Monday, 28 September 2020

किस्सा आम का


किस्सा आम का
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आम का बड़प्पड़ तो उसके नाम से ही झलक जाता है। इतना खास होकर भी नाम है " आम”। आम की लकड़ी , आम और आम का पल्लव ये तीन तत्व कोई आम तत्व नहीं । इसने हमारे जीवन तत्व को अपना तत्व देकर हमें आज भी जीवंत रखा है । हे आम ! तुम्हे बारम्बार नमन है ! आम ने हमारे बचपन के जादुई दुनिया में एक अहम किरदार निभाया है जिसकी शानदार यादें आज भी हमें स्वप्न लोक की सैर करवा ही दिया करती है। सारे जहाँ की बेशकीमती दौलत एक तरफ और एक बालक के हाथ में एक पका आम एक तरफ ।  कोई तुलना नहीं , कोई उपाय नहीं । इतनी शानदार चीज और बातें गुजरे ज़माने की न हो तो बेमानी होगी ।  कमोबेश हर किसी ने एक ही जिंदगी जी रखी है मगर रंग अलग - अलग से रहे होंगे । बातें हमारे बचपन और आम की भी उतनी ही खास है ।

हम उस ज़माने के पुराने पके हुए चावल हैं जो अपने छुटकपन में ही महज आम के टिकोले की गुठली हाथ में लेकर गुठली से ही पूछ लिया करते कि किसकी शादी किधर होगी और फिर इत्मीनान से पूरे मजे लेकर टिकोले को काले नमक और लाल सुखी मिर्च के बुरादे के साथ चटकारे ले लेकर यूँ ही मस्ती में धीरे - धीरे खा लिया करते । उन दिनों आम के मौसम आते ही काले पाचक कि छोटी सी बोतल में काला नमक और लाल सूखी मिर्च के बुरादे हम ठूंस - ठूंस कर पहले ही भर लिया करते और हमारी हाफ पैंट की जेब में वो बोतल पुरे समय साथ हुआ करता ।  हम आम की गुठलियों के बाजे बनाकर भी मस्ती से उसकी पॉपी बजा - बजाकर यूँ ही रोज जश्न मना लिया करते । हमने आम के आम और गुठलियों के दाम वसूल कर रखे थे। कहावत हमारे बाद ही आयी थी ।
 
हम उस पीढ़ी से हैं जो आम के पाचक खाना पचने के लिए नहीं बल्कि पेट भरने के लिए भरपेट खा लिया करते और फिर उसे पचने के लिए फिर वही पाचक दूसरों से मांग खाया करते थे।  आम - पापड़ को हम चबाने के घंटों बाद भी अपनी दांत में फंसे टुकड़े को समय - समय पर खोदकर उसका क़तरा- क़तरा चूस लिया करते।

आम का अचार , आम की चटनी ,आम का मुरब्बा , आम का गुरम्मा , कच्चा आम , पक्का आम , पिलपिला आम , अलबेला आम , मैंगो मस्ती ,आम - रोटी , चूरा - आम  कुल मिलाकर हमारा बचपन आम के इर्द - गिर्द ही घूमकर आम सा हुआ करता था।  हर कोई आम था , कोई खास न हुआ करता था।

गर्मियों की छुट्टियों का पर्याय आम खाने से ही हुआ करता और नानी के घर आम खाने का प्रयोजन ही पूरे साल का एकमात्र प्रयोजन हुआ करता था । आम ने सबको बड़े ही खास तरीके से जोड़ रखा था और जोड़ काफी मजबूत हुआ करती थी ।
 
आम खा - खाकर हमने अपने शरीर और चेहरे विशेषकर अपने माथे पर बड़े - से - बड़े फोड़े बना डालने का विश्व - कीर्तिमान रच रखा था । पके आम को काटकर खाने में हमें उतना यकीं नहीं था जितना कि उसे  नीचे की तरफ दांत से काटकर छेदकर चूस -चूसकर उसका क़तरा - क़तरा पी जाने में था। बस आँखें बंद कर आम चूसते हुए हम जन्नत कि सैर कर आया करते । गुठलियों को चूस -चूसकर कौन कितना साफ़ कर सकता है इसकी प्रतियोगिता तो आम बात हुआ करती थी । आम के बोटे को चूसकर गले में खुसखुसी होने कि ख़ुशी छिपाये नहीं छिपा करती थी । कच्चे आमों कि ढेर में से थोड़ा पका आम ढूंढ लेने की कवायद दिनभर चला करती । आम कि गर्मी भले ही पेट बिगड़ दिया करती मगर जो शीतलता मन को मिलती उसका कोई जोड़ - तोड़ न था ।  आम कि सड़ी हुई गुठलियों को जलाकर पाचक बना लेने का हुनर हममें जन्मजात हुआ करता था । गुठलियों से उगे पेड़ का नामकरण और उसके मालिकाना हक़ के लिए होने वाले संघर्ष अक्सर हमारे लिए दोपहर को निकलने वाले सारे दरवाजे बंद करवा दिया करता ।  मगर फिर भी किसी -न -किसी चोर रस्ते का इल्म हमें हो ही जाता और हम निकल जाया करते अपनी सल्तनत कि सरजमीं पर ।

पूरा आम अक्सर हमें मयस्सर नहीं हुआ करता तो एक ही आम को तीन भागों में बांटकर सबको दिया जाता ।  गुठली वाला भाग हमें ज्यादा प्रिय हुआ करता तो जोर भी उसी पर हुआ करता । गुठली से विशेष लगाव का कारण यह था कि गुठली कभी न ख़त्म होने वाली एक लम्बी दास्ताँ  हुआ करती थी । आनंद का वो पल जितना भी लम्बा खिंच पाए , हम उससे भी कही ज्याद खींच लिया करते ।

आम फलों का राजा यूँ ही नहीं है ।  यह सबके दिलो - दिमाग पर राज करता है ।  हमारे लिए तो आम का मतलब आम नहीं बल्कि खास हुआ करता । हल्का कचहरी और मिस्टर बाबू के आम के बगीचे से आम चुराते हुए पकडे जाने पर बहुत अच्छी तरह से सेंकाई होने के बावजूद आम का मोह हर उस दर्द और अपमान को भुला देने को बेबस कर दिया करता था । हलके कचहरी के प्रांगण में आज भी आम का वो पेड़ खड़ा हमारी बाट जोहता दिख जाया करता है । आज बहुत ही काम ऐसे बच्चे हैं जो गुठलियां चूसना और आम चूसन पसंद करते हों ।  कपडे और देह  गंदे हो जाने के अनावश्यक भय ने वो आत्मीय सम्बन्ध को लगभग खो सा दिया है ।  हम तो कपडे के साथ - साथ सर से पैर तक आम -मय हो जाया करते थे ।

हमने तो अपने बचपन की अंग्रजी भी " राम आम खाता  है " से शुरू की और पेंटिंग भी हम सालों आम की ही करते आए और आम ही होकर रह गए ।  खास की कोई चाहत भी न थी । हम तो आम से शुरू होकर आम तक ही सिमटे रहे और गुठलियों से ही वफ़ा निभाते रहे और गीत भी आम के ही गुनगुनाते रहे । आम हमारे लिए केवल मात्र एक फल नहीं बल्कि एक ऐसा जादुई करिश्मा हुआ करता जिसके इंद्रजाल में हमारे बचपन  ने न जाने कितने ही ताने - बाने रच डाले थे। आम आज भी वही है मगर अब बचपन भी आम से आगे निकलकर खास हो चूका है जहाँ आम का वो अद्भुत सौंदर्य आधुनिक साजो सामान की चकाचौंध में मानो छिप सा गया है । अब गर्मियों कि छुट्टियां नहीं बस समर वेकेशन हुआ करता है और समर कैंप लगा करते हैं जहाँ मैंगो सेक बिना गुठली के सीधे आपकी पेट में जा पहुँचता है । आम अब पीस - पीस होकर कांटे वाले चम्मच से भोंककर खाया जाता है ताकि हाथ न मैले हो भले ही दिल कितना ही मैला क्यों न हो । आम केवल आम बनकर रह गया है अब । हमारे समय में आम , आम नहीं , खास हुआ करता जिसकी खासियत की शीतल  छांव में असीम आनंद के पल हम बिताया करते ।
__________________________________________[राजू दत्ता✍🏻]

Sunday, 27 September 2020

कटिहार टॉकीज

कटिहार टॉकीज

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साढ़े तीस लाख से ऊपर लोगों को अपने में समेटे जिला कटिहार एक हंसता - खेलता और हमेशा गमगमाने वाला जिला रहा है । आपदा हो तो त्रासदी , इस जिले को कोई फर्क नहीं पड़ता । सबकुछ झेल लेने का सामर्थ्य लिए यह शहर सदा ही मुस्कुराया है । ऐसे मुस्कुराने की तो हजार वजहें हो सकती हैं , लेकिन यहां चार वजह साफ - साफ खड़ी दिख जाया करती थी । आप सोच रहे होंगे कि भला वो चार वजह क्या हो सकती है और भला उनमें ऐसा कौन सा हुनर है जो पूरे तीस लाख को मुस्कुराने का सबब दे जाता है ! जी हां , इन चार वजहों ने कई दशकों से पूरे जिले को महज मुस्कुराहट ही नहीं , तालियों की गरगराहट , सीटियों की सनसनाहट और ठुमकों की ठुमकाहट से भी बखूबी नवाजे रखा है । औरों के लिए ये चार वजह महज ईंट - गारे का बना ढांचा मात्र होगा , हमारे लिए तो ये जिंदा आदमी से ज्यादा जिंदा हुआ करते थे । ये चारों ठीक बिन ब्याहे उस चाचा की तरह थे जिसने हमें अपनी पीठ पर चढ़ा - चढ़ाकर किस्सागोई भी करवाई और साथ में चिनिया बादाम का देशी ठोंगा भी हमारे हाथों में थमाया था । जी हां , ये चारों बिन ब्याह चाचा की ही तरह तो थे जिसका भरपूर इस्तेमाल हम सबने बराबर किया है और बदले में उसे मिला भी तो जर्जर शरीर और वक़्त के थपेड़े ।

उन दिनों फिल्में देखना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी । अवयस्क लड़कों का फिल्म देखना उसकी बर्बादी के सारे रास्तों का खुल जाना माना जाता था । फिलमचियों को तो अव्वल दर्जे का आवारा और हाथ से निकला लड़का समझा जाता था । जी हां , ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की ही बात हो रही है । रंगीन फिल्मों की बात तो बिल्कुल ही बेमानी होगी । जिसे रंगीन फिल्म देखते पकड़ा जाता उसे बेरंग मानकर कुल के नाशक की उपाधि दे दी जाती और वह नक्सली हो जाने को बाध्य हो जाता । मॉर्निंग शो केवल बुड्ढों के लिए ही आरक्षित जान पड़ता था । जवान और वयस्क लोग दूसरे जिले में जाकर ही इसका लुफ्त उठा पाते और यह मौका केवल किसी की बारात में ही जाने पर मिला करता । उन दिनों जिला पार करना उठना ही दुर्गम था जितना आज बिना वीजा के अमेरिका जाना । इतनी जद्दोजहद के बाद भी क्या लुफ्त मिलता था यह तो गुप्त ही रहे तो उचित होगा या फिर गूंगे का गुड़ ही रहे तो ठीक है ।

इस शानदार जिले ने हमें कुल चार ही तो सिनेमा हॉल का नायाब तोहफा दे रखा था जिसे हम मुस्कुराने की चार वजह कह रहे हैं । इसे चार हॉल नहीं बल्कि इसे शहर के उत्सव की चार स्तंभ कहें तो ज्यादा उचित होगा । हां, फिल्म देखना किसी उत्सव से काम तो नहीं हुआ करता था उन दिनों । रोमांच और कौतूहल भरा उत्सव! ये चार सिनेमा हॉल हमारे लिए चारों धाम ही हुआ करता था जिसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की अनुभूति हो जाया करती थी ।

अगर बात रैंकिंग की की जाए तो पहला स्थान " बसंत टॉकीज " का हमेशा रहा है । इसकी लोकेशन और फिल्मों का चयन इसकी रैंकिंग को बनाए रखने में काफी हद तक जिम्मेदार था । थाने के पास की लोकेशन इसकी सुरक्षित होने का अहसास दिला ही दिया करती थी । ये बात अलग है कि टिकटों की ब्लैकिंग भले ही खुलेआम थी फिर भी थाने का होना ही सुरक्षा की गारंटी थी । शायद यही कारण था कि सबसे साभ्रांत सिनेमा हाल का दर्जा इसने बिना किसी प्रयास के ले रखा था । शहीद चौक पर गर्व से खड़े इस सिनेमा हॉल ने इस शहर को जितनी खुशी और हर्षोल्लास दी है , शायद ही किसी और चीज ने दी होगी । यह सिनेमा हॉल अकेले नहीं खड़ा था । इसने न जाने कितने ऐसे दुकानों को अपनी छाव में पोषित किया था जिसकी वजह से न जाने कितने ही घरों की रोटियां सेंकी जाती थीं । झालमुढ़ी वाला , चिनिया बादाम वाला , घुप चुप वाला , समोसे वाला , चाट वाला , पान - बीड़ी - सिगरेट वाला और भी न जाने क्या - क्या वाले इसकी ही छाव में अपनी जिंदगी गुजर - बसर किया करते थे ।

उन दिनों सिनेमा ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था । शायद ही ऐसा कोई नवविवाहित जोड़ा रहा होगा जिसने बसंत टॉकिज की बालकनी वाली सीट पर अपने उन यादगार लम्हों को नहीं जीया होगा और फिल्म के बाद बसंत टॉकीज की ही गली में सागर रेस्त्रां में शानदार चाट - पकौड़े के जायके का लुफ्त ना उठाया हो । ससुरालियों को सुख देने का बस एक ही उपाय उन दिनों था कि उन्हें बसंत टॉकीज में फिल्म दिखाकर चाट खिला दी जाए और हाफ टाइम में चिनिया बादाम काले नमक के साथ और कोका - कोला और फैंटा पिला दी जाए । इससे ज्यादा वीआईपी इज्ज़त उन दिनों नहीं दी जा सकती थी । कोका कोला और फैंटा वाला न जाने किस हुनर से हाफ टाइम में किर्र - किर्र बोतलें बजाकर घूमता रहता और फिल्म खत्म होने पर करिश्माई तरीके से बोतल वापस ले जाता यह आज भी विस्मित कर देता है और वही आवाज कानों में गूंजती सी रहती है । अब न वो हुनर है और ना ही हम जैसे हुनर के दीवाने ।खास तरह के लिट्टी और चाट की दुकानों में मौजूद जायका और बसंत टॉकीज में बैठकर फिल्मों का लुफ्त किसी भी स्वर्गिक आनंद से कम न था और यह शानदार स्वर्ग - सुख हम सबने यहीं जिंदा ले रखा था ।

अब भी अपनी सांसों में उस हॉल की खुशबू और कानों में वही धमक बरकरार है । आज भी सीटियों की सनसनाहट जेहन में एक तरंग छोड़ जाती है । पूरे जिले में ऐसा भला कौन होगा जिसकी यादें बसंत टॉकीज से ना जुड़ी हों!  बसंत टॉकीज ने हम कटिहार वासियों को जो प्यार , जो खुशी और जो जश्न - ए - माहौल दिया है उसका ऋण चुकाए नहीं चुक सकता । उन अंधेरे दिनों में जो रोशनी इस हॉल ने हमें दिया है उसके सामने आज के आलीशान मल्टिप्लेक्स भी फिके पड़ जाते हैं । बसंत टॉकीज महज एक हॉल नहीं रहा है बल्कि एक विशाल व्यक्तित्व रहा है जिसकी छाव में पूरे शहर ने अनगिनत सुकून और आनंद के पल बिताए हैं । जिसने पूरे शहर को इतनी खुशियां बांटी , आज खुद वीरान पड़ा है । कारण चाहे जो भी हो , एक शानदार विरासत जिनकी छाव में पूरा शहर जिंदा हुआ करता था , आज खामोशी से अपने अंत के इंतजार में निशब्द खड़ा है । काश!  इस ऐतिहासिक विरासत को हम सहेजकर रख पाने का सामर्थ्य रख पाते!

बात अब दूसरे रैंकिंग की की जाय तो उसमे आता है - " श्यामा टॉकीज " । इसी हॉल के नाम पर आज भी वो पुरानी सड़क उन पुराने दिनों की याद दिलाया करती है । बसंत टॉकीज और श्यामा टॉकीज के बीच काफी कम दूरी है और अक्सर नई फिल्में यहीं उतरा करती । अपनी शान - ओ - शौकत में यह किसी भी तरह बसंत टॉकीज से कम नहीं था । इसके बडे पर्दे पर डिजिटल डॉल्बी के शानदार साउंड की धमक और ढिसुम - ढिसुम का मजा पूरे शहर ने बराबर लिया है । हॉल के ठीक सामने मिठाइयों और समोसे की दुकानें देर रात तक सजी होती मगर चिनिया बादाम की जगह कोई नहीं ले पाया । तिसी तेल में छने पापड़ का स्वाद भी उन दिनों फिल्मों पर अपना जायका जमाए हुए था । पापड़ खाते हुए फिल्म देखने के लिए काफी पापड़ बेलने होते थे । इसी टॉकीज से बिल्कुल ठीक सटे चाय की दुकान का लिकर वाली चाय का बेमिसाल जायका हमें और कहीं मयस्सर नहीं हुआ । इसकी गली में आगे जाकर जलेबियों और समोसे की दुकान का वो जायका आज भी मुंह में पानी ला देने का सामर्थ्य रखता है और हम अचानक से फिर से उन्हीं दिनों में बरबस ही चले जाने को बाध्य हो जाया करते हैं । क्या अद्भुत सामंजस्य हुआ करता था । कितनी चीजें जुड़ी हुआ करती थी एक ही चीज से । एक शानदार ताना - बाना रचा - बसा हुआ करता था उन दिनों । सिनेमा हॉल महज एक हॉल नहीं बल्कि अपने आप में एक भरा - पूरा परिवार हुआ करता जहां खुशियां यूं ही बंटा करती । पूरे शहर को जोड़कर रखने वाले इस हॉल को न जाने किसकी नजर लगी कि अपनों की ही बेवफ़ाई ने इस हॉल को जिंदा ही मुर्दा कर दिया । यहां तक कि इसकी तस्वीर भी गूगल करने पर भी कहीं नजर नहीं आती आज के इस डिजिटल जमाने में । पूरे कटिहार को अमूल्य सेवा देकर भी उपेक्षित होकर आज यह निशब्द अपने भाग्य पर आंसू बहा रहा है । सामने गुजरते हुए अपनी आंखें इस विशाल व्यक्तित्व से न मिला पाने का दर्द लिए चुप - चाप गुजर जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं रह जाता ।

अब बात तीसरे रैंकिंग वाली प्रकाश टॉकीज की की जाए तो न्यू मार्केट के ठीक बीचों बीच गर्व से खड़े इस शानदार हॉल के पास सबसे ज्यादा लोगों को एक साथ अपनी गोद में लिए सम्पूर्ण सुख देने का सामर्थ्य था । नई फिल्म क्या लगती , पूरे का पूरा हॉल दुल्हन की तरह सज उठता । लंबे - चौड़े कैंपस में एक मेला सा लग जाया करता था । इस हॉल की अपनी एक भव्यता थी । मॉर्निंग शो के लिए यह हॉल ज्यादातर लोगों की यह पसंदीदा हॉल हुआ करती थी । कारण अनेक हैं । प्रकाश टॉकीज ने न्यू मार्केट को एक नई पहचान दी रखी थी । हॉल के बाहर एक घिरनी वाला घिरनी घुमाकर पैसे लगवाता और इसी पैसे जितने वाले खेल से पैसे जीतकर हमने काफी फिल्में देख डालीं थी । डीलक्स होटल की दाल - कचौड़ी और छेना - जलेबी खाकर फिल्म देखने का सौभाग्य हमने बारम्बार पा रखा था । आज वही प्रकाश टॉकीज अपनों की अपेक्षाओं का दंश झेल रहा है और जब कभी सामने से गुजरना होता है , नम आंखों से अपने इतिहास को बार - बार दुहरा रहा होता महसूस होता है । कुछ परिवर्तन निश्चित ही कष्ट देते रहते हैं । नियति शायद इसी को कहते हैं । कोई जोर नहीं चल पाता ।

अब आते हैं चौथी रैंकिंग वाले हॉल - हरदयाल टॉकीज पर । यह तो पता नहीं कि यह बना कब था मगर हुलिए से यह सबसे बुजुर्ग सिनेमा हॉल जान पड़ता था और फिल्में भी यहां पुरानी ही लगा करतीं । भक्ति फिल्मों और भूतों वाली फिल्मों पर इसका लगभग आधिपत्य ही था । यह एक ऐसा सिनेमा हॉल था जिसने खास रूप से गावों की भीड़ को अपनी ओर खींच रखा था । सालोंभर शामियाने सजे रहने का कीर्तिमान भी इसी के पास था और लोग दूर गाव से अपनी पोटलियों में चूड़ा - मूढ़ी और जलेबी लिए इसी हॉल में अपनी जिंदगी के खुशनुमा पल बिताने आया करते थे ।

बांग्ला और भोजपुरी फिल्मों पर एकमात्र इसी का आधिपत्य था । इस हॉल की कैंपस के भीतर ही एक छोटा सा होटल हुआ करता था जिसके छेने - पाईस का स्वाद पूरे शहर ने ले रखा था और वो जायका भूले ना भुला जाता । इस सिनेमा हॉल ने सबसे ज्यादा लोगों को अपनी सेवाएं दे रखी थी मगर बदले में इसने कुछ भी नहीं लिया । आज यह हॉल सालों से बंद पड़ा है और अपनी पुरानी विरासत लिए जर्जर होकर भी टिका पड़ा है । अनंत पदों की छाप अपने में समेटे यह हॉल हमारे लिए काफ़ी कुछ मायने रखता है जिसके लिए शब्द नहीं ।

कुल मिलाकर इन चारों हॉलों ने पूरे जिले को अपनी अनमोल एवं निष्काम सेवाएं दे रखीं थीं । उन दिनों भले ही टिकटें ब्लैक में बिका करती , मगर इंसान साफ - सफेद ही हुआ करते थे । फिल्म देखना एक उत्सव सा था । मंगलवार का दिन बाज़ार बंद होने से चारों के चारों हॉल ठसाठस भरे हुआ करते थे । रविवार का दिन हमारा हुआ करता । शुक्रवार को फिल्में बदला करतीं । आज की तरह हर शुक्रवार फिल्में नहीं बदला करती थीं । एक फिल्म महीनों और कभी कभी एक साल भी चला करतीं । बहुत जोड़ - तोड़ कर , गुणा - भाग कर प्लानिंग कर फिल्म देखने का सौभाग्य मिला करता । हम जैसों का छिपकर फ़िल्में देखना काफी दुष्कर हुआ करता क्युकी कोई - न - कोई जानकार सिनेमा देखने आता ही रहता और किसी तरह उनकी नजर से बचकर अंदर चले भी जाते तो सिस्पेंटर तो मुहल्ले का ही हुआ करता जो सीधा हॉल के अंधेरे में भी सीधे हमारे मुंह पर टॉर्च मारने से कभी नहीं चूकने का जन्मजात हुनर रखा करता था और पहचानकर या तो वहीं से भगा देता या रात को घर लौटते समय हमारे घरवाले को चेता दिया करता था । फिर भी मार और यातना पर फिल्में देखने का नशा हमेशा ही भारी पड़ता था और हम फिर से प्लानिंग शुरू कर देते । उन दिनों फिल्म देखने से कहीं ज्यादा रोमांच जुगाड़ और हॉल में प्रवेश का था ।

ठीक फलाना टाइम में फलाना हॉल में फलाना फिलिम में फैलाना सीन और फलाना गाना आएगा , यह हम बखूबी नोट कर लेते और रोजाना गेटकीपर से बकझक कर ठीक समय पर सीन देख आया करते थे । दोस्तों की झुंड में ही एक - न - एक ब्लैकिया हुआ करता जिसकी जिम्मेदारी टिकट लेने और कुछ टिकट ब्लैक में बेच समोसे - लिट्टी का जुगाड करने को होती थी । वही हमारा तारणहार हुआ करता और हम उनकी तारीफों में कशीदे पढ़ा करते । फर्स्ट दिन , फर्स्ट शो देख लेने का रोमांच एवरेस्ट फतह कर लेने के रोमांच से भी कहीं ज्यादा था । भीड़ की बीच में कूदकर लाइन में आगे निकलकर टिकट खिड़की पर करिश्माई ढंग से पहुंचकर छोटी सी छेद में हाथ घुसाकर टिकट ले लेने का हुनर सबको नहीं था । कईयों ने तो अपनी सायकिल बेचकर फिल्म देखने का विश्व कीर्तिमान रच डाला था । हमनें तो एक ही दिन में चारों शो देख लेने का गौरवपूर्ण जीवन भी जी रखा है । कई तो जिला पार पूर्णिया जाकर फोर स्टार में फिल्म देखने की हिमाकत कर बैठते । फ़िल्म देखने की कीमत हम अक्सर अपनी पीठ फोड़वा के भी चुका देने का शानदार अनुभव रखते हैं । स्कूल से भागकर फिल्म देख लेने और न पकड़े जाने  का जो विजय भाव हमारे मुखमंडल पर हुआ करता वह तो ओलंपिक में गोल्ड लाने से भी कहीं ज्यादा हुआ करता था । फ़िल्म देखकर उनके किस्से हू - बहू दोस्तों को सुना डालने का टैलेंट हम सभी को बखूबी हुआ करता था और सुनने वाला अपनी लार टपकाए आश्चर्य से सुनता हुआ हमारे अहो- भाग्य पर जलता - भूनता रहता । फिल्म देख लेना गूलर के फूल को देख लेने से ज्यादा दुष्कर काम था । कई शरीफ़ बच्चे तो जवान होकर ही अपनी चॉइस की फिल्में हॉल में अकेले जाकर देख पाते । हम जैसे बे - शरीफ लोग बचपन से ही नक्सली हो चुके थे और अनंत बार जवां होने से पहले ही लाल - सलाम कर चुके थे । तथाकथित शरीफ बच्चों ने जवान होकर हम जैसे बे - शरीफों को भी पीछे छोड़ लाल - सलाम करने का ठीक उसी तरह रिकार्ड बनाया जैसे अधेड़ उम्र में शादी करने वाला अपनी प्रियतमा के पहलू में ताउम्र सारी दुनिया से छिपकर अपनी वफा का रिकार्ड बना डालता है ।

कुल मिलाकर फिल्में देखने का रोमांच जो उन दिनों था जब जब में फूटी कौड़ी भी नहीं हुआ करती , आज भरे बटुए में भी वो रोमांच नहीं । अब टिकट खिड़कियों पर ठेलमठेल भीड़ नहीं होती , हॉल में शोरगुल और सीटियां नहीं बजा करती । चिनिया बादाम को कब का बेवजह अलविदा कह दिया गया और जो अब पीनट बनकर शराब के संग जीने को बेबस है । मकई के लावे को अब विलायती नाम देकर " पॉपकॉर्न " कहा जाने लगा है । सिनेमा हॉल अब मल्टिप्लेक्स हो चुका है जहां से वो पहले वाले हॉल की महक नहीं आती । पहले उचक - उचककर फिल्में देखने का रोमांच था और अब सरकती हुई सी चेयर एसी की ठंडी हवा में सुलाते हुए फिल्में दिखाने का दावा करती है । पहले हलाहल शोर हुआ करता था और अब न जाने कानों में अलग - अलग झंकार सुनाने वाले डिजिटल साउंड का बोलबाला है । सबकुछ पहले से ज्यादा शानदार होने का दावा है मगर वो कौतूहल , वो रोमांच अब कहीं दूर छूट सा गया जान पड़ता है । बदलते वक़्त ने सबकुछ बदल सा डाला है मगर हम आज भी वहीं , उसी दौर में खड़े हैं जहां दीवारें भी जिंदा हुआ करतीं थीं और हमारे रिश्ते दरो - दीवारों से भी हुआ करते थे ।

राजू दत्ता ✍🏻

Tuesday, 25 August 2020

स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी

*स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी*

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*बचपन में हमसे पढ़े - लिखे बड़े लोग अक्सर  इंग्लिश ट्रांसलेशन पूछ लिया जाया करते  थे और एक तो मानो जैसे हमारी नियति में ही लिखी थी - "मेरे स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी " बड़ी दुविधा थी उन दिनों । अब सचमुच ट्रेन जा चुकी है । अब ट्रांसलेशन पूछने वालों में से अधिकांश समय से पहले ही स्टेशन पहुंचकर ट्रेन पकड़कर अनंत यात्रा को जा चुके हैं । कुछ लोग तो स्पेलिंग पूछने को ही अपना कर्तव्य जान सबसे कोई न कोई स्पेलिंग पूछ लिया करते थे । स्पेलिंग पूछे जाने और न बता पाने की लाज अब खो चुकी है । एक छोटी सी भार्गव की डिक्शनरी घर - घर अपनी मौजूदगी से यह बता दिया करती कि यहां भी लोग अंगरेजी के कदरदान हैं और अब वो डिक्शनरी भी ट्रेन पकड़ समय से पहले जाने कहां जाकर खो गई है । डिक्शनरी तक को याद करके अंगरेजी को धूल चटा देने का सामर्थ्य हम बिहारियों को खूब अच्छी तरह आता था । अब सबकुछ गुगलमय हो चुका है , अबकुछ ऑटो - करेक्ट हो जाता है । अब कोई पूछने वाला नहीं और बताने वाला भी नहीं । अंगरेजी बोलने का हुनर रेपिडेक्स इंग्लिश वाली किताब सिखा दिया करती थी और बस किताब भर होने से आदमी जान जाता कि यह आदमी अंगरेजी बोल लेता है । रेपिडेक्स इंग्लिश की किताब ने न जाने कितने ही घरों को शोभा बढ़ाकर हमारे आन - बान और शान को अपने मोटे कवर से ढककर बिना अंगरेजी बुलवाए ही बचाए रखा था  यह तो बच्चा - बच्चा जानता है । रेपिडेक्स न होता तो आज अंगरेजी जिंदा न होता । हिंदी में अंगरेजी सीखने का शानदार अनुभव लेने का सौभाग्य अब नई पीढ़ी को कहां ? हमने अंगरेजी को हिंदी में सीख लेने का अजूबा काम कर दिखाया था । हम बिहारियों ने बिहारी- हिंदी में अंग्रेजी लिख - बोलकर अंगरेजी की एक नई शैली को खड़ा कर दिया था । आज भी हम अंगरेजी बिहारी में ही बोलने का बखूबी हुनर रखते हैं । बिहारी अंगरेजी ने एक नए फनेटिक को जन्म देकर अंगरेजी से पूरा बदला चुका लिया है और अंगरेजी अब बस खामोशी से सबकुछ सह लेने को मजबूर है ।*

*उन दिनों हम कर्सिव राइटिंग का नाम तक न सुने थे । बस एक चीज हम अपने आप अपनी शानदार प्रतिभा से सीख लिए थे और वह था जैसे भी हो सटा - सटा कर किसी तरह घुमा - फिराकर लप्तुआ अंगरेजी लेखन शैली जिसकी छाप आज भी कई विभागों छपती रहती है । यह हुनर उन दिनों सबको था । सबने अपने - अपने हुनर से एक नई शैली रच दी थी । और हां , तीन लाइन वाली अंग्रेजी की कॉपी हमारे लिए बेकार सी थी और हम हिंदी की दो लाइन वाली कॉपी में ही अंग्रेजी लिख - लिखकर अंगरेजी को बार - बार यह अहसास दिला देते थे कि हिंदी से बचकर कहां भागोगे । अंगरेजी का हिंदीकरण हमने कर ही डाला था । हम बिहारियों को जो सदमा अंगरेजी ने दे रखा था उसका खूब बदला हमने ले रखा है उसका रंग - रूप अपनी मर्जी से बदलकर  और बिहारी टोन से उसका विलायती फोनेटिक बदलकर ।*

*क्लास 6 से अंगरेजी पर फोकस किया जाता था और वो भी " I am , She is ......" टाइप का सिलेबस हुआ करता । 6 से पहले सब लोग वही लप्तुआ अंगरेजी लिखने का ही हुनर विकसित करते रहते और भार्गव की डिक्शनरी को चाट - चाटकर पहले कौन  पूरा पचा लेगा यही कॉम्पटीशन होता रहता। कुछ तो पूरा डिक्शनरी ही घोर के पी जाने का शानदार हुनर रखते थे । उन दिनों स्पेलिंग पूछने की घातक बीमारी चारों ओर फैली होती और यह सबको शिकार बना चित कर दिया करती थी । शायद ही इसके प्रकोप से कोई बच पाया । इसका कोई वैक्सीन नहीं बन पाया और पता नहीं यह बीमारी कैसे बिना वैक्सीन के चली गई । अब स्पेलिंग कोई नहीं पूछता । स्पेलिंग तो छोड़िए अब तो कोई टाइम भी नहीं पूछता । अब दौर किताब - कलम  और घड़ी की नहीं बस एंड्रॉयड फोन की है जहां सब मिलता है बस कोई पूछने वाला नहीं मिलता । अब आदमी काम टॉकिंग टॉम ज्यादा बोलता है ।*

*अब अंगरेजी मीडियम का नया दौर है जहां बच्चा जन्म लेते ही एप्पल खाता है और खेलने के लिए प्ले स्कूल जाता है । हम जैसे सरकारी स्कूल के पैरेंट्स अब नए सिरे से अपने बच्चों के साथ - साथ अंगरेजी स्कूल का अंगरेजी चैप्टर पढ़कर अपनी पुरानी भूल सुधारने में लगे हैं । अब स्पेलिंग नहीं फोनेटिक बताया जाता है । पैरेंट्स मीटिंग में गार्जियन लोग का रैगिंग होता है और बच्चा घर आकर हमको ही पढ़ा देने का जिगर रखता है । अब नया दौर है जिसमें खड़े - खड़े दौड़ लगानी होती है और पहुंचते कहीं नहीं मगर पसीने छूट पड़ते हैं ।*

*तख्ती और स्लेट पर चौक - पेंसिल से लिखना अब बेतुकी का सबब बन चुका है। अब सीधे कॉपियों पर पेंसिल से लिखे जाने का नया दौर है । तख्तियों पर चौक और पेंसिल से अक्षरों की प्रैक्टिस कर सुलेख लिखने पर अब यह कहकर पाबंदी है कि लेख बिगड़ जाएगा । लिखना लिखने की परंपरा अब खत्म हो चुकी है । सुंदर लिखावट की जगह अब कई किस्मों के फ़ॉन्ट ने ले लिया है ।अब तो जिंदगी का फ़ॉन्ट भी स्मार्टफोन और लैपटॉप्स तय कर रहा है । पुरानी दुनिया अब आउटडेटेड होकर नए वर्जन में एक छोटी सी डब्बी ने सिमटकर रह गई है । दुनिया अब वर्चुअल हो रही है जहां सबकुछ हवा में तैर रहा । हम जमीं छोड़ चुके हैं और बस उड़े ही जा रहे ।*

_________________________

*© राजू दत्ता✍🏻*

Tuesday, 11 August 2020

आ जाओ

आ जाओ
जिंदगी है कि रुकती नहीं
आज सब हैं
कल कोई नहीं ।

वक़्त का तकाज़ा है
चारों तरफ जनाजा है
सोचा किया था कल मिलेंगे
आज खबर नहीं उनकी
ढूंढे न मिले जो हर पल साथ थे कभी

सोचा न था कभी
ये दौर भी आएगा
बिना कुछ कहे कोई चला जाएगा
बोझ मन पर कई छोड़ जाएगा
आ जाओ
जिंदगी है कि रुकती नहीं
आज सब हैं
कल कोई नहीं ।  

(राजू दत्ता✍️)


Sunday, 9 August 2020

रिश्तों का भ्रम

आप तबतक अच्छे हैं जबतक इस्तेमाल किए जा सकते हैं। अधिकांश अपने इस्तेमाल किए जाने को ही अपनापन समझकर रिश्ते निभाते चले जाते हैं । एक बार आपने सच को समझा और सत्य कहा बस सामने वाले के पास विकल्प खत्म और साथ ही रिश्ते भी । मगर रिश्तों के साथ आपकी वेदना खत्म नहीं हो जाती । फिर शुरुआत होती है पश्चाताप उन अनमोल पलों का जिसे आपने यूं ही उन रिश्तों को सींचने में जाया किया । परंतु एक मजबूत पहलू यह भी है कि अब आपका आज आपका है और आपका आज का यह पल अब जाया नहीं होगा ।

सत्य वेदना तो देता है मगर साथ ही एक स्वाभिमानी शुकून भी देता है और आप मजबूत , और मजबूत होते चले जाते हैं और निश्चित ही आपका वो दूसरा बनावटी और ढोंगी रिश्ता कमजोर होते होते विस्मृत हो जाता है। सत्य की वेदना असत्य के आनंद से ज्यादा सुख देता है क्योंकि यही वास्तविक है बाकी भ्रम ।

चाकरी

चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई
लौटकर आया तो खो चुका था सब
आहिस्ते - आहिस्ते मिट चुका था सब
किस्तों में पूरी जिंदगी लेे गई
चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई ।

छुट्टियों को भी सहेजा
तनख्वाहों को ही समेटा
वक़्त का सिला दिया बार - बार
गुजरी सारी उम्र जार - जार
लौटकर आया तो खो चुका था सब
अब कहां ढूंढे मिले वो बहार
पुराने वो संगी - साथी वो यार
चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई ।

(राजू दत्ता✍️)

Wednesday, 29 July 2020

जिंदगी जमीन है





कटिहार - एक शानदार और जानदार शहर । कहने को तो दिल्ली और मुंबई देश के सबसे महंगे शहरों में शुमार हैं लेकिन जिन्होंने यह सर्वे किया है वे अभी भी मां के गर्भ में ही है और उन्होंने कटिहार नहीं जाना । महंगाई के मामले में अमेरिका का न्यूयॉर्क शहर भी पीछे छूट जाए । यहां आपको खड़े होने की भी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।

सामान्य दिनों में चारों तरफ धूल - ही - धूल उड़ती आपको यह एहसास दिलाती रहती है कि एक दिन आपको इसी धूल में ही मिल जाना है । यह कोई मामूली धूल नहीं । यह धूल है लोकतंत्र की ।  आपको अपना बेशकीमती वोट देकर ज्यादा - से - ज्यादा धूल उड़ाने वाले को चुनना होता है। तब जाकर यह दुर्लभ धूल आपके फेफड़े में जाकर आपको सुकून दे पाता है और मरते वक़्त आपका छाती शान से फूला रहता है। इससे बढ़िया इम्यूनिटी बूस्टर और कोई नहीं । आपको किसी तरह की कोई चूरन लेने की जरूरत नहीं । सीधा आपके नाक और मुंह को तर करते हुए आपके श्वसन तंत्र की क्षमता बढ़ाते  हुए आपके दिलों दिमाग को दुरुस्त कर देगा । कोई यहां निकम्मा नहीं । सभी धूल झाड़ने और मच्छर मारने में व्यस्त हैं ।  यहां की फिजाओं में खास किस्म की खुसबू लिए यह धूल यूं ही नहीं आता । इसका एक पेटेंट तरीका है । नालियों से पहले कीचड़ निकालकर नालियों के ही किनारे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है और जो उत्तम किस्म का पावडर जैसा धूल होता है प्राकृतिक तरीके से धीरे - धीरे यहां की फिजाओं में घुल - घुलकर आपको एक नशा सा देता रहता है । मोटका धूल फिर से नाली में अपने आप चला जाता है और फिर से अगली बार की तैयारी में लग जाता है ।  यहां के चाट - घुपचुप के अद्भुत स्वाद का श्रेय इसी पवित्र और खुशबूदार धूल और लाल पानी को जाता है । इस शहर को छोड़ने वाले यहां के नायाब स्वाद को नहीं भूल सकते और कुछ तो यहां के पीले चाट पर कविताएं लिखते - लिखते राष्ट्रकवि हो जाते हैं ।

' जल ही जीवन है ' इस बात को यहां के लोगों से ज्यादा कोई भी नहीं जान सकता । जल जीवन देता है तो ले भी लेता है तो क्या ग़म है । हर साल आपको वैतरणी पार करवाने के लिए  बाढ़ खुद चली आती है और कुछ उनके साथ अनंत यात्रा पर निकल जाते हैं । यहां के पानी में भले ही फ्लोराइड और शीशा हो मगर लोगों ने इसे भी आयरन ही मानकर अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है। गोरा आदमी भी आयरन की प्रचुरता लिए थोड़ा अजीबोगरीब लाल - पीला होकर अपने सफेद दातों पर पीला तो कहीं काला परत चढ़ाए  अपने सफेद गंजी को ठीक लाल - लाल किए दांत निकालकर हंसता हुआ आपको लगभग हर जगह दिख ही जाएगा । धूल आपका वजूद है और पानी का आयरन ही आपको भीतर ही भीतर लौह पुरुष का रूप देता है जिसको कोई भी साधारण पुरुष आपके लाल - लाल होते बनियान से ही भांप लेता है । यह दोनों आपको बिना किसी दाम के समान रूप से पोषित कर समानता के भाव को स्थापित करता रहता  है । जीवन की इस सच्चाई को यह शहर आपको चाह कर भी भूलने नहीं देता ।

यहां कोई हवा - हवाई नहीं है । लोग यहां जमीन से जुड़े हैं । जमीन ही लोगों का वजूद है। जिंदगी ही जमीन है । पैदा होने का एकमात्र लक्ष्य है – ‘एक धूर जमीन’ । अंत में सबकुछ मिट्टी में मिल जाएगा सो मिट्टी से अत्यधिक लगाव है यहां । जैसा पानी वैसा ही भेष और विचार । यहां के पानी के शीशा , आयरन और फ्लोराइड को लोगों ने चरणामृत की तरह पी - पीकर पानी का सारा शीशा , आयरन और फ्लोराइड अपने पेट में जमा कर फुला रखा है । हर फुले हुए पेट में फैट या चर्बी होता है इस भ्रम में ना रहें , शीशा और आयरन का गोला भी होता है या फिर नेचुरल गैस । बढ़े हुए पेट को देख गलती से भी आप ये मत समझ लीजिएगा कि आदमी यहां  कसरत नहीं करता है और हेल्थ कॉन्शस नहीं  । यहां आदमी सीरीयस होने के बाद ही सीरीयस होता है और उससे पहले सीरीयस होकर सीरीयस नहीं होना चाहता । यहां का गुणकारी पानी मिनरल वाटर को उठाकर पटक देने की हैसियत रखता है । किसी भी बाबे के काढ़े से ज्यादा असरदार यहां का रोगनाशक जल है । बस आप आंख बंद कर अपने इष्टदेव का नाम ले लेकर पीते रहें बाकी तो विधि का विधान स्वयं विधाता भी नहीं टाल सकते ।

कुदरत की एक बेहतरीन  चीज आपको यहां घर - घर मिलेगी । वो बेहतरीन चीज है - मकरा । आप चाहे कितना भी मकरा का झूल झाड़ लें , अगले ही दिन फिर से आपको उतना ही झूल घर में मिल जाएगा । इतनी तेजी से संसार के किसी भी कोने में मकरा झूल नहीं बना सकता । कटिहार का मकरा कोई मामूली मकरा नहीं , उड़ती धूल को भी धूल चटा देने का बेहतरीन सामर्थ्य है इसमें । लोगों ने भी हार नहीं मानी है धूल और झूल से । जिंदगी आपकी यहां धूल और झूल झाड़ने में व्यस्त रहती है फिर भी समय खूब है यहां लोगों को ।

हजार जन्मों का पुण्य प्रताप ही है कि आप इस पुण्य भूमि पर पैदा हुए । काला पानी , फिजाओं में धूल ही धूल , काले - काले मोटे मच्छरों से लैस , सड़कों और हाईवे पर तरणताल जैसे गड्ढों की विशेष सुविधा लिए यह शहर गोरे लोगों पर अपनी लाल-लाल परत चढ़ाएं उनके पीले - पीले दांतो से दिल्ली और मुंबई तो क्या न्यूयॉर्क और वेनिस की स्थिति पर भी हंसता रहता है । अगर आप इटली के वेनिस शहर घूमने का ख्वाब संजोए रखे हैं और अपने जीवन की गाढ़ी कमाई को विदेशी मुद्रा में खर्च करने की सोच रहे हो तो थोड़ा इंतजार कीजिए । बस एक बरसात का इंतजार कीजिए । एक हल्की सी भी बारिश हो जाए। बस अब आपको वेनिस जाकर अपनी जेब ढीली करने की जहमत नहीं उठानी होगी । कटिहार में भी मुफ्त में आप इस का लुफ्त उठा सकते हैं। हल्की सी बारिश के साथ ही सुंदर सा नजारा आपको पल भर में विस्मित कर लेगा । चारों तरफ स्वच्छ जल कल-कल बहता मिलेगा । एकदम वेनिस शहर को भी मात देता । बस एक नाव की जरूरत पड़ेगी आपको । चारों तरफ लोग अपने पीले - पीले दांतों को निकाल कर वेनिस को भी मात देने वाली मुफ्त व्यवस्था के लिए यहां देव भाषा में यहां के सुविधा दाताओं को दुआएं देते दिख जाएंगे । बहुत ही शानदार एवं खुशनुमा माहौल होता है। छोटका नाली , बड़का नाला , छोटका गड्ढा , बड़का गड्ढा, सुख्खा सड़क , गिल्ला मैदान सब के सब परम आनंदित होकर भेदभाव भूलकर एकाकार हो जाते हैं । मल - मूत्र बस का भी भेदभाव मिट जाता है । गंगा - जमुनी संस्कृति के जीते जागते ज्वलंत उदाहरण से आप दांतों तले अपनी अंगुलियां दबाकर काट खाएंगे । एकाकीपन का यह रूप आपको मोह लेगा।

सड़कों पर पानी से भरे गड्ढे को देखकर उसे मामूली गड्ढा समझने की बचकानी भूल बिल्कुल भी ना करें । निश्चित तौर पर वह डीजल ही होगा । पेट्रोल और डीजल का अथाह भंडार छिपा है यहां । हीरा - मोती , सोना- चांदी , मुक्ता- माणिक्य और मकरंद ना जाने क्या क्या बेशकीमती चीजें दबी हैं यहां की जमीन में । यहां की जमीन के नीचे कब कौन सी बेशकीमती चीजें निकल आए यह कोई नहीं जानता। नींव की खुदाई करते ही सोने के सिक्कों और ईंट - गहनों से भरा मटका मिल जाना तो आम सी बात है । बस नींव खोदने भर की देर है और आप राजा बन गए । यहां के सारे बड़े लोग उसी मटके से ही तो आदमी बन गए हैं। पहले वो आदमी नहीं थे ।

बात रोजगार की करें तो यहां सौ फीसदी रोजगार है । बेरोजगारी ही यहां सबसे बड़ा रोजगार है । काम कुछ नहीं, फुरसत कभी नहीं ' - यह नायाब चीज आपको बस यहीं और यहीं मिलेगी । एक मेंढ़क भी अगर नाली से बाहर आ जाय तो जमा भीड़ को तीतर - बितर करने के लिए प्रशासन को लाठी चार्ज करना पड़ जाए । नाला में फंसा ट्रैक्टर कैसे निकल पाता है यह देखने के लिए लोग मोटरसायकिल रोक - रोक के घंटों जायजा लेते रहते हैं और ट्रैक्टर का ड्राइवर चुप - चाप खैनी मलता हुआ मुस्कि मारता रहता है । यहां आदमी समय को बस में कर काट - काटकर भुजिया बना बना कर दूसरों में बांटता रहता है । ' कुछ बड़ा होने के इंतजार में मर जाने से अच्छा है छोटा चीज में ही जीते जी  मजा ले  लेना '  यह बात यहां कुकुर  - बिलाय  को भी पता है ।  हम तो आदमी हैं । समय की कोई कमी नहीं यहां बस आप समय चक्र को तोड़कर फेक दीजिए एक बार । जी हां शहरों में बेशुमार, यह शहर है - कटिहार । अगर आप कटिहार नहीं जानते तो आप मां के गर्भ में ही हैं ।

पूरे सीमांचल को अपने कलेजे में समेटे छोटका एम्स चौबीसों घंटे इमरजेंसी सुविधा से लैस , चमचमाता - गमगमाता स्कूल - कॉलेज जहां आप अपना ललका चेहरा साफ - साफ देख सकते हैं ,  निरमा सरफ़ वाला दूधिया साफ मार्केट , मिरचाई बाड़ी से पूर्णिया तक रोड किनारे आपको आंखें बाहर कर आश्चर्य से देखता टंगा हुआ मुर्गा और खस्सी , लेलहा चौक पर हलाल होते मुर्गे से नजरें बचाते हुए मुर्गा - भात पर घात लगाए तेज लोगों का जखीरा, मेडिकल कॉलेज का जलजला और दिलजला , बाज़ार का अफलातून भीड़ , भीड़ - भीड़ का खेल खेलता भीड़ , अंग्रेजी मीडियम को हिंदी में आसानी से बच्चा के साथ साथ मां - बाप को भी पढ़ाता हुआ प्राइवेट स्कूल, अंगरेजी बोलते बच्चा को देख सीना फुलाए पापा - मम्मी,   सोशल मीडिया में पीएचडी करता लगभग हर जवां लड़का , मोबाइल में घुसकर अध्ययन और योग - साधना करता बच्चा - बच्चा और उसको देखकर दांतों तले उंगली दबाए गार्जियन, चाय - पान और नाई की दुकान पर बड़े - बड़े विद्वानों की विद्वता की धज्जियां अपने असीमित ज्ञान की फूंक से  उड़ाता बुद्धिजीवी युवा और सोशल मीडिया पर राष्ट्र-हित में युद्ध लड़ते - लड़ते थककर पब्जी खेलता और टिक - टौक पर अपना हुनर मुफ़्त में बांटता बच्चा - बच्चा , खैनी और गुटका को चबा - चबाकर धूल में मिलता और हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला कमोबेश हर शख़्स । और क्या - क्या बयां करें यहां का गुणगान । कोई नहीं ऐसा , कटिहार जैसा ।

इतनी खूबी लिए इस शहर की जमीन की कीमत को यदि आप ज्यादा समझ रहे हैं तो आप निरे मूर्ख हैं ।  आप अभी भी अजन्मे है और ना ही जन्मे तो ठीक हैं । जितने में आप दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास और मुंबई के बांद्रा और मालाबार हिल्स के पास एक बंगला ले लें , रोड किनारे एक धुर ही बमुश्किल से आप पा सकते हैं और वह भी बिना कबूलती किए या पाठा गछे तो सोचिए भी मत । यहां जमीन की कोई कीमत नहीं । सड़क से सटे जमीन में हीरा दबा होने से करोड़ों की कीमत , तो ठीक उसके पीछे लोहा होने से हजार या लाख । जमीन के नीचे दबा क्या है इसी से इसकी कीमत जमीन वाला लगाता है और जो दलाल है उसी को बस पता होता कि जमीन के नीचे दबा क्या-क्या है । हाईवे से सटी जमीन की कीमत तो आप पूछने की भूल भी ना करें। एक करोड़ से शुरू होकर खत्म कहां होता कोई नहीं जानता । आप करोड़ों की जमीन रोड किनारे लोन और करजा लेकर खरीद कर उसमें झोपड़ी डाल तंदूर मुर्गा का दुकान ,  चाय का दुकान, मैगी - पनीर पकौड़ा का दुकान या खाली दही - पेड़ा का दुकान खोलकर रोज कमा खाकर अपना पेट पाल सकते हैं । और हां , चापाकल का कोनो जरूरत नहीं । बस एक प्लास्टिक का आयरन से पीला वाला एक मग रखना है और उठा लीजिए कहीं से भी । खाली एक बार सूंघ लीजिए कहीं डीजल तो नहीं निकला है । एक बात याद रखना है आपके जमीन के नीचे का हीरा खोद पर नहीं निकाल खाना है । काहे की हीरा चाटने से ही आदमी खत्म हो जाता है सो हीरा को दबा ही रहने दीजिए और चाय बिस्कुट और मैगी खा कर ही मस्त रहना है । दबे हीरे के एहसास से ही आपका कॉन्फिडेंस बना रहता है ।

इस जमीन का सड़क कोलकाता से मिलेगा, यह वाला फोरलेन से सटा जमीन होगा, इस जमीन के बगल में फलाना कॉलेज होगा, इस जमीन पर पेट्रोल चेक हो रहा है, ठीक सामने फलाना स्कूल बनेगा और भी न जाने क्या - क्या । यह सब हमारे पैदा होने से पहले दादा के जमाने से ही हम सुनते आ रहे हैं ।

चौक पर रोड पर पहले कटरा बनाने का सपना आपको सोने नहीं देता। दसियों जगह से उधार - पैंचा ले, सोना - गहना गिरवी रख, आधा पेट खाकर आप दो-तीन कटरा बनाकर अपना सीना फुला सकते हैं । यह बात अलग है कि आपके फूले हुए सीने के भीतर पिचका हुआ दिल कब आपका साथ छोड़ दे आपको नहीं पता हो । लाखों लगा कर दो - तीन हजार कमाने के हुनरमंद यहीं पाए जाते हैं । कटरा आपको अपार शांति देता है और बिना खाए आपको खुद को जिंदा भी रखने का हुनर भी देता है । हर कटरे का भाड़ा उस दुकानदार का दुकान कितना चलता है उससे तय होता है । कुछ तेज दिमाग वाले कम लागत के जीरो मेंटेनेंस की लौज बना लेते हैं और दिन भर कैरम खेल खेल कर स्वर्ग का मजा यहीं ले लेते हैं। लौज में मौज लेते लड़कों को देखकर लौज़ वाला भी मस्त रहता है और मुर्गा - भात में साझेदारी कर मालिक और दास का भेद - भाव ख़तम कर देता है ।

कुछ लोग अपने माथे पर फोन का टॉवर लगवाकर भी बड़ी - बड़ी कंपनियों को भी अपना गुलाम बना लेते हैं और भाड़े के साथ - साथ मशीन का डीज़ल भी पी जाते हैं । टॉवर से खतरनाक रेडिएशन निकलकर इंसान को पागल कर दे या कैंसर इस बात से आप उनको बेवकूफ नहीं बना सकते । यदि आप समझाने की कोशिश करने वाले हैं तो ठहर जाइए । एक बार ठंडे दिमाग से सोच लीजिए कहीं आप उनको मिलने वाली सल्तनत से जल - भुन तो नहीं रहे । सल्तनत का नशा गांजे के नशे पर भारी होता है और आप वो हो जाते हैं जो आप हैं नहीं । मकान मालिक का होना ही आपको ओज और तेज से भर देता है। भाड़े-दार पर हुकूमत चलाकर जो सुख है वह देश की हुकूमत चलाने में कहां । सबसे निरीह प्राणी भाड़े- दार ही होता है। जिसके पास एक धुर भी जमीन नहीं वह पैदा ही क्यों हुआ ? जीवन को सार्थक करने के लिए यहां आपको अपनी जमीन चाहिए । जमीन नहीं तो कोई इज्जत नहीं । सड़क किनारे आपकी जमीन का होना आपकी हुनरमंदी को जगजाहिर करता है । लड़के का अपना पक्का घर है, दो ठो कटरा है और बस कुछ और ना भी हो तो चलता है । मकान मालिक आपको एक नायाब तोहफा घर लेते ही बिना आपसे पूछे तपाक से दे देता है । वो है बिना मीटर के बिजली । एक बल्ब का इतना लगेगा , पंखा का इतना , टीवी का इतना औरो हीटर और आयरन चलाते देख लिए तो कहानी ख़तम । बात यहीं ख़त्म नहीं होती । मकान मालिक रोज कभी - न - कभी किसी भी बहाने अपनी तिरछी और पैनी नज़रों से आपके घर के कोने - कोने को छानकर यह निश्चित कर निश्चिंत होकर सो जाता है कि सब ठीक है । बिना आयरन और हीटर जलाए भी सम्मानित रकम का बिजली का बिल आपसे वसूलकर आपके आत्मसम्मान को बनाए रखने में मकान मालिक की भूमिका आपके मानसपटल पर जीवनपर्यंत बना रहता है ।

मकान भाड़े में एक अलग ही रस  है यहां । एक तो पैसे का रस और दूसरा आपको अपनी सल्तनत और रि़याया पर हुक्म चलाने का नायाब अनुभव । दूसरा वाला अनुभव ज्यादा मजा देता है । किराएदार कितना भी किराया दे दे , मकान मालिक का कर्जा कभी नहीं उतार पाता है । इतना बड़ा मजा चाहिए तो जमीन के पीछे दीवानगी का होना लाजिमी है ।

भाड़े-दार रोज मुर्गा - मछली खाए और मकान मालिक भले ही नून - भात मगर ओहदा हमेशा मकान मालिक का ही बड़ा होता है। मकान मालिक अगर टूटल सायकिल पर बार - बार चेन चढ़ाकर चले और भाड़े- दार बुलेट पर तो क्या हुआ? भाड़े-दार लाख कमाकर भी गरीब होता है और मकान मालिक निकम्मा होकर भी मालिक ही होता है । इसी गरीबी को दूर करने के लिए गरीबों की दौड़ है यहां मालिक बनने की ।

क्या सेठ, क्या डॉक्टर, क्या बाबू, क्या नेता सब के सब ज्यादा से ज्यादा जमीन खरीद कर ज्यादा से ज्यादा इज्जत खरीद लेना चाहता है । रोड किनारे प्लॉटिंग,  ई फलाना नेता का, ई फलाना डॉक्टर का , ई फलाना सेठ का , ई फलाना बाबू का । ई लोग नहीं बेचेगा , आप पीछे वाला ले लीजिए । नेता जी के पीछे वाला 50 लाख, सेठ जी के पीछे 40 लाख,  डॉक्टर के पीछे 1 करोड़ ।  50 लाख वाला में रास्ता नहीं मिलेगा आपको उड़ कर जाना पड़ेगा । 40 वाला में थोड़ा लफड़ा है, अगर आज बयाना कीजिएगा तो अभी लफड़ा सलता देंगे ।  एक करोड़ वाला में दवाई दुकान खोल दीजियेगा तो भयानक चलेगा । पूर्णिया वाला रोड का दोनों तरफ बिक गया है, डी एस कॉलेज से कोलकाता तक बिक गया है, मिर्चाई बाड़ी से फलका तक सब खत्म हो गया है , मनिहारी रोड के दोनों किनारे सब सेठ गोदाम और स्कूल के लिए खरीद लिया है । दलाल को एक सौ साल बाद का भी सब कुछ पता रहता है । दलाल एक सौ साल तक जिंदा नहीं रहेगा इसलिए आपको दिलाकर चैन से दुनिया से चले जाना चाहता है ।

यह सोना विहार है, यह चांदी नगर , यह हीरा विहार , यह मोती नगर , यह पन्ना विहार , यह माणिक्य नगर , यह कुबेर खंड , यह लक्ष्मी विहार …. सब बुक हो गया है । यहां मॉल होगा , यहां टॉल होगा , यहां ताजमहल बनेगा , यहां प्रधानमंत्री जी ले लिए हैं , अमिताभ बच्चन यहीं आ रहे हैं, मुकेश अंबानी अपना एंटिला छोड़कर फोर लेन के पास रहेंगे , बाबा रामदेव अब हरिद्वार छोड़ बाबा - विहार में यहीं आश्रम लेंगे , फेसबुक का फैक्ट्री यहीं खुलेगा , साहेबगंज का पूल बनते ही सब साहब लोग यहीं रहने आएंगे यह सब बात का जानकारी आपको बिना पैसा का चाय - पान के दूकान पर या सैलून में चूल कटाते - कटाते  मिल जाएगा । दू साल बाद आप खरीद नहीं पाइएगा , यहां का जमीन का दाम आग हो जाएगा जिसमें आप जलकर भस्म हो जाइएगा , अभिए बायानानामा कर दीजिए यह सब बात सुनकर आप हदस कर हदस जाएंगे ।

शहर में सौ में नब्बे बुलेट दलाल लोग खरीदकर रोज चमकाकर चलाता आपको दिख ही जाएगा  और हां , दलाल आपको जमीन मालिक से ज्यादा स्मार्ट दिखेगा । उसपर यहां का आयरन का लाल पीला रंग नहीं चढ़ा मिलेगा काहे कि वो मिनरल वॉटर पीता है । जमीन मालिक के जैसन वह खैनी नहीं खाता मिलेगा । पान - पराग और तुलसी का खुशबू से आप मस्त हो जाएंगे । सादा ड्रेस और रंगीन चस्मा और काला जूत्ता में डील-डौल देखकर आपको अपने आप पर लाज़ आयेगी और आप संट हो जाएंगे ।  दलाल शब्द थोड़ा ठीक नहीं जान पड़ता सो आप मुंह पर मत बोल दीजियेगा और उसका नंबर मोबाइल में दलाल बोलकर सेभ मत कीजिएगा। वह आपका सबसे बड़ा हितैषी है सो आप उनका नाम सोच समझकर सेभ कीजिएगा । वही आपका तारणहार है और वही आपको मोक्ष देगा बाकी सब मोह - माया है ।

अमला टोला, बनिया टोला, कालीबारी, राज हाता ,बिनोदपुर , दुर्गापुर, नया टोला , चूड़ी पट्टी , गामी टोला, दुर्गा स्थान ई सब जगह में एक धुर के लिए कम से कम एक करोड़ चाहिए । वह भी तब जब जमीन बेचने वाला को आपका थोबरा पसंद आ जाए । यह सारे इलाके आपको वेनिस का मजा देंगे । आपके बेड तक पानी की सुविधा है यहां । मंगल बाजार, न्यू मार्केट , बड़ा बाजार, एमजी रोड में घर या दुकान लेना कनॉट प्लेस में लेने से कोनो कम नहीं है । शहीद चौक की बात करेंगे तो लोग आपको ' पगला गया है ' कहके आपके पीठ पीछे मुंह में गुटका दबाए ही जोर का हंसी हंस देंगे ।

आप घर में कितने ही निकम्मे क्यों न हो आपको पूरा इज्जत मिलेगा बाहर में अगर आपके पास किराए पर देने के लिए कटरा या मकान है । रजिस्ट्री आफिस के सामने रोज की कचा - कच भीड़ यह दिखलाती है सब लोग उतनी ही इज्जत पाने को कितना बेताब हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि आप खाली जमीन खरीदकर उसमें आज बाउंड्री वाल दे दे और कल ही आपको बिना खरीदार के ही  20 से 25 लाख के फायदे का एहसास अपने आप हो जाएगा । जमीन खरीदने वाला न जाने कितनी रात इसी खुशनुमा अहसास से  नहीं सोता । सबकुछ दांव पर लगाकर भी कई रातों तक न सोकर भी स्वर्ग - सुख का अनोखा अहसास यहीं , बस यहीं दिखता है। यहां आदमी नहीं जमीन ही जिंदा है और जमीन ही जिंदगी जीता है आदमी नहीं । आबोहवा ही शहर की कुछ ऐसी है कि जमीन लेते ही आप बन गए। क्या बन गए ? यह तो आप ही जान जानते हैं और हम ।

(राजू दत्ता ✍🏻)