बहुत रौशनी है आज इस मुकम्मल जहां में
मगर न जाने वो निगाहें कहां चली गईं
ढूंढ लेती थी हर वो तलाश मन की
मगर जाने वो लोग कहां चले गए ।
चकाचौंध है आंखें इस गहरी रात में भी
मगर न जाने वो टिमटिमाती डिबिया कहां चली गई
देती थी जरूरत भर रौशनी आंखों को
मगर जाने वो शीतल रौशनी कहां चली गई ।
बहुत उजाले हैं आज गहरी रातों में भी
मगर जाने वो रौशनी कहां चली गई
बनते थे काजल उन कलिखों से भी
मगर जाने वो आंखों का नूर कहां चला गया ।
आज सफेद रौशनी की चादर है, न ताप है न धुआं
अब हवा के झोंको से संघर्ष नहीं, बस मन का ताप है
टिमटिमाना , बुझते हुए फिर जलना अब नियति नहीं
अब केवल संताप है , जाने वो ताप कहां चला गया ।
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