महक अब भी जस की रस ताज़ी है जेहन में । कैलाश चाचा की चाय की दुकान भी अब बंद हो चुकी है , जहां न जाने कितने चाय और बिस्कुट हम खाते रहे। ब्रह्म मुहूर्त में सदा खुलने वाला वह दुकान अब सदा के लिए बंद था । हम आगे निकल आए और वह सब कुछ पीछे छूट गया । कुछ गुरुदेव अब नहीं रहे और जो है बिल्कुल भी ना बदले । रायसर , कमलू सर राजेंद्र सर और श्रीवास्तव सर से मुलाकात होती रहती है । इन गुरुओं ने हमें अपने रक्त से पोषित किया है, हमें जीवंत बनाए रखा है। इनका ऋण जन्म - जन्मांतर में नहीं चुकाया जा सकता । काश मैं इतना अमीर होता कि उस पुराने खंडहर हो चुके स्कूल को खरीद पाता और दोबारा उस सूख चुके उपवन को सींचकर जीवंत कर पाता। मेरी दृष्टि में इससे बड़ी गुरूदक्षिणा और कोई नहीं होती । गुरु - पूर्णिमा के पावन उपलक्ष्य पर उन सभी गुरुओं को मेरा सहृदय आत्मिक नमन है, जिन्होंने निस्वार्थ अपने रक्तो से हमें सींचकर हमें मजबूत शिक्षा और संस्कारों से अभिभूत किया है ।

(राजू दत्ता ✍️)