वो जलेबियों की महक , रफ़ी के आजादी के गाने , वो 15 ऑगस्ट की तड़के की सुबह और सुबह के इंतजार में बीती शाम .......आज़ादी का मतलब पता नहीं था मग़र पूरे आज़ाद थे । सुबह तड़के उठ जाना और इस्त्री की हुई कमीज़ और हाफ़ पैंट नहाकर तुरत पहन कर पुराने जूतों को ढुंढवाने की जिद्द ज़ेहन में जिंदा है । जल्दी से राष्ट्रगान ख़त्म होने का इंतजार उन रसदार जलेबियों के ज़ायका लेने का । जलेबियों के आगे किसी भी चीज का मतलब न था । आज़ादी का मतलब पता न था मग़र आज़ाद थे । शायद वही असली आजादी थी । उन गरमा - गरम जलेबियों के रस का जायका अभी भी ताज़ा है ज़ेहन में । बंद आंखों से साफ़ दिखती वो पुरानी तस्वीर कभी धुंधली ना हुई । आज़ फ़िर आज़ादी का जश्न -ए -माहौल है और आज़ादी का मतलब बहुत पता है मग़र वो आज़ादी का लुफ़्त क्यों नहीं है ? अब जलेबियों का ज़ायका भी बदला - बदला सा है । उन भीनी - भिनी खुशबुओं का मिजाज़ भी जुदा - जुदा सा है । वो आज़ादी की खुशबू अब कहीं खोयी सी है । अब वो पुरानी जिद्द क्यों नहीं आती ? क्यों नहीं इंतजार रहता उन बेशक़ीमती खजानों का जो माँ के आँचल के कोर से बंधी चवन्नी ख़रीद लेती थी ?
(राजू दत्ता)✍✍✍
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