Tuesday 18 May 2021

ओवरब्रिज

#ओवरब्रिज

पुराने ओवर ब्रिज से जुड़ी यादों को भला कौन भुला सकता । ऊपर हम और नीचे छुक - छुक चलती रेल को देख लेने का वो बेहतरीन पल हम आजतक नहीं भूल पाए हैं । ठीक ऊपर चढ़कर सायकिल पर बैठ बिना पैडल मारे अपने पैरों को उठाए ठीक बसंत टॉकीज पर हरहरा के पहुंच जाना किसी फॉर्मूला वन के रेस से कोनो कम नहीं था । सायकिल के टायर को ऊपर से नीचे हांकते हुए दौड़ते - दौड़ते हम सीधे बनिया टोला पहुंचकर ही दम साधा करते । लोहे की गोल रिंग को सीक से गोल - गोल चलाते हुए ऊपर से नीचे तूफानी रफ्तार में हम रोज ओलंपिक जीत लेने का सबब रखते थे । बॉल बेयरिंग लगी लकड़ी की गाड़ी को ऊपर ले जाकर उसपर बैठ तूफानी रफ्तार से नीचे आकर अपने हाथ - पैरों से ही ब्रेक लगा हम उन्हीं दिनों फोर व्हीलर का लुफ्त उठा चूके थे । थोड़े बड़े हुए तो रोज शाम को भुट्टा खाने ओवर ब्रिज जा धमकते और चूल्हे की आंच में तपे भुट्टे पर नींबू और नमक का तड़का लिए सबूत हरी मिर्च को हपक - हपक कर खाने का मजा तो हम कटिहार वाले ही ले सकते थे । घंटों ओवर ब्रिज पर यूं ही बेवजह ही वजह ढूंढते फिरा करते हम । कभी चुंबक ढूंढने की कवायद तो कभी नीचे दौड़ती रेल के डब्बे गिनने की होड़ । कभी घंटों रेलवे की वो वाटर टैंक में भरते पानी को देख अपनी दांतों तले उंगिलियों को दबाया करते और बातें किया करते कि पूरी दुनिया में पानी यहीं से जाता है और पानी टंकी अगर टूट गई तो पूरी दुनिया डूब जायेगी । ये सारे अफसाने तो बस ओवर ब्रिज पर ही टिके थे । सूअरों के झुण्डों को नीचे चरते देखना और ऊपर से सरकते हुए उनके पास जाना और फिर भाग खड़ा होना बहुत ही एडवेंचर का काम हुआ करता । यही तो एक चीज हुआ करती थी उन दिनों जहां हम अपने बचपन को अपनी तस्वीर दिया करते और धीरे - धीरे बड़े होते गए । स्टीम इंजन की स्टीम जितने करीब से हमने देख रखा है , शायद ही किसी ने देखा हो । ओवर ब्रिज ने हमारे बचपन और जवानी के सफर के बीच ब्रिज का ही काम नहीं किया बल्कि आज भी उनका वो अद्भुत सौंदर्य हमें अपने उन पुराने दिनों में खींच ले जाता है , जहां हमारी जिंदगी बेवजह ही वजह ढूंढा करती थी।

(राजू दत्ता✍️)

Monday 5 April 2021

सुकून की चाय

एक छोटा गैस सिलेंडर , दो चार काम चलाऊ बर्तन और एक सॉसपेन । बस किचन के नाम पर यही पर्याप्त था । फर्नीचर के नाम पर एक लकड़ी की टेबल और एक कुर्सी । पलंग या चौकी की जरूरत नहीं थी । जमीन पर बिछे गद्दे पर ही गहरी नींद आ जाया करती । एक रेडियो जिसपर गीतमाला चलती रहती और बीबीसी का समाचार । हमने नए दौर में भी पुराने गानों को विरासत की तरह समेटे रखा था । बस उसी सिमटी सी दुनिया में फैली हुई जिंदगी गुलज़ार हुआ करती । बस कुछ ही रुप्पयों में जिंदगी आलीशान सी गुजरा करती थी । कूकर की सीटी के साथ चिकन कड़ी , अंडे का तड़का और फिर पनीर का देशी स्वाद और फिर उसी कूकर में पका चावल । खाना बनने के दौरान टाटा गोल्ड की कड़क चाय सॉसपैन में उबलती हुई अपनी भीनी - भीनी खुशबू छोड़ती हुई हमें महकाया करती । खाना तैयार होते ही न्यूजपेपर बिछाकर पहले लैपटॉप ऑन कर भूले - बिसरे आईएमडीबी रेटिंग 8 से 10 वाले मूवी का झटपट लगाना और ऊपर से दिनभर की भूखी पेट और पूरी तरह चटे हुए दिमाग को शानदार खुराक के साथ बीता हुआ पल कोई मामूली नहीं था । खाना खत्म हो जाता मगर फिल्म चलती रहती और हम अपनी हाथों के साथ - साथ बर्तन को भी चाट - चाटकर साफ और बिल्कुल साफ कर दिया करते । फिर देर रात और टाटा टी गोल्ड का साथ और फिर कंबल ओढ़ के बातों का दौर और फिर गहरी और बहुत गहरी नींद। बिना ज्यादा खर्चों के करकी की जिंदगी भी कितनी सुकून भरी थी । तनख्वाह काफी कम थी , उतनी कम कि रोज की जिंदगी गुलज़ार हो जाया करती और फिर तनख्वाह बढ़ी और फिर सपने बढे । सपनों की जिंदगी में हकीकत के अफसाने खोते चले गए । बरसों का साथ , दोस्तों का हाथ और वो चाय की सॉसपेन अब भी है मगर वो आलम , वो बिना थके रातों का जागरण नहीं रहा । अब रातें उन यादों को लेकर आती है और हम यूं ही उन जलती चाय की खुशबुओं में खुद को डुबोकर फिर वही शाम जी लिया करते हैं । चीजें कम हो तो जिंदगी में बोझ भी शायद कम होते होते हैं और चीजें बढ़ती जाती हैं और बोझ भी । जिंदगी का असली शुरूर हल्का होना ही है और हल्की सी जिंदगी ही बहुत और बहुत ऊंची उड़ा करती है ।

(राजू दत्ता ✍️)

बर्फवाला

बात उन गर्मियों की है जब हम वो लाल - पीली और हरी - नीली आइस्क्रीम के उतने ही दीवाने हुआ करते जितने कि आज चाय के हुआ करते हैं । हल्की मिठास और थोड़ी सी कड़वाहट लिए पिघलती सी आइस्क्रीम से हमारे दिल पिघला करते और हम आइस्क्रीम वाले की घंटियों और डमरूओ की दिल धड़काने वाली आवाज पर सारे बंधन तोड़ उन तपती दुपहरी में निकल पड़ते । पैसे की परवाह किसे थी , बस निकल ही पड़ते । दूध वाली आइस्क्रीम और ऊपर से नारियल के बुरादे मिलकर हमें एक नायाब स्वाद दिया करते वो भी एक चवन्नी में । आइस्क्रीम में थोड़ा नमक डाल हम उसके भीतर के कीटाणुओं को खुली आंखों से देख लेने का हुनर रखते थे । आइस्क्रीम को चूसते हुए उसके ऊपर सिक्के रखकर उसकी छपाई देखकर हम जो मजे लिया करते वैसा कोई दूसरा मजा आजतक नहीं मिला । कभी - कभार आइस्क्रीम को गमछे के बीच रखकर थकोचकर उसका गोला भी बना लिया करते । आइस्क्रीम खाने के बाद उसकी बची हुई बांस की डनठी को जमा कर हम बांस की दीवारें यानी टट्टी बनाया करते। सबसे खास बात ये थी कि हम आइस्क्रीम के पैसे जुगारने में माहिर हुआ करते । उन दिनों घर में शायद ही कबाड़ हुआ करते जिसे बेच हम आइस्क्रीम ले पाते । हम कौवे के घोंसले ढूंढा करते जिसमें अक्सर लोहे के तार , चम्मच और भी कुछ न कुछ हमारे काम की चीजें मिल ही जाया करती । काम बड़े हुनर और हिम्मत का हुआ करता । कौवे के झुण्डों और उसकी चोंच यानी लोल का सामना करते हुए घोंसले पर हाथ साफ कर लेना आसान नहीं था । काम तो यह ठीक नहीं था मगर यही काम ही था हमारा ।बर्फ खाकर किसकी जीभ कितनी लाल हुई यह देखकर ही विजेता का चुनाव हो जाया करता । बर्फ खाने के बाद पानी का अजीब स्वाद हमें एक नया खेल दे जाता । सुना है अब बर्फ वो रंग नहीं दे पाता । वो रंगीन बर्फ अब आइस्क्रीम पार्लरों में कैद होकर नए रंग में रंग चुकी है जो हमारी जीभ को रंगती नहीं । अब बर्फ सिर्फ खाया जाता है और वो खेल बंद है । वो दूध वाली आइस्क्रीम और नारियल के बुरादे अब नहीं मिलते । अब कौवों के घोंसले भी कहां दिखते हैं । अब तो घरों में कबाड़ भी काफ़ी होते हैं मगर वो डमरू बजाता हुआ बर्फवाला नहीं आता । बर्फवाले की घंटी अब बजती नहीं । बस दूर कहीं एक डमरू की डमडम और घंटी की टनटन बजती सी महसूस हुआ करती है । बात आज की गर्मियों की अब बदल चुकी है ।

(राजू दत्ता✍️)

Sunday 21 March 2021

पुराना मकान

ठिकाने तमाम हों राहें जिंदगी में
सुकूं जिंदगी को मिलता है पुराने मकान में ।

रातें हुआ नहीं करती शहरों में
अच्छी नींद तो बस आती है गांव के बागान में।

भीड़ तमाम होती शहरों की दुकान में
अपने तो बस मिलते हैं पुराने मकान में ।

लाख ठंडे हो कमरे आलीशान
देते हैं सुकून पुराने ही मकान ।

ठिकाने तमाम हों राहें जिंदगी में
सुकूं जिंदगी को मिलता है पुराने मकान में ।

Friday 19 March 2021

बुझे हुए पटाखे

बुझे हुए पटाखे 
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काली पूजा ही हमारे यहां दीपावली हुआ करती है । दुर्गा पूजा के ठीक २०वें दिन । दुर्गा पूजा पर मिले नए कपड़ों को दुबारा सहेजकर काली पूजा के लिए रख दिया जाता था । विजयादशमी का दिन हमारे लिए काफी खुशनुमा भी हुआ करता और उदासी लिए भी । खुशनुमा इसलिए कि उसी दिन बड़ों के पैर छूने पर पगड़ी यानी मेले घूमने के पैसे मिला करते और उदासी इसलिए कि मेला अब खत्म । दसों दिन खाली जेब मेला घूमने के बाद दशमी में कुछ नए सिक्कों की खन - खनाहट से हमारे चेहरे पर जो रौनक होती उसी की चकाचौंध से मेले गुलज़ार हुआ करते थे । दशमी के दिन नारियल के लड्डू और गुड़ वाली खोई  का नायाब स्वाद वो भी नए सिक्कों के भारीपन लिए हमारे लिए एक सल्तनत के सरदार होने जैसा हुआ करता । खैर दशमी की जादू भरी रात पलकों में बीत जाती और मेला सिमटने के कगार पर हुआ करता । 

अब हमें रौशनी के पर्व काली पूजा का बेसब्री का इंतजार हुआ करता । सच तो यही है कि हमें पूजा से ज्यादा बारूद की वो गमगमाती गंध लेने का ज्यादा ही इंतजार रहता । पटाखों में पैसे खर्च करने का हौसला उन दिनों बहुत ही कम लोगों को था । फिर भी बारूद की गंध जरूरी थी त्योहार को रंगीन करने के लिए । उन दिनों एक पैकेट नागिन छाप ही हमारे लिए बोनांजा पैकेज हो जाया करता था और हम करीने से एक - एक लड़ियां छुड़ा - छुड़ा कर पटाखे अलग किया करते ताकि पलीती न निकल जाए । एक - एक पटाखा हमारे लिए हीरे से भी कीमती हुआ करता । लंबी सी संठी के मुंह के सिरे पर पटाखा फंसाकर डिबिया की लौ से पटाखा फोड़ लेने का हुनर हमें बखूबी था । छुड़छुड़ी , रस्सी, अनार , लौकी , हाइड्रो बम , रेल , रॉकेट, बुलेट न जाने कितने तरह के साजों समान हुआ करते मगर नागिन की लड़ी ही हमारे खजाने का नूर हुआ करती । सांप तो हम रोजाना बनाया करते । एक काली से टेबलेट को जलाकर पूरा सांप निकाल लेना सपेरों को भी नहीं आता था जितना कि हमें । दुर्गा पूजा के खत्म होते ही हम कैंडल बनाने का काम शुरू कर देते । हम जिस कैंडल की बात कर रहे वो मोमबत्ती वाली नहीं बल्कि बांस की बत्ती के शानदार ढांचे पर रंगीन पन्नी और कागज़ की नक्काशी की कर रहे । बत्तीस काठी , चौसठ काठी , चांद , तारा , दिल , जहाज और भी न जाने कितने ही डिज़ाइन के । शाहिद चौक और बनिया टोला चौक पर ऐसे कैंडल की दुकानें सजा करती और हम भी एक कुशल व्यापारी की तरह कुछ सिक्के कमा लिया करते । ये सिक्के पटाखों पर खर्च के लिए कतई नहीं हुआ करते । हमारे दिमाग में यह बात बैठा दी गई थी कि पटखों को जलाने का मतलब पैसा ही जलाना है और शायद इसलिए हम औरों के बुझे हुए पटाखों से बारूद निकलकर उसका प्रयोग किया करते । अधजले और बुझे हुए पटाखे ढूंढना हमारे लिए अलीबाबा के ख़ज़ाने ढूंढने से कम नहीं था । काफ़ी दुष्कर कार्य हुआ करता था । बड़ों की नजरों में आए बिना सड़कों से पटाखे हल्के पांव में चुपके से दबाते हुए उठा लेना काफी हुनर का काम था । हमें बेइज्जती की फिकर नहीं थी । फिकर थी बस पिटे जाने और शिद्दत से चुने सारे पटाखे छीनकर फेंके जाने की । ख़ैर , हम किसी तरह अपना असला तैयार कर ही लिया करते । काली पूजा की देर रात से लेकर तड़के सुबह उठकर सारे बुझे हुए पटाखे हम चुन ही लिया करते और सात ही में अधजली मोमबत्तियां भी जिसे हम गला - गलाकर अलग - अलग रूप दे दिया करते । बुझे हुए पटाखे का बारीकी से परीक्षण कर हम अलग - अलग कर लेते । जिसमें कुछ भी जान बची होती उसे धूप में सुखाकर फोड़ने का प्रयास करते और बाकियों का बारूद निकलकर या तो बड़ा बम बना लिया करते या बारूद को ही सावधानी से सुलगाकर उसका अद्भुत रूप और गंध को महसूस करते । हम अकेले नहीं होते थे , पूरी की पूरी पलटन साथ हुआ करती । रातभर ओस में भींगे बुझे हुए पटाखे को जिंदा कर लेना हमें बखूबी आता था । अक्सर बारूद हमारी आंखों को अंधेर कर दिया करती मगर उसका एक अलग ही नायब अनुभव था जो बडे़ लोगों को तो कभी मयस्सर भी नहीं हुआ । हम पटाखे भले भी बुझे हुए इस्तेमाल किया करते मगर हम खुद तरोताज हुआ करते थे ।

कहते हैं दिवाली पैसे वालों की होती है मगर सच तो यही है कि दिवाली का दीया तो हमारे दिलों में बिना सिक्कों की खनक के ही बखूबी जला करता जिनकी रौशनी हमारे दिलों से निकलकर पूरे मुहल्ले को जगमगाया करती और शमां गुलज़ार हुआ करती ।
__________________________________________(राजू दत्ता ✍️)

Saturday 27 February 2021

जगह

जगह
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हम किस चीज को कितनी अहमियत देते हैं यह इस बात से जाहिर हो जाता है कि उसे हमने कौन सा स्थान दिया है । मसलन आज जूते और सैंडल जगमगाते शोरूम में सजे मिलते हैं । बड़े ही सहेजकर रखे जाते हैं । उसकी चमक फीकी न पड़ जाए इसका मुकम्मल हिसाब रखा जाता है । बहुत अच्छी बात है कि हम चीजों को संभाल कर करीने से रखते हुए उसका सम्मान करते हैं । आजकल ब्रांड का सम्मान आदमी से ज्यादा हो चुका है । ब्रांडेड पहनावे से आदमी का कद नाप लिया जाता है । आदमी के अंदर कौन सा ब्रांड है , इसका न तो कोई आकलन करता है और न ही इसकी फुरसत है लोगों को । बस आप ब्रांडेड लबादों से सजे हों और चाल - ढाल ब्रांडेड जैसे हो तो आपका आकलन आसानी से बिना प्रयास के ही हो जाता है । अब चीजें बोला करती हैं और आदमी चुप है । ख़ैर , जिंदगी के मायने और दिलों के अफसाने समय के साथ बदलते हैं और आगे भी बदलते रहेंगे । कभी - कभी बदलाव का चक्र हमें व्यथित करता है मगर इस व्यथा का कोई इलाज़ नहीं होता । हम बात जूतों की ही कर लें । जूतों का सम्मान अब बहुत बढ़ चुका है  । शोरूम से निकलकर जूते अब बेडरूम तक अपनी चमक लिए सजे मिलते हैं । ब्रांड कहीं भी , कभी भी बेरोक टोक आ जा सकता है । पहले जूतों को इतना सम्मान नहीं मिलता था । उसकी जगह आंगन की डेहरी तक ही हुआ करता था । समय के साथ जूतों ने आदमी के दिमाग पर फतह पा ली और आज खुद आजाद है । अब जूते मायने रखा करते हैं । दूसरी तरफ आजकल किताबें सड़कों पर बिछी दिख जाना आम सी बात हो गई है । किताबों ने अपनी पकड़ खो दी है । किताबें ने समय के साथ संघर्ष में हार सी मान ली है । लोगों ने किताबों की जगह बदल डाली है । हां , यह सही है कि आज भी किताबें भी अपनी चमक - धमक लिए शोरूम से लेकर बेडरूम तक जगह बनाए हुए है मगर काफी संघर्ष करते हुए । ऐसे लोगों की संख्या अब कम सी होती जा रही है । कुछ किताबें होनी चाहिए मगर बस दिखाने के लिए । बुकसेल्फ अब सजावट का साज सा बनता जा रहा । सड़कों पर बिछे किताबों और शोरूम में टंगे जूतों को देखकर अजीब से कश्मकश में पड़ जाते हैं मगर सच तो यही है । धार्मिक ग्रंथ से लेकर अमर साहित्य सब के सब सड़कों पर बिछे बिकते मिल जाया करते अब । हमने चीजों की जगह बदल दी हैं अपनी जरूरतों के हिसाब से । ये बदलाव अब नया बदलाब लाने की दिशा में अग्रसर है । अब किताबों में जिल्द लगाने का जमाना चला गया है और मोबाईल स्क्रीन पर स्क्रीन गार्ड लगाने का जमाना है । अब जूतों को चमकाया जाता है और किताबों की फीकी पड़ती चमक को नजरंदाज किया जाता है । अब किताबें पढ़ी कम और पॉडकास्ट पर सुनी ज्यादा जाने लगीं हैं । किताबें अपनी जगह बदल रही है और आदमी भी और ये कहना ज्यादा सही होगा कि आदमी अपनी जगह बदल रहा है और इसलिए चीजें भी जगह बदल रही हैं । जरा सोचिए हम किसे और कौन सी जगह देते हैं और सही चीजों की जगह ही हमें सही दशा और दिशा दे सकती है । समय अब भी शेष है । जगह बदलिए ।
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(राजू दत्ता✍🏻 )