Monday 28 September 2020

किस्सा आम का


किस्सा आम का
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आम का बड़प्पड़ तो उसके नाम से ही झलक जाता है। इतना खास होकर भी नाम है " आम”। आम की लकड़ी , आम और आम का पल्लव ये तीन तत्व कोई आम तत्व नहीं । इसने हमारे जीवन तत्व को अपना तत्व देकर हमें आज भी जीवंत रखा है । हे आम ! तुम्हे बारम्बार नमन है ! आम ने हमारे बचपन के जादुई दुनिया में एक अहम किरदार निभाया है जिसकी शानदार यादें आज भी हमें स्वप्न लोक की सैर करवा ही दिया करती है। सारे जहाँ की बेशकीमती दौलत एक तरफ और एक बालक के हाथ में एक पका आम एक तरफ ।  कोई तुलना नहीं , कोई उपाय नहीं । इतनी शानदार चीज और बातें गुजरे ज़माने की न हो तो बेमानी होगी ।  कमोबेश हर किसी ने एक ही जिंदगी जी रखी है मगर रंग अलग - अलग से रहे होंगे । बातें हमारे बचपन और आम की भी उतनी ही खास है ।

हम उस ज़माने के पुराने पके हुए चावल हैं जो अपने छुटकपन में ही महज आम के टिकोले की गुठली हाथ में लेकर गुठली से ही पूछ लिया करते कि किसकी शादी किधर होगी और फिर इत्मीनान से पूरे मजे लेकर टिकोले को काले नमक और लाल सुखी मिर्च के बुरादे के साथ चटकारे ले लेकर यूँ ही मस्ती में धीरे - धीरे खा लिया करते । उन दिनों आम के मौसम आते ही काले पाचक कि छोटी सी बोतल में काला नमक और लाल सूखी मिर्च के बुरादे हम ठूंस - ठूंस कर पहले ही भर लिया करते और हमारी हाफ पैंट की जेब में वो बोतल पुरे समय साथ हुआ करता ।  हम आम की गुठलियों के बाजे बनाकर भी मस्ती से उसकी पॉपी बजा - बजाकर यूँ ही रोज जश्न मना लिया करते । हमने आम के आम और गुठलियों के दाम वसूल कर रखे थे। कहावत हमारे बाद ही आयी थी ।
 
हम उस पीढ़ी से हैं जो आम के पाचक खाना पचने के लिए नहीं बल्कि पेट भरने के लिए भरपेट खा लिया करते और फिर उसे पचने के लिए फिर वही पाचक दूसरों से मांग खाया करते थे।  आम - पापड़ को हम चबाने के घंटों बाद भी अपनी दांत में फंसे टुकड़े को समय - समय पर खोदकर उसका क़तरा- क़तरा चूस लिया करते।

आम का अचार , आम की चटनी ,आम का मुरब्बा , आम का गुरम्मा , कच्चा आम , पक्का आम , पिलपिला आम , अलबेला आम , मैंगो मस्ती ,आम - रोटी , चूरा - आम  कुल मिलाकर हमारा बचपन आम के इर्द - गिर्द ही घूमकर आम सा हुआ करता था।  हर कोई आम था , कोई खास न हुआ करता था।

गर्मियों की छुट्टियों का पर्याय आम खाने से ही हुआ करता और नानी के घर आम खाने का प्रयोजन ही पूरे साल का एकमात्र प्रयोजन हुआ करता था । आम ने सबको बड़े ही खास तरीके से जोड़ रखा था और जोड़ काफी मजबूत हुआ करती थी ।
 
आम खा - खाकर हमने अपने शरीर और चेहरे विशेषकर अपने माथे पर बड़े - से - बड़े फोड़े बना डालने का विश्व - कीर्तिमान रच रखा था । पके आम को काटकर खाने में हमें उतना यकीं नहीं था जितना कि उसे  नीचे की तरफ दांत से काटकर छेदकर चूस -चूसकर उसका क़तरा - क़तरा पी जाने में था। बस आँखें बंद कर आम चूसते हुए हम जन्नत कि सैर कर आया करते । गुठलियों को चूस -चूसकर कौन कितना साफ़ कर सकता है इसकी प्रतियोगिता तो आम बात हुआ करती थी । आम के बोटे को चूसकर गले में खुसखुसी होने कि ख़ुशी छिपाये नहीं छिपा करती थी । कच्चे आमों कि ढेर में से थोड़ा पका आम ढूंढ लेने की कवायद दिनभर चला करती । आम कि गर्मी भले ही पेट बिगड़ दिया करती मगर जो शीतलता मन को मिलती उसका कोई जोड़ - तोड़ न था ।  आम कि सड़ी हुई गुठलियों को जलाकर पाचक बना लेने का हुनर हममें जन्मजात हुआ करता था । गुठलियों से उगे पेड़ का नामकरण और उसके मालिकाना हक़ के लिए होने वाले संघर्ष अक्सर हमारे लिए दोपहर को निकलने वाले सारे दरवाजे बंद करवा दिया करता ।  मगर फिर भी किसी -न -किसी चोर रस्ते का इल्म हमें हो ही जाता और हम निकल जाया करते अपनी सल्तनत कि सरजमीं पर ।

पूरा आम अक्सर हमें मयस्सर नहीं हुआ करता तो एक ही आम को तीन भागों में बांटकर सबको दिया जाता ।  गुठली वाला भाग हमें ज्यादा प्रिय हुआ करता तो जोर भी उसी पर हुआ करता । गुठली से विशेष लगाव का कारण यह था कि गुठली कभी न ख़त्म होने वाली एक लम्बी दास्ताँ  हुआ करती थी । आनंद का वो पल जितना भी लम्बा खिंच पाए , हम उससे भी कही ज्याद खींच लिया करते ।

आम फलों का राजा यूँ ही नहीं है ।  यह सबके दिलो - दिमाग पर राज करता है ।  हमारे लिए तो आम का मतलब आम नहीं बल्कि खास हुआ करता । हल्का कचहरी और मिस्टर बाबू के आम के बगीचे से आम चुराते हुए पकडे जाने पर बहुत अच्छी तरह से सेंकाई होने के बावजूद आम का मोह हर उस दर्द और अपमान को भुला देने को बेबस कर दिया करता था । हलके कचहरी के प्रांगण में आज भी आम का वो पेड़ खड़ा हमारी बाट जोहता दिख जाया करता है । आज बहुत ही काम ऐसे बच्चे हैं जो गुठलियां चूसना और आम चूसन पसंद करते हों ।  कपडे और देह  गंदे हो जाने के अनावश्यक भय ने वो आत्मीय सम्बन्ध को लगभग खो सा दिया है ।  हम तो कपडे के साथ - साथ सर से पैर तक आम -मय हो जाया करते थे ।

हमने तो अपने बचपन की अंग्रजी भी " राम आम खाता  है " से शुरू की और पेंटिंग भी हम सालों आम की ही करते आए और आम ही होकर रह गए ।  खास की कोई चाहत भी न थी । हम तो आम से शुरू होकर आम तक ही सिमटे रहे और गुठलियों से ही वफ़ा निभाते रहे और गीत भी आम के ही गुनगुनाते रहे । आम हमारे लिए केवल मात्र एक फल नहीं बल्कि एक ऐसा जादुई करिश्मा हुआ करता जिसके इंद्रजाल में हमारे बचपन  ने न जाने कितने ही ताने - बाने रच डाले थे। आम आज भी वही है मगर अब बचपन भी आम से आगे निकलकर खास हो चूका है जहाँ आम का वो अद्भुत सौंदर्य आधुनिक साजो सामान की चकाचौंध में मानो छिप सा गया है । अब गर्मियों कि छुट्टियां नहीं बस समर वेकेशन हुआ करता है और समर कैंप लगा करते हैं जहाँ मैंगो सेक बिना गुठली के सीधे आपकी पेट में जा पहुँचता है । आम अब पीस - पीस होकर कांटे वाले चम्मच से भोंककर खाया जाता है ताकि हाथ न मैले हो भले ही दिल कितना ही मैला क्यों न हो । आम केवल आम बनकर रह गया है अब । हमारे समय में आम , आम नहीं , खास हुआ करता जिसकी खासियत की शीतल  छांव में असीम आनंद के पल हम बिताया करते ।
__________________________________________[राजू दत्ता✍🏻]

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