Monday 28 September 2020

किस्सा आम का


किस्सा आम का
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आम का बड़प्पड़ तो उसके नाम से ही झलक जाता है। इतना खास होकर भी नाम है " आम”। आम की लकड़ी , आम और आम का पल्लव ये तीन तत्व कोई आम तत्व नहीं । इसने हमारे जीवन तत्व को अपना तत्व देकर हमें आज भी जीवंत रखा है । हे आम ! तुम्हे बारम्बार नमन है ! आम ने हमारे बचपन के जादुई दुनिया में एक अहम किरदार निभाया है जिसकी शानदार यादें आज भी हमें स्वप्न लोक की सैर करवा ही दिया करती है। सारे जहाँ की बेशकीमती दौलत एक तरफ और एक बालक के हाथ में एक पका आम एक तरफ ।  कोई तुलना नहीं , कोई उपाय नहीं । इतनी शानदार चीज और बातें गुजरे ज़माने की न हो तो बेमानी होगी ।  कमोबेश हर किसी ने एक ही जिंदगी जी रखी है मगर रंग अलग - अलग से रहे होंगे । बातें हमारे बचपन और आम की भी उतनी ही खास है ।

हम उस ज़माने के पुराने पके हुए चावल हैं जो अपने छुटकपन में ही महज आम के टिकोले की गुठली हाथ में लेकर गुठली से ही पूछ लिया करते कि किसकी शादी किधर होगी और फिर इत्मीनान से पूरे मजे लेकर टिकोले को काले नमक और लाल सुखी मिर्च के बुरादे के साथ चटकारे ले लेकर यूँ ही मस्ती में धीरे - धीरे खा लिया करते । उन दिनों आम के मौसम आते ही काले पाचक कि छोटी सी बोतल में काला नमक और लाल सूखी मिर्च के बुरादे हम ठूंस - ठूंस कर पहले ही भर लिया करते और हमारी हाफ पैंट की जेब में वो बोतल पुरे समय साथ हुआ करता ।  हम आम की गुठलियों के बाजे बनाकर भी मस्ती से उसकी पॉपी बजा - बजाकर यूँ ही रोज जश्न मना लिया करते । हमने आम के आम और गुठलियों के दाम वसूल कर रखे थे। कहावत हमारे बाद ही आयी थी ।
 
हम उस पीढ़ी से हैं जो आम के पाचक खाना पचने के लिए नहीं बल्कि पेट भरने के लिए भरपेट खा लिया करते और फिर उसे पचने के लिए फिर वही पाचक दूसरों से मांग खाया करते थे।  आम - पापड़ को हम चबाने के घंटों बाद भी अपनी दांत में फंसे टुकड़े को समय - समय पर खोदकर उसका क़तरा- क़तरा चूस लिया करते।

आम का अचार , आम की चटनी ,आम का मुरब्बा , आम का गुरम्मा , कच्चा आम , पक्का आम , पिलपिला आम , अलबेला आम , मैंगो मस्ती ,आम - रोटी , चूरा - आम  कुल मिलाकर हमारा बचपन आम के इर्द - गिर्द ही घूमकर आम सा हुआ करता था।  हर कोई आम था , कोई खास न हुआ करता था।

गर्मियों की छुट्टियों का पर्याय आम खाने से ही हुआ करता और नानी के घर आम खाने का प्रयोजन ही पूरे साल का एकमात्र प्रयोजन हुआ करता था । आम ने सबको बड़े ही खास तरीके से जोड़ रखा था और जोड़ काफी मजबूत हुआ करती थी ।
 
आम खा - खाकर हमने अपने शरीर और चेहरे विशेषकर अपने माथे पर बड़े - से - बड़े फोड़े बना डालने का विश्व - कीर्तिमान रच रखा था । पके आम को काटकर खाने में हमें उतना यकीं नहीं था जितना कि उसे  नीचे की तरफ दांत से काटकर छेदकर चूस -चूसकर उसका क़तरा - क़तरा पी जाने में था। बस आँखें बंद कर आम चूसते हुए हम जन्नत कि सैर कर आया करते । गुठलियों को चूस -चूसकर कौन कितना साफ़ कर सकता है इसकी प्रतियोगिता तो आम बात हुआ करती थी । आम के बोटे को चूसकर गले में खुसखुसी होने कि ख़ुशी छिपाये नहीं छिपा करती थी । कच्चे आमों कि ढेर में से थोड़ा पका आम ढूंढ लेने की कवायद दिनभर चला करती । आम कि गर्मी भले ही पेट बिगड़ दिया करती मगर जो शीतलता मन को मिलती उसका कोई जोड़ - तोड़ न था ।  आम कि सड़ी हुई गुठलियों को जलाकर पाचक बना लेने का हुनर हममें जन्मजात हुआ करता था । गुठलियों से उगे पेड़ का नामकरण और उसके मालिकाना हक़ के लिए होने वाले संघर्ष अक्सर हमारे लिए दोपहर को निकलने वाले सारे दरवाजे बंद करवा दिया करता ।  मगर फिर भी किसी -न -किसी चोर रस्ते का इल्म हमें हो ही जाता और हम निकल जाया करते अपनी सल्तनत कि सरजमीं पर ।

पूरा आम अक्सर हमें मयस्सर नहीं हुआ करता तो एक ही आम को तीन भागों में बांटकर सबको दिया जाता ।  गुठली वाला भाग हमें ज्यादा प्रिय हुआ करता तो जोर भी उसी पर हुआ करता । गुठली से विशेष लगाव का कारण यह था कि गुठली कभी न ख़त्म होने वाली एक लम्बी दास्ताँ  हुआ करती थी । आनंद का वो पल जितना भी लम्बा खिंच पाए , हम उससे भी कही ज्याद खींच लिया करते ।

आम फलों का राजा यूँ ही नहीं है ।  यह सबके दिलो - दिमाग पर राज करता है ।  हमारे लिए तो आम का मतलब आम नहीं बल्कि खास हुआ करता । हल्का कचहरी और मिस्टर बाबू के आम के बगीचे से आम चुराते हुए पकडे जाने पर बहुत अच्छी तरह से सेंकाई होने के बावजूद आम का मोह हर उस दर्द और अपमान को भुला देने को बेबस कर दिया करता था । हलके कचहरी के प्रांगण में आज भी आम का वो पेड़ खड़ा हमारी बाट जोहता दिख जाया करता है । आज बहुत ही काम ऐसे बच्चे हैं जो गुठलियां चूसना और आम चूसन पसंद करते हों ।  कपडे और देह  गंदे हो जाने के अनावश्यक भय ने वो आत्मीय सम्बन्ध को लगभग खो सा दिया है ।  हम तो कपडे के साथ - साथ सर से पैर तक आम -मय हो जाया करते थे ।

हमने तो अपने बचपन की अंग्रजी भी " राम आम खाता  है " से शुरू की और पेंटिंग भी हम सालों आम की ही करते आए और आम ही होकर रह गए ।  खास की कोई चाहत भी न थी । हम तो आम से शुरू होकर आम तक ही सिमटे रहे और गुठलियों से ही वफ़ा निभाते रहे और गीत भी आम के ही गुनगुनाते रहे । आम हमारे लिए केवल मात्र एक फल नहीं बल्कि एक ऐसा जादुई करिश्मा हुआ करता जिसके इंद्रजाल में हमारे बचपन  ने न जाने कितने ही ताने - बाने रच डाले थे। आम आज भी वही है मगर अब बचपन भी आम से आगे निकलकर खास हो चूका है जहाँ आम का वो अद्भुत सौंदर्य आधुनिक साजो सामान की चकाचौंध में मानो छिप सा गया है । अब गर्मियों कि छुट्टियां नहीं बस समर वेकेशन हुआ करता है और समर कैंप लगा करते हैं जहाँ मैंगो सेक बिना गुठली के सीधे आपकी पेट में जा पहुँचता है । आम अब पीस - पीस होकर कांटे वाले चम्मच से भोंककर खाया जाता है ताकि हाथ न मैले हो भले ही दिल कितना ही मैला क्यों न हो । आम केवल आम बनकर रह गया है अब । हमारे समय में आम , आम नहीं , खास हुआ करता जिसकी खासियत की शीतल  छांव में असीम आनंद के पल हम बिताया करते ।
__________________________________________[राजू दत्ता✍🏻]

Sunday 27 September 2020

कटिहार टॉकीज

कटिहार टॉकीज

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साढ़े तीस लाख से ऊपर लोगों को अपने में समेटे जिला कटिहार एक हंसता - खेलता और हमेशा गमगमाने वाला जिला रहा है । आपदा हो तो त्रासदी , इस जिले को कोई फर्क नहीं पड़ता । सबकुछ झेल लेने का सामर्थ्य लिए यह शहर सदा ही मुस्कुराया है । ऐसे मुस्कुराने की तो हजार वजहें हो सकती हैं , लेकिन यहां चार वजह साफ - साफ खड़ी दिख जाया करती थी । आप सोच रहे होंगे कि भला वो चार वजह क्या हो सकती है और भला उनमें ऐसा कौन सा हुनर है जो पूरे तीस लाख को मुस्कुराने का सबब दे जाता है ! जी हां , इन चार वजहों ने कई दशकों से पूरे जिले को महज मुस्कुराहट ही नहीं , तालियों की गरगराहट , सीटियों की सनसनाहट और ठुमकों की ठुमकाहट से भी बखूबी नवाजे रखा है । औरों के लिए ये चार वजह महज ईंट - गारे का बना ढांचा मात्र होगा , हमारे लिए तो ये जिंदा आदमी से ज्यादा जिंदा हुआ करते थे । ये चारों ठीक बिन ब्याहे उस चाचा की तरह थे जिसने हमें अपनी पीठ पर चढ़ा - चढ़ाकर किस्सागोई भी करवाई और साथ में चिनिया बादाम का देशी ठोंगा भी हमारे हाथों में थमाया था । जी हां , ये चारों बिन ब्याह चाचा की ही तरह तो थे जिसका भरपूर इस्तेमाल हम सबने बराबर किया है और बदले में उसे मिला भी तो जर्जर शरीर और वक़्त के थपेड़े ।

उन दिनों फिल्में देखना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी । अवयस्क लड़कों का फिल्म देखना उसकी बर्बादी के सारे रास्तों का खुल जाना माना जाता था । फिलमचियों को तो अव्वल दर्जे का आवारा और हाथ से निकला लड़का समझा जाता था । जी हां , ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की ही बात हो रही है । रंगीन फिल्मों की बात तो बिल्कुल ही बेमानी होगी । जिसे रंगीन फिल्म देखते पकड़ा जाता उसे बेरंग मानकर कुल के नाशक की उपाधि दे दी जाती और वह नक्सली हो जाने को बाध्य हो जाता । मॉर्निंग शो केवल बुड्ढों के लिए ही आरक्षित जान पड़ता था । जवान और वयस्क लोग दूसरे जिले में जाकर ही इसका लुफ्त उठा पाते और यह मौका केवल किसी की बारात में ही जाने पर मिला करता । उन दिनों जिला पार करना उठना ही दुर्गम था जितना आज बिना वीजा के अमेरिका जाना । इतनी जद्दोजहद के बाद भी क्या लुफ्त मिलता था यह तो गुप्त ही रहे तो उचित होगा या फिर गूंगे का गुड़ ही रहे तो ठीक है ।

इस शानदार जिले ने हमें कुल चार ही तो सिनेमा हॉल का नायाब तोहफा दे रखा था जिसे हम मुस्कुराने की चार वजह कह रहे हैं । इसे चार हॉल नहीं बल्कि इसे शहर के उत्सव की चार स्तंभ कहें तो ज्यादा उचित होगा । हां, फिल्म देखना किसी उत्सव से काम तो नहीं हुआ करता था उन दिनों । रोमांच और कौतूहल भरा उत्सव! ये चार सिनेमा हॉल हमारे लिए चारों धाम ही हुआ करता था जिसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की अनुभूति हो जाया करती थी ।

अगर बात रैंकिंग की की जाए तो पहला स्थान " बसंत टॉकीज " का हमेशा रहा है । इसकी लोकेशन और फिल्मों का चयन इसकी रैंकिंग को बनाए रखने में काफी हद तक जिम्मेदार था । थाने के पास की लोकेशन इसकी सुरक्षित होने का अहसास दिला ही दिया करती थी । ये बात अलग है कि टिकटों की ब्लैकिंग भले ही खुलेआम थी फिर भी थाने का होना ही सुरक्षा की गारंटी थी । शायद यही कारण था कि सबसे साभ्रांत सिनेमा हाल का दर्जा इसने बिना किसी प्रयास के ले रखा था । शहीद चौक पर गर्व से खड़े इस सिनेमा हॉल ने इस शहर को जितनी खुशी और हर्षोल्लास दी है , शायद ही किसी और चीज ने दी होगी । यह सिनेमा हॉल अकेले नहीं खड़ा था । इसने न जाने कितने ऐसे दुकानों को अपनी छाव में पोषित किया था जिसकी वजह से न जाने कितने ही घरों की रोटियां सेंकी जाती थीं । झालमुढ़ी वाला , चिनिया बादाम वाला , घुप चुप वाला , समोसे वाला , चाट वाला , पान - बीड़ी - सिगरेट वाला और भी न जाने क्या - क्या वाले इसकी ही छाव में अपनी जिंदगी गुजर - बसर किया करते थे ।

उन दिनों सिनेमा ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था । शायद ही ऐसा कोई नवविवाहित जोड़ा रहा होगा जिसने बसंत टॉकिज की बालकनी वाली सीट पर अपने उन यादगार लम्हों को नहीं जीया होगा और फिल्म के बाद बसंत टॉकीज की ही गली में सागर रेस्त्रां में शानदार चाट - पकौड़े के जायके का लुफ्त ना उठाया हो । ससुरालियों को सुख देने का बस एक ही उपाय उन दिनों था कि उन्हें बसंत टॉकीज में फिल्म दिखाकर चाट खिला दी जाए और हाफ टाइम में चिनिया बादाम काले नमक के साथ और कोका - कोला और फैंटा पिला दी जाए । इससे ज्यादा वीआईपी इज्ज़त उन दिनों नहीं दी जा सकती थी । कोका कोला और फैंटा वाला न जाने किस हुनर से हाफ टाइम में किर्र - किर्र बोतलें बजाकर घूमता रहता और फिल्म खत्म होने पर करिश्माई तरीके से बोतल वापस ले जाता यह आज भी विस्मित कर देता है और वही आवाज कानों में गूंजती सी रहती है । अब न वो हुनर है और ना ही हम जैसे हुनर के दीवाने ।खास तरह के लिट्टी और चाट की दुकानों में मौजूद जायका और बसंत टॉकीज में बैठकर फिल्मों का लुफ्त किसी भी स्वर्गिक आनंद से कम न था और यह शानदार स्वर्ग - सुख हम सबने यहीं जिंदा ले रखा था ।

अब भी अपनी सांसों में उस हॉल की खुशबू और कानों में वही धमक बरकरार है । आज भी सीटियों की सनसनाहट जेहन में एक तरंग छोड़ जाती है । पूरे जिले में ऐसा भला कौन होगा जिसकी यादें बसंत टॉकीज से ना जुड़ी हों!  बसंत टॉकीज ने हम कटिहार वासियों को जो प्यार , जो खुशी और जो जश्न - ए - माहौल दिया है उसका ऋण चुकाए नहीं चुक सकता । उन अंधेरे दिनों में जो रोशनी इस हॉल ने हमें दिया है उसके सामने आज के आलीशान मल्टिप्लेक्स भी फिके पड़ जाते हैं । बसंत टॉकीज महज एक हॉल नहीं रहा है बल्कि एक विशाल व्यक्तित्व रहा है जिसकी छाव में पूरे शहर ने अनगिनत सुकून और आनंद के पल बिताए हैं । जिसने पूरे शहर को इतनी खुशियां बांटी , आज खुद वीरान पड़ा है । कारण चाहे जो भी हो , एक शानदार विरासत जिनकी छाव में पूरा शहर जिंदा हुआ करता था , आज खामोशी से अपने अंत के इंतजार में निशब्द खड़ा है । काश!  इस ऐतिहासिक विरासत को हम सहेजकर रख पाने का सामर्थ्य रख पाते!

बात अब दूसरे रैंकिंग की की जाय तो उसमे आता है - " श्यामा टॉकीज " । इसी हॉल के नाम पर आज भी वो पुरानी सड़क उन पुराने दिनों की याद दिलाया करती है । बसंत टॉकीज और श्यामा टॉकीज के बीच काफी कम दूरी है और अक्सर नई फिल्में यहीं उतरा करती । अपनी शान - ओ - शौकत में यह किसी भी तरह बसंत टॉकीज से कम नहीं था । इसके बडे पर्दे पर डिजिटल डॉल्बी के शानदार साउंड की धमक और ढिसुम - ढिसुम का मजा पूरे शहर ने बराबर लिया है । हॉल के ठीक सामने मिठाइयों और समोसे की दुकानें देर रात तक सजी होती मगर चिनिया बादाम की जगह कोई नहीं ले पाया । तिसी तेल में छने पापड़ का स्वाद भी उन दिनों फिल्मों पर अपना जायका जमाए हुए था । पापड़ खाते हुए फिल्म देखने के लिए काफी पापड़ बेलने होते थे । इसी टॉकीज से बिल्कुल ठीक सटे चाय की दुकान का लिकर वाली चाय का बेमिसाल जायका हमें और कहीं मयस्सर नहीं हुआ । इसकी गली में आगे जाकर जलेबियों और समोसे की दुकान का वो जायका आज भी मुंह में पानी ला देने का सामर्थ्य रखता है और हम अचानक से फिर से उन्हीं दिनों में बरबस ही चले जाने को बाध्य हो जाया करते हैं । क्या अद्भुत सामंजस्य हुआ करता था । कितनी चीजें जुड़ी हुआ करती थी एक ही चीज से । एक शानदार ताना - बाना रचा - बसा हुआ करता था उन दिनों । सिनेमा हॉल महज एक हॉल नहीं बल्कि अपने आप में एक भरा - पूरा परिवार हुआ करता जहां खुशियां यूं ही बंटा करती । पूरे शहर को जोड़कर रखने वाले इस हॉल को न जाने किसकी नजर लगी कि अपनों की ही बेवफ़ाई ने इस हॉल को जिंदा ही मुर्दा कर दिया । यहां तक कि इसकी तस्वीर भी गूगल करने पर भी कहीं नजर नहीं आती आज के इस डिजिटल जमाने में । पूरे कटिहार को अमूल्य सेवा देकर भी उपेक्षित होकर आज यह निशब्द अपने भाग्य पर आंसू बहा रहा है । सामने गुजरते हुए अपनी आंखें इस विशाल व्यक्तित्व से न मिला पाने का दर्द लिए चुप - चाप गुजर जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं रह जाता ।

अब बात तीसरे रैंकिंग वाली प्रकाश टॉकीज की की जाए तो न्यू मार्केट के ठीक बीचों बीच गर्व से खड़े इस शानदार हॉल के पास सबसे ज्यादा लोगों को एक साथ अपनी गोद में लिए सम्पूर्ण सुख देने का सामर्थ्य था । नई फिल्म क्या लगती , पूरे का पूरा हॉल दुल्हन की तरह सज उठता । लंबे - चौड़े कैंपस में एक मेला सा लग जाया करता था । इस हॉल की अपनी एक भव्यता थी । मॉर्निंग शो के लिए यह हॉल ज्यादातर लोगों की यह पसंदीदा हॉल हुआ करती थी । कारण अनेक हैं । प्रकाश टॉकीज ने न्यू मार्केट को एक नई पहचान दी रखी थी । हॉल के बाहर एक घिरनी वाला घिरनी घुमाकर पैसे लगवाता और इसी पैसे जितने वाले खेल से पैसे जीतकर हमने काफी फिल्में देख डालीं थी । डीलक्स होटल की दाल - कचौड़ी और छेना - जलेबी खाकर फिल्म देखने का सौभाग्य हमने बारम्बार पा रखा था । आज वही प्रकाश टॉकीज अपनों की अपेक्षाओं का दंश झेल रहा है और जब कभी सामने से गुजरना होता है , नम आंखों से अपने इतिहास को बार - बार दुहरा रहा होता महसूस होता है । कुछ परिवर्तन निश्चित ही कष्ट देते रहते हैं । नियति शायद इसी को कहते हैं । कोई जोर नहीं चल पाता ।

अब आते हैं चौथी रैंकिंग वाले हॉल - हरदयाल टॉकीज पर । यह तो पता नहीं कि यह बना कब था मगर हुलिए से यह सबसे बुजुर्ग सिनेमा हॉल जान पड़ता था और फिल्में भी यहां पुरानी ही लगा करतीं । भक्ति फिल्मों और भूतों वाली फिल्मों पर इसका लगभग आधिपत्य ही था । यह एक ऐसा सिनेमा हॉल था जिसने खास रूप से गावों की भीड़ को अपनी ओर खींच रखा था । सालोंभर शामियाने सजे रहने का कीर्तिमान भी इसी के पास था और लोग दूर गाव से अपनी पोटलियों में चूड़ा - मूढ़ी और जलेबी लिए इसी हॉल में अपनी जिंदगी के खुशनुमा पल बिताने आया करते थे ।

बांग्ला और भोजपुरी फिल्मों पर एकमात्र इसी का आधिपत्य था । इस हॉल की कैंपस के भीतर ही एक छोटा सा होटल हुआ करता था जिसके छेने - पाईस का स्वाद पूरे शहर ने ले रखा था और वो जायका भूले ना भुला जाता । इस सिनेमा हॉल ने सबसे ज्यादा लोगों को अपनी सेवाएं दे रखी थी मगर बदले में इसने कुछ भी नहीं लिया । आज यह हॉल सालों से बंद पड़ा है और अपनी पुरानी विरासत लिए जर्जर होकर भी टिका पड़ा है । अनंत पदों की छाप अपने में समेटे यह हॉल हमारे लिए काफ़ी कुछ मायने रखता है जिसके लिए शब्द नहीं ।

कुल मिलाकर इन चारों हॉलों ने पूरे जिले को अपनी अनमोल एवं निष्काम सेवाएं दे रखीं थीं । उन दिनों भले ही टिकटें ब्लैक में बिका करती , मगर इंसान साफ - सफेद ही हुआ करते थे । फिल्म देखना एक उत्सव सा था । मंगलवार का दिन बाज़ार बंद होने से चारों के चारों हॉल ठसाठस भरे हुआ करते थे । रविवार का दिन हमारा हुआ करता । शुक्रवार को फिल्में बदला करतीं । आज की तरह हर शुक्रवार फिल्में नहीं बदला करती थीं । एक फिल्म महीनों और कभी कभी एक साल भी चला करतीं । बहुत जोड़ - तोड़ कर , गुणा - भाग कर प्लानिंग कर फिल्म देखने का सौभाग्य मिला करता । हम जैसों का छिपकर फ़िल्में देखना काफी दुष्कर हुआ करता क्युकी कोई - न - कोई जानकार सिनेमा देखने आता ही रहता और किसी तरह उनकी नजर से बचकर अंदर चले भी जाते तो सिस्पेंटर तो मुहल्ले का ही हुआ करता जो सीधा हॉल के अंधेरे में भी सीधे हमारे मुंह पर टॉर्च मारने से कभी नहीं चूकने का जन्मजात हुनर रखा करता था और पहचानकर या तो वहीं से भगा देता या रात को घर लौटते समय हमारे घरवाले को चेता दिया करता था । फिर भी मार और यातना पर फिल्में देखने का नशा हमेशा ही भारी पड़ता था और हम फिर से प्लानिंग शुरू कर देते । उन दिनों फिल्म देखने से कहीं ज्यादा रोमांच जुगाड़ और हॉल में प्रवेश का था ।

ठीक फलाना टाइम में फलाना हॉल में फलाना फिलिम में फैलाना सीन और फलाना गाना आएगा , यह हम बखूबी नोट कर लेते और रोजाना गेटकीपर से बकझक कर ठीक समय पर सीन देख आया करते थे । दोस्तों की झुंड में ही एक - न - एक ब्लैकिया हुआ करता जिसकी जिम्मेदारी टिकट लेने और कुछ टिकट ब्लैक में बेच समोसे - लिट्टी का जुगाड करने को होती थी । वही हमारा तारणहार हुआ करता और हम उनकी तारीफों में कशीदे पढ़ा करते । फर्स्ट दिन , फर्स्ट शो देख लेने का रोमांच एवरेस्ट फतह कर लेने के रोमांच से भी कहीं ज्यादा था । भीड़ की बीच में कूदकर लाइन में आगे निकलकर टिकट खिड़की पर करिश्माई ढंग से पहुंचकर छोटी सी छेद में हाथ घुसाकर टिकट ले लेने का हुनर सबको नहीं था । कईयों ने तो अपनी सायकिल बेचकर फिल्म देखने का विश्व कीर्तिमान रच डाला था । हमनें तो एक ही दिन में चारों शो देख लेने का गौरवपूर्ण जीवन भी जी रखा है । कई तो जिला पार पूर्णिया जाकर फोर स्टार में फिल्म देखने की हिमाकत कर बैठते । फ़िल्म देखने की कीमत हम अक्सर अपनी पीठ फोड़वा के भी चुका देने का शानदार अनुभव रखते हैं । स्कूल से भागकर फिल्म देख लेने और न पकड़े जाने  का जो विजय भाव हमारे मुखमंडल पर हुआ करता वह तो ओलंपिक में गोल्ड लाने से भी कहीं ज्यादा हुआ करता था । फ़िल्म देखकर उनके किस्से हू - बहू दोस्तों को सुना डालने का टैलेंट हम सभी को बखूबी हुआ करता था और सुनने वाला अपनी लार टपकाए आश्चर्य से सुनता हुआ हमारे अहो- भाग्य पर जलता - भूनता रहता । फिल्म देख लेना गूलर के फूल को देख लेने से ज्यादा दुष्कर काम था । कई शरीफ़ बच्चे तो जवान होकर ही अपनी चॉइस की फिल्में हॉल में अकेले जाकर देख पाते । हम जैसे बे - शरीफ लोग बचपन से ही नक्सली हो चुके थे और अनंत बार जवां होने से पहले ही लाल - सलाम कर चुके थे । तथाकथित शरीफ बच्चों ने जवान होकर हम जैसे बे - शरीफों को भी पीछे छोड़ लाल - सलाम करने का ठीक उसी तरह रिकार्ड बनाया जैसे अधेड़ उम्र में शादी करने वाला अपनी प्रियतमा के पहलू में ताउम्र सारी दुनिया से छिपकर अपनी वफा का रिकार्ड बना डालता है ।

कुल मिलाकर फिल्में देखने का रोमांच जो उन दिनों था जब जब में फूटी कौड़ी भी नहीं हुआ करती , आज भरे बटुए में भी वो रोमांच नहीं । अब टिकट खिड़कियों पर ठेलमठेल भीड़ नहीं होती , हॉल में शोरगुल और सीटियां नहीं बजा करती । चिनिया बादाम को कब का बेवजह अलविदा कह दिया गया और जो अब पीनट बनकर शराब के संग जीने को बेबस है । मकई के लावे को अब विलायती नाम देकर " पॉपकॉर्न " कहा जाने लगा है । सिनेमा हॉल अब मल्टिप्लेक्स हो चुका है जहां से वो पहले वाले हॉल की महक नहीं आती । पहले उचक - उचककर फिल्में देखने का रोमांच था और अब सरकती हुई सी चेयर एसी की ठंडी हवा में सुलाते हुए फिल्में दिखाने का दावा करती है । पहले हलाहल शोर हुआ करता था और अब न जाने कानों में अलग - अलग झंकार सुनाने वाले डिजिटल साउंड का बोलबाला है । सबकुछ पहले से ज्यादा शानदार होने का दावा है मगर वो कौतूहल , वो रोमांच अब कहीं दूर छूट सा गया जान पड़ता है । बदलते वक़्त ने सबकुछ बदल सा डाला है मगर हम आज भी वहीं , उसी दौर में खड़े हैं जहां दीवारें भी जिंदा हुआ करतीं थीं और हमारे रिश्ते दरो - दीवारों से भी हुआ करते थे ।

राजू दत्ता ✍🏻