Friday, 8 May 2020

लपटों का संघर्ष

गंगा घाट पर बहुत भीड़ भाड़ थी । चारों तरफ़ मेला सजा था । प्रत्येक पूर्णिमा के दिन यह मेला न जाने कितने युगों से सजता आ रहा है । गंगा स्नान का महत्व दैविक के साथ साथ आध्यात्मिक भी रहा है । मोक्ष का मार्ग यही वर्णित है । उस मेले की चका चौंध और शोर शराबे में मैं भी अपने परिजनों और मित्रों के साथ था परंतु अंतरात्मा कहीं और विचरण कर रही थी । कुछ ही देर में मैं सबसे नज़रे बचा कर उस घाट की ओर अनायास चल पड़ा जहां जाना अशुद्ध समझा जाता है । हां , वो समशान घाट ही था । मैं वहीं दूर जाकर ऊंचे बालू के टीले पड़ बैठकर उस निर्मल गंगा की अनवरत अविरल धारा को निश्चल बहते देख रहा था । शीतल हवा मंद मंद बह रही थी । कोई शोर न था । चारों तरफ शांति थी । दूर किसी कोने में नज़रे उठाकर देखा तो एक चिता सज रही थी । एक सुंदर और भव्य अर्थी सजी पड़ी थी। कीमती वस्त्रों में कई लोग इर्द गिर्द खड़े थे । किसी धनाढ्य व्यक्ति की अर्थी रही होगी शायद । कुछ पगों की दूरी पर एक और चिता सजी हुई धुंधली सी दिख रही थी जिसे किसी तरह चिता का रूप भर दिया गया था । कुछ लोग वहां भी थे मगर बहुत ही सामान्य कपड़ों में और कुछ तो अर्ध नग्न ही थे । सब कुछ बहुत स्पष्ट तो नहीं था मगर उतना भी धुंधला न था ।  कहीं से किसी का रुदन का स्वर नहीं था । शायद रुदन की भी एक आयु और अवधि होती है और उसकी समाप्ति के पश्चात वह फिर नहीं आती । भाव शून्य हो मैं सबकुछ देख रहा था । चिता धू धुकर जल उठी थी मगर उनकी अग्नि में भी न जाने क्यूं अंतर सा था । एक की लपटें लहलहा रही थी तो दूसरे की लहलहाने को संघर्ष कर रही थी । शायद संघर्ष का यह अंतिम संघर्ष है जो लपटों में दिख रहा था । कुछ ही घंटो में दोनों चिताओं पर लगे मेले छंट गए । एक चिता जलकर पूरी तरह शांत होने को थी और दूसरी अधजली सी धुओं से धिरी जलने को संघर्ष कर रही थी । न जाने क्यों मेरे कदम उसी और अनायास उठ पड़े । अब वहां कोई न था । सुलगती हुई राख न जाने क्यूं काफ़ी कुछ बयां कर रही थी । दोनों चिताओं से मेरा कोई आत्मीय संबंध न था । फ़िर भी न जाने क्यूं किस आकर्षण ने बांध रखा था । न कोई भाव था , न वेदना थी । बस अनंत अनुत्तरित प्रश्नों का विहवल शोर सा था ।(राजू दत्ता)✍🏻

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