अपनापन
छोटी-छोटी
खुशियों में,जीवन
पूरा लगता था
ममता की
आँचल में, मन
शीतल सा लगता
था
मंज़र-मंज़र गाँव
का, बस अपना
सा लगता था
मिलना सारे यारों
का, एक मेला
सा लगता था
हर मौसम
सुहाना, अलबेला सा लगता
था
खेल-खेल
में बच्चों के,
एक झगड़ा सा
लगता था
बस दूजे
ही पल, सब
अपना सा लगता
था
मोल-भाव
का पता नहीं
था, मिट्टी भी
सोना सा लगता
था
मिट्टी के चन्द
खिलौने से, शहर
अलबेला सा सजता
था
धूल भरे
उन मुखड़ों मे
भी, राजकुमार सा
लगता था
छोटी-छोटी
खुशियों मे, जीवन
पूरा लगता था
ममता की
उस छाँव मे,
प्रेम अविरल सा बहता
था
धूल भरे
उस गाँव में, फिर
भी दिल सा
लगता था
बैर नही
था कभी किसी
से, सब अपना
सा लगता था
मंज़र-मंज़र गाँव
का, बस अपना
सा लगता था
-आर.के.दत्ता