Monday 5 April 2021

सुकून की चाय

एक छोटा गैस सिलेंडर , दो चार काम चलाऊ बर्तन और एक सॉसपेन । बस किचन के नाम पर यही पर्याप्त था । फर्नीचर के नाम पर एक लकड़ी की टेबल और एक कुर्सी । पलंग या चौकी की जरूरत नहीं थी । जमीन पर बिछे गद्दे पर ही गहरी नींद आ जाया करती । एक रेडियो जिसपर गीतमाला चलती रहती और बीबीसी का समाचार । हमने नए दौर में भी पुराने गानों को विरासत की तरह समेटे रखा था । बस उसी सिमटी सी दुनिया में फैली हुई जिंदगी गुलज़ार हुआ करती । बस कुछ ही रुप्पयों में जिंदगी आलीशान सी गुजरा करती थी । कूकर की सीटी के साथ चिकन कड़ी , अंडे का तड़का और फिर पनीर का देशी स्वाद और फिर उसी कूकर में पका चावल । खाना बनने के दौरान टाटा गोल्ड की कड़क चाय सॉसपैन में उबलती हुई अपनी भीनी - भीनी खुशबू छोड़ती हुई हमें महकाया करती । खाना तैयार होते ही न्यूजपेपर बिछाकर पहले लैपटॉप ऑन कर भूले - बिसरे आईएमडीबी रेटिंग 8 से 10 वाले मूवी का झटपट लगाना और ऊपर से दिनभर की भूखी पेट और पूरी तरह चटे हुए दिमाग को शानदार खुराक के साथ बीता हुआ पल कोई मामूली नहीं था । खाना खत्म हो जाता मगर फिल्म चलती रहती और हम अपनी हाथों के साथ - साथ बर्तन को भी चाट - चाटकर साफ और बिल्कुल साफ कर दिया करते । फिर देर रात और टाटा टी गोल्ड का साथ और फिर कंबल ओढ़ के बातों का दौर और फिर गहरी और बहुत गहरी नींद। बिना ज्यादा खर्चों के करकी की जिंदगी भी कितनी सुकून भरी थी । तनख्वाह काफी कम थी , उतनी कम कि रोज की जिंदगी गुलज़ार हो जाया करती और फिर तनख्वाह बढ़ी और फिर सपने बढे । सपनों की जिंदगी में हकीकत के अफसाने खोते चले गए । बरसों का साथ , दोस्तों का हाथ और वो चाय की सॉसपेन अब भी है मगर वो आलम , वो बिना थके रातों का जागरण नहीं रहा । अब रातें उन यादों को लेकर आती है और हम यूं ही उन जलती चाय की खुशबुओं में खुद को डुबोकर फिर वही शाम जी लिया करते हैं । चीजें कम हो तो जिंदगी में बोझ भी शायद कम होते होते हैं और चीजें बढ़ती जाती हैं और बोझ भी । जिंदगी का असली शुरूर हल्का होना ही है और हल्की सी जिंदगी ही बहुत और बहुत ऊंची उड़ा करती है ।

(राजू दत्ता ✍️)

बर्फवाला

बात उन गर्मियों की है जब हम वो लाल - पीली और हरी - नीली आइस्क्रीम के उतने ही दीवाने हुआ करते जितने कि आज चाय के हुआ करते हैं । हल्की मिठास और थोड़ी सी कड़वाहट लिए पिघलती सी आइस्क्रीम से हमारे दिल पिघला करते और हम आइस्क्रीम वाले की घंटियों और डमरूओ की दिल धड़काने वाली आवाज पर सारे बंधन तोड़ उन तपती दुपहरी में निकल पड़ते । पैसे की परवाह किसे थी , बस निकल ही पड़ते । दूध वाली आइस्क्रीम और ऊपर से नारियल के बुरादे मिलकर हमें एक नायाब स्वाद दिया करते वो भी एक चवन्नी में । आइस्क्रीम में थोड़ा नमक डाल हम उसके भीतर के कीटाणुओं को खुली आंखों से देख लेने का हुनर रखते थे । आइस्क्रीम को चूसते हुए उसके ऊपर सिक्के रखकर उसकी छपाई देखकर हम जो मजे लिया करते वैसा कोई दूसरा मजा आजतक नहीं मिला । कभी - कभार आइस्क्रीम को गमछे के बीच रखकर थकोचकर उसका गोला भी बना लिया करते । आइस्क्रीम खाने के बाद उसकी बची हुई बांस की डनठी को जमा कर हम बांस की दीवारें यानी टट्टी बनाया करते। सबसे खास बात ये थी कि हम आइस्क्रीम के पैसे जुगारने में माहिर हुआ करते । उन दिनों घर में शायद ही कबाड़ हुआ करते जिसे बेच हम आइस्क्रीम ले पाते । हम कौवे के घोंसले ढूंढा करते जिसमें अक्सर लोहे के तार , चम्मच और भी कुछ न कुछ हमारे काम की चीजें मिल ही जाया करती । काम बड़े हुनर और हिम्मत का हुआ करता । कौवे के झुण्डों और उसकी चोंच यानी लोल का सामना करते हुए घोंसले पर हाथ साफ कर लेना आसान नहीं था । काम तो यह ठीक नहीं था मगर यही काम ही था हमारा ।बर्फ खाकर किसकी जीभ कितनी लाल हुई यह देखकर ही विजेता का चुनाव हो जाया करता । बर्फ खाने के बाद पानी का अजीब स्वाद हमें एक नया खेल दे जाता । सुना है अब बर्फ वो रंग नहीं दे पाता । वो रंगीन बर्फ अब आइस्क्रीम पार्लरों में कैद होकर नए रंग में रंग चुकी है जो हमारी जीभ को रंगती नहीं । अब बर्फ सिर्फ खाया जाता है और वो खेल बंद है । वो दूध वाली आइस्क्रीम और नारियल के बुरादे अब नहीं मिलते । अब कौवों के घोंसले भी कहां दिखते हैं । अब तो घरों में कबाड़ भी काफ़ी होते हैं मगर वो डमरू बजाता हुआ बर्फवाला नहीं आता । बर्फवाले की घंटी अब बजती नहीं । बस दूर कहीं एक डमरू की डमडम और घंटी की टनटन बजती सी महसूस हुआ करती है । बात आज की गर्मियों की अब बदल चुकी है ।

(राजू दत्ता✍️)