Sunday 26 April 2020

अंतर्मन की व्यथा

मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था
दस्तक भी कुछ ऐसी थी
रोम रोम को जगा रहा था

पूछा मैंने कौन हो तुम 
निशब्द वह मुस्कुरा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

बेचैनी थी सांसों में 
फिर पूछा कौन हो तुम 
धुंधली सी काया थी उसकी
कुछ अपना सा भा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

पास गया तब जाकर पाया
अंतर्मन ही बुला रहा था
पूछा उसने कैसे भूल गए मुझको
ऐसा भी क्या आखिर भा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

सालों से भूले थे मुझको 
आखिर क्या क्या हो रहा था
याद कभी न अाई मेरी
ऐसा भी क्या सो रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

याद करो वो भोर बेला
क्या सानिध्य रस सा बह रहा था
बिन मेरे संग 
कुछ तुमसे न हो रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

मैं जो कहता झट से होता
आखिर कैसा नशा रहा था
तुम भी उन्मुक्त थे मैं भी ख़ुश था
जीवन अविरल सा बह रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

दिन चढ़ा फिर निकले तुम 
छोड़ के मेरा दामन तुम 
बल पड़ा था पेशानी पर
ऐसी भी क्या अभिलाषा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

पीछे पीछे निकला था मैं भी
क्या आवाज ना आयी मेरी
सुनकर भी किया अनसुनी
जाने किस मद में तू जी रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

कर सब याद हुआ शर्मिंदा
नज़रे भी ना मिला रहा था
जीवन की इस आपाधापी में
खुद को ही तो भुला रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

गला घोंट कर खुद का ही
जाने कैसे जी रहा था
खोकर वो अनमोल सितारे 
माटी पत्थर बीन रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

बचा शेष जीवन कुछ पल 
इसलिए आया तू इस पल
चल वापस ले चल 
भोर सवेरा हो रहा है
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

(राजू दत्ता) 🌞🌞🌞

Saturday 25 April 2020

बरगद का पेड़

जेठ की दोपहरी में सबसे नज़रे बचा के मैं चुपचाप दबे पांव सरहद के पास उस बूढ़े बरगद के पेड़ के पास जा पहुंचा जिनके लटकते- झूलते जटाओं में मेरा बचपन  कभी झूला झूला करता था । उस वक़्त उन्मुक्त बचपन उतना व्याकुल न था और विचार न था इन विचारों का । मैं अपलक उसे निहारता रहा । न जाने क्यूं ऐसा लगा जैसे कितने युगों बाद उस अपने से मिल रहा जिसने हमारे बचपन को अपनी शीतलता से सींचा था जिसके बदले हमने कभी कुछ न दिया और ना ही कभी चिंतन मात्र भी किया । जाने कितने युगों से यह अटल खड़ा कितनी पीढ़ियों को अपनी निर्मल छाव में अमूल्य प्रेम की शीतलता देता आ रहा। अनायास मैं लिपट पड़ा उन जटाओं से और एक गहरी सांस में वो सारी खुशबू अपने जेहन में समेटता चला गया । बरगद का वो बूढ़ा पेड़ मौन था और मौन था मैं भी । बस हवाओं की सांय- सांय वो सबकुछ बयां कर रही थी जो मेरे जेहन में था । आज भी कुछ लेकर जा रहा इस विशाल हृदय -बरगद से ।🌳🌳🌳