Wednesday, 20 May 2020

गांव हूं मैं

हां गांव हूं मैं 
धूप में शीतल छांव हूं मैं
धूल और मिट्टी ही पहचान मेरी 
व्याकुलता में ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं ।

मौन था मैं
जब लगा था लांक्षण 
असभ्य , जाहिल और गवार हूं मैं 
गए थे छोड़कर , सिसका था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

जोहता रहा था बाट मैं
तेरे जाने के बाद मैं
न तू आता ,न तेरी खबर 
शहर के आगे बेअसर था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

सिक्कों से खाया चोट था मैं
पूछी न किसी ने सुध मेरी 
अपनों के बीच अनजान हूं मैं
वात्सल्यता ही पहचान मेरी 
हां, वही गांव हूं मैं।

देखकर छाले पांव के
सिसका हूं बारम्बार मैं
लुटाउंगा ममता की फिर वही छांव मैं
कोई मुझे रंजिश नहीं
हां, वही गांव हूं मैं ।

सींचा था सारा शहर
अपने ही रक्त से 
क्यूं जुदा हुए दो जून से 
धूल मिट्टी से सजी, भाली गवार हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

प्रकृति की वरदान हूं मैं
समझ न पाए मुझको तुम
न भूखों सोने देता तुझको मैं
हां, वही वरदान हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

आओ लौट, जोहता अब भी बाट मैं
वेदना मिटाने का कारगर उपाय हूं मैं
प्रकृति से जीना सिखाने का पर्याय हूं मैं
हां, वही ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

*(राजू दत्ता)*✍🏻

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