Monday 28 September 2020

किस्सा आम का


किस्सा आम का
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आम का बड़प्पड़ तो उसके नाम से ही झलक जाता है। इतना खास होकर भी नाम है " आम”। आम की लकड़ी , आम और आम का पल्लव ये तीन तत्व कोई आम तत्व नहीं । इसने हमारे जीवन तत्व को अपना तत्व देकर हमें आज भी जीवंत रखा है । हे आम ! तुम्हे बारम्बार नमन है ! आम ने हमारे बचपन के जादुई दुनिया में एक अहम किरदार निभाया है जिसकी शानदार यादें आज भी हमें स्वप्न लोक की सैर करवा ही दिया करती है। सारे जहाँ की बेशकीमती दौलत एक तरफ और एक बालक के हाथ में एक पका आम एक तरफ ।  कोई तुलना नहीं , कोई उपाय नहीं । इतनी शानदार चीज और बातें गुजरे ज़माने की न हो तो बेमानी होगी ।  कमोबेश हर किसी ने एक ही जिंदगी जी रखी है मगर रंग अलग - अलग से रहे होंगे । बातें हमारे बचपन और आम की भी उतनी ही खास है ।

हम उस ज़माने के पुराने पके हुए चावल हैं जो अपने छुटकपन में ही महज आम के टिकोले की गुठली हाथ में लेकर गुठली से ही पूछ लिया करते कि किसकी शादी किधर होगी और फिर इत्मीनान से पूरे मजे लेकर टिकोले को काले नमक और लाल सुखी मिर्च के बुरादे के साथ चटकारे ले लेकर यूँ ही मस्ती में धीरे - धीरे खा लिया करते । उन दिनों आम के मौसम आते ही काले पाचक कि छोटी सी बोतल में काला नमक और लाल सूखी मिर्च के बुरादे हम ठूंस - ठूंस कर पहले ही भर लिया करते और हमारी हाफ पैंट की जेब में वो बोतल पुरे समय साथ हुआ करता ।  हम आम की गुठलियों के बाजे बनाकर भी मस्ती से उसकी पॉपी बजा - बजाकर यूँ ही रोज जश्न मना लिया करते । हमने आम के आम और गुठलियों के दाम वसूल कर रखे थे। कहावत हमारे बाद ही आयी थी ।
 
हम उस पीढ़ी से हैं जो आम के पाचक खाना पचने के लिए नहीं बल्कि पेट भरने के लिए भरपेट खा लिया करते और फिर उसे पचने के लिए फिर वही पाचक दूसरों से मांग खाया करते थे।  आम - पापड़ को हम चबाने के घंटों बाद भी अपनी दांत में फंसे टुकड़े को समय - समय पर खोदकर उसका क़तरा- क़तरा चूस लिया करते।

आम का अचार , आम की चटनी ,आम का मुरब्बा , आम का गुरम्मा , कच्चा आम , पक्का आम , पिलपिला आम , अलबेला आम , मैंगो मस्ती ,आम - रोटी , चूरा - आम  कुल मिलाकर हमारा बचपन आम के इर्द - गिर्द ही घूमकर आम सा हुआ करता था।  हर कोई आम था , कोई खास न हुआ करता था।

गर्मियों की छुट्टियों का पर्याय आम खाने से ही हुआ करता और नानी के घर आम खाने का प्रयोजन ही पूरे साल का एकमात्र प्रयोजन हुआ करता था । आम ने सबको बड़े ही खास तरीके से जोड़ रखा था और जोड़ काफी मजबूत हुआ करती थी ।
 
आम खा - खाकर हमने अपने शरीर और चेहरे विशेषकर अपने माथे पर बड़े - से - बड़े फोड़े बना डालने का विश्व - कीर्तिमान रच रखा था । पके आम को काटकर खाने में हमें उतना यकीं नहीं था जितना कि उसे  नीचे की तरफ दांत से काटकर छेदकर चूस -चूसकर उसका क़तरा - क़तरा पी जाने में था। बस आँखें बंद कर आम चूसते हुए हम जन्नत कि सैर कर आया करते । गुठलियों को चूस -चूसकर कौन कितना साफ़ कर सकता है इसकी प्रतियोगिता तो आम बात हुआ करती थी । आम के बोटे को चूसकर गले में खुसखुसी होने कि ख़ुशी छिपाये नहीं छिपा करती थी । कच्चे आमों कि ढेर में से थोड़ा पका आम ढूंढ लेने की कवायद दिनभर चला करती । आम कि गर्मी भले ही पेट बिगड़ दिया करती मगर जो शीतलता मन को मिलती उसका कोई जोड़ - तोड़ न था ।  आम कि सड़ी हुई गुठलियों को जलाकर पाचक बना लेने का हुनर हममें जन्मजात हुआ करता था । गुठलियों से उगे पेड़ का नामकरण और उसके मालिकाना हक़ के लिए होने वाले संघर्ष अक्सर हमारे लिए दोपहर को निकलने वाले सारे दरवाजे बंद करवा दिया करता ।  मगर फिर भी किसी -न -किसी चोर रस्ते का इल्म हमें हो ही जाता और हम निकल जाया करते अपनी सल्तनत कि सरजमीं पर ।

पूरा आम अक्सर हमें मयस्सर नहीं हुआ करता तो एक ही आम को तीन भागों में बांटकर सबको दिया जाता ।  गुठली वाला भाग हमें ज्यादा प्रिय हुआ करता तो जोर भी उसी पर हुआ करता । गुठली से विशेष लगाव का कारण यह था कि गुठली कभी न ख़त्म होने वाली एक लम्बी दास्ताँ  हुआ करती थी । आनंद का वो पल जितना भी लम्बा खिंच पाए , हम उससे भी कही ज्याद खींच लिया करते ।

आम फलों का राजा यूँ ही नहीं है ।  यह सबके दिलो - दिमाग पर राज करता है ।  हमारे लिए तो आम का मतलब आम नहीं बल्कि खास हुआ करता । हल्का कचहरी और मिस्टर बाबू के आम के बगीचे से आम चुराते हुए पकडे जाने पर बहुत अच्छी तरह से सेंकाई होने के बावजूद आम का मोह हर उस दर्द और अपमान को भुला देने को बेबस कर दिया करता था । हलके कचहरी के प्रांगण में आज भी आम का वो पेड़ खड़ा हमारी बाट जोहता दिख जाया करता है । आज बहुत ही काम ऐसे बच्चे हैं जो गुठलियां चूसना और आम चूसन पसंद करते हों ।  कपडे और देह  गंदे हो जाने के अनावश्यक भय ने वो आत्मीय सम्बन्ध को लगभग खो सा दिया है ।  हम तो कपडे के साथ - साथ सर से पैर तक आम -मय हो जाया करते थे ।

हमने तो अपने बचपन की अंग्रजी भी " राम आम खाता  है " से शुरू की और पेंटिंग भी हम सालों आम की ही करते आए और आम ही होकर रह गए ।  खास की कोई चाहत भी न थी । हम तो आम से शुरू होकर आम तक ही सिमटे रहे और गुठलियों से ही वफ़ा निभाते रहे और गीत भी आम के ही गुनगुनाते रहे । आम हमारे लिए केवल मात्र एक फल नहीं बल्कि एक ऐसा जादुई करिश्मा हुआ करता जिसके इंद्रजाल में हमारे बचपन  ने न जाने कितने ही ताने - बाने रच डाले थे। आम आज भी वही है मगर अब बचपन भी आम से आगे निकलकर खास हो चूका है जहाँ आम का वो अद्भुत सौंदर्य आधुनिक साजो सामान की चकाचौंध में मानो छिप सा गया है । अब गर्मियों कि छुट्टियां नहीं बस समर वेकेशन हुआ करता है और समर कैंप लगा करते हैं जहाँ मैंगो सेक बिना गुठली के सीधे आपकी पेट में जा पहुँचता है । आम अब पीस - पीस होकर कांटे वाले चम्मच से भोंककर खाया जाता है ताकि हाथ न मैले हो भले ही दिल कितना ही मैला क्यों न हो । आम केवल आम बनकर रह गया है अब । हमारे समय में आम , आम नहीं , खास हुआ करता जिसकी खासियत की शीतल  छांव में असीम आनंद के पल हम बिताया करते ।
__________________________________________[राजू दत्ता✍🏻]

Sunday 27 September 2020

कटिहार टॉकीज

कटिहार टॉकीज

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साढ़े तीस लाख से ऊपर लोगों को अपने में समेटे जिला कटिहार एक हंसता - खेलता और हमेशा गमगमाने वाला जिला रहा है । आपदा हो तो त्रासदी , इस जिले को कोई फर्क नहीं पड़ता । सबकुछ झेल लेने का सामर्थ्य लिए यह शहर सदा ही मुस्कुराया है । ऐसे मुस्कुराने की तो हजार वजहें हो सकती हैं , लेकिन यहां चार वजह साफ - साफ खड़ी दिख जाया करती थी । आप सोच रहे होंगे कि भला वो चार वजह क्या हो सकती है और भला उनमें ऐसा कौन सा हुनर है जो पूरे तीस लाख को मुस्कुराने का सबब दे जाता है ! जी हां , इन चार वजहों ने कई दशकों से पूरे जिले को महज मुस्कुराहट ही नहीं , तालियों की गरगराहट , सीटियों की सनसनाहट और ठुमकों की ठुमकाहट से भी बखूबी नवाजे रखा है । औरों के लिए ये चार वजह महज ईंट - गारे का बना ढांचा मात्र होगा , हमारे लिए तो ये जिंदा आदमी से ज्यादा जिंदा हुआ करते थे । ये चारों ठीक बिन ब्याहे उस चाचा की तरह थे जिसने हमें अपनी पीठ पर चढ़ा - चढ़ाकर किस्सागोई भी करवाई और साथ में चिनिया बादाम का देशी ठोंगा भी हमारे हाथों में थमाया था । जी हां , ये चारों बिन ब्याह चाचा की ही तरह तो थे जिसका भरपूर इस्तेमाल हम सबने बराबर किया है और बदले में उसे मिला भी तो जर्जर शरीर और वक़्त के थपेड़े ।

उन दिनों फिल्में देखना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी । अवयस्क लड़कों का फिल्म देखना उसकी बर्बादी के सारे रास्तों का खुल जाना माना जाता था । फिलमचियों को तो अव्वल दर्जे का आवारा और हाथ से निकला लड़का समझा जाता था । जी हां , ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की ही बात हो रही है । रंगीन फिल्मों की बात तो बिल्कुल ही बेमानी होगी । जिसे रंगीन फिल्म देखते पकड़ा जाता उसे बेरंग मानकर कुल के नाशक की उपाधि दे दी जाती और वह नक्सली हो जाने को बाध्य हो जाता । मॉर्निंग शो केवल बुड्ढों के लिए ही आरक्षित जान पड़ता था । जवान और वयस्क लोग दूसरे जिले में जाकर ही इसका लुफ्त उठा पाते और यह मौका केवल किसी की बारात में ही जाने पर मिला करता । उन दिनों जिला पार करना उठना ही दुर्गम था जितना आज बिना वीजा के अमेरिका जाना । इतनी जद्दोजहद के बाद भी क्या लुफ्त मिलता था यह तो गुप्त ही रहे तो उचित होगा या फिर गूंगे का गुड़ ही रहे तो ठीक है ।

इस शानदार जिले ने हमें कुल चार ही तो सिनेमा हॉल का नायाब तोहफा दे रखा था जिसे हम मुस्कुराने की चार वजह कह रहे हैं । इसे चार हॉल नहीं बल्कि इसे शहर के उत्सव की चार स्तंभ कहें तो ज्यादा उचित होगा । हां, फिल्म देखना किसी उत्सव से काम तो नहीं हुआ करता था उन दिनों । रोमांच और कौतूहल भरा उत्सव! ये चार सिनेमा हॉल हमारे लिए चारों धाम ही हुआ करता था जिसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की अनुभूति हो जाया करती थी ।

अगर बात रैंकिंग की की जाए तो पहला स्थान " बसंत टॉकीज " का हमेशा रहा है । इसकी लोकेशन और फिल्मों का चयन इसकी रैंकिंग को बनाए रखने में काफी हद तक जिम्मेदार था । थाने के पास की लोकेशन इसकी सुरक्षित होने का अहसास दिला ही दिया करती थी । ये बात अलग है कि टिकटों की ब्लैकिंग भले ही खुलेआम थी फिर भी थाने का होना ही सुरक्षा की गारंटी थी । शायद यही कारण था कि सबसे साभ्रांत सिनेमा हाल का दर्जा इसने बिना किसी प्रयास के ले रखा था । शहीद चौक पर गर्व से खड़े इस सिनेमा हॉल ने इस शहर को जितनी खुशी और हर्षोल्लास दी है , शायद ही किसी और चीज ने दी होगी । यह सिनेमा हॉल अकेले नहीं खड़ा था । इसने न जाने कितने ऐसे दुकानों को अपनी छाव में पोषित किया था जिसकी वजह से न जाने कितने ही घरों की रोटियां सेंकी जाती थीं । झालमुढ़ी वाला , चिनिया बादाम वाला , घुप चुप वाला , समोसे वाला , चाट वाला , पान - बीड़ी - सिगरेट वाला और भी न जाने क्या - क्या वाले इसकी ही छाव में अपनी जिंदगी गुजर - बसर किया करते थे ।

उन दिनों सिनेमा ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था । शायद ही ऐसा कोई नवविवाहित जोड़ा रहा होगा जिसने बसंत टॉकिज की बालकनी वाली सीट पर अपने उन यादगार लम्हों को नहीं जीया होगा और फिल्म के बाद बसंत टॉकीज की ही गली में सागर रेस्त्रां में शानदार चाट - पकौड़े के जायके का लुफ्त ना उठाया हो । ससुरालियों को सुख देने का बस एक ही उपाय उन दिनों था कि उन्हें बसंत टॉकीज में फिल्म दिखाकर चाट खिला दी जाए और हाफ टाइम में चिनिया बादाम काले नमक के साथ और कोका - कोला और फैंटा पिला दी जाए । इससे ज्यादा वीआईपी इज्ज़त उन दिनों नहीं दी जा सकती थी । कोका कोला और फैंटा वाला न जाने किस हुनर से हाफ टाइम में किर्र - किर्र बोतलें बजाकर घूमता रहता और फिल्म खत्म होने पर करिश्माई तरीके से बोतल वापस ले जाता यह आज भी विस्मित कर देता है और वही आवाज कानों में गूंजती सी रहती है । अब न वो हुनर है और ना ही हम जैसे हुनर के दीवाने ।खास तरह के लिट्टी और चाट की दुकानों में मौजूद जायका और बसंत टॉकीज में बैठकर फिल्मों का लुफ्त किसी भी स्वर्गिक आनंद से कम न था और यह शानदार स्वर्ग - सुख हम सबने यहीं जिंदा ले रखा था ।

अब भी अपनी सांसों में उस हॉल की खुशबू और कानों में वही धमक बरकरार है । आज भी सीटियों की सनसनाहट जेहन में एक तरंग छोड़ जाती है । पूरे जिले में ऐसा भला कौन होगा जिसकी यादें बसंत टॉकीज से ना जुड़ी हों!  बसंत टॉकीज ने हम कटिहार वासियों को जो प्यार , जो खुशी और जो जश्न - ए - माहौल दिया है उसका ऋण चुकाए नहीं चुक सकता । उन अंधेरे दिनों में जो रोशनी इस हॉल ने हमें दिया है उसके सामने आज के आलीशान मल्टिप्लेक्स भी फिके पड़ जाते हैं । बसंत टॉकीज महज एक हॉल नहीं रहा है बल्कि एक विशाल व्यक्तित्व रहा है जिसकी छाव में पूरे शहर ने अनगिनत सुकून और आनंद के पल बिताए हैं । जिसने पूरे शहर को इतनी खुशियां बांटी , आज खुद वीरान पड़ा है । कारण चाहे जो भी हो , एक शानदार विरासत जिनकी छाव में पूरा शहर जिंदा हुआ करता था , आज खामोशी से अपने अंत के इंतजार में निशब्द खड़ा है । काश!  इस ऐतिहासिक विरासत को हम सहेजकर रख पाने का सामर्थ्य रख पाते!

बात अब दूसरे रैंकिंग की की जाय तो उसमे आता है - " श्यामा टॉकीज " । इसी हॉल के नाम पर आज भी वो पुरानी सड़क उन पुराने दिनों की याद दिलाया करती है । बसंत टॉकीज और श्यामा टॉकीज के बीच काफी कम दूरी है और अक्सर नई फिल्में यहीं उतरा करती । अपनी शान - ओ - शौकत में यह किसी भी तरह बसंत टॉकीज से कम नहीं था । इसके बडे पर्दे पर डिजिटल डॉल्बी के शानदार साउंड की धमक और ढिसुम - ढिसुम का मजा पूरे शहर ने बराबर लिया है । हॉल के ठीक सामने मिठाइयों और समोसे की दुकानें देर रात तक सजी होती मगर चिनिया बादाम की जगह कोई नहीं ले पाया । तिसी तेल में छने पापड़ का स्वाद भी उन दिनों फिल्मों पर अपना जायका जमाए हुए था । पापड़ खाते हुए फिल्म देखने के लिए काफी पापड़ बेलने होते थे । इसी टॉकीज से बिल्कुल ठीक सटे चाय की दुकान का लिकर वाली चाय का बेमिसाल जायका हमें और कहीं मयस्सर नहीं हुआ । इसकी गली में आगे जाकर जलेबियों और समोसे की दुकान का वो जायका आज भी मुंह में पानी ला देने का सामर्थ्य रखता है और हम अचानक से फिर से उन्हीं दिनों में बरबस ही चले जाने को बाध्य हो जाया करते हैं । क्या अद्भुत सामंजस्य हुआ करता था । कितनी चीजें जुड़ी हुआ करती थी एक ही चीज से । एक शानदार ताना - बाना रचा - बसा हुआ करता था उन दिनों । सिनेमा हॉल महज एक हॉल नहीं बल्कि अपने आप में एक भरा - पूरा परिवार हुआ करता जहां खुशियां यूं ही बंटा करती । पूरे शहर को जोड़कर रखने वाले इस हॉल को न जाने किसकी नजर लगी कि अपनों की ही बेवफ़ाई ने इस हॉल को जिंदा ही मुर्दा कर दिया । यहां तक कि इसकी तस्वीर भी गूगल करने पर भी कहीं नजर नहीं आती आज के इस डिजिटल जमाने में । पूरे कटिहार को अमूल्य सेवा देकर भी उपेक्षित होकर आज यह निशब्द अपने भाग्य पर आंसू बहा रहा है । सामने गुजरते हुए अपनी आंखें इस विशाल व्यक्तित्व से न मिला पाने का दर्द लिए चुप - चाप गुजर जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं रह जाता ।

अब बात तीसरे रैंकिंग वाली प्रकाश टॉकीज की की जाए तो न्यू मार्केट के ठीक बीचों बीच गर्व से खड़े इस शानदार हॉल के पास सबसे ज्यादा लोगों को एक साथ अपनी गोद में लिए सम्पूर्ण सुख देने का सामर्थ्य था । नई फिल्म क्या लगती , पूरे का पूरा हॉल दुल्हन की तरह सज उठता । लंबे - चौड़े कैंपस में एक मेला सा लग जाया करता था । इस हॉल की अपनी एक भव्यता थी । मॉर्निंग शो के लिए यह हॉल ज्यादातर लोगों की यह पसंदीदा हॉल हुआ करती थी । कारण अनेक हैं । प्रकाश टॉकीज ने न्यू मार्केट को एक नई पहचान दी रखी थी । हॉल के बाहर एक घिरनी वाला घिरनी घुमाकर पैसे लगवाता और इसी पैसे जितने वाले खेल से पैसे जीतकर हमने काफी फिल्में देख डालीं थी । डीलक्स होटल की दाल - कचौड़ी और छेना - जलेबी खाकर फिल्म देखने का सौभाग्य हमने बारम्बार पा रखा था । आज वही प्रकाश टॉकीज अपनों की अपेक्षाओं का दंश झेल रहा है और जब कभी सामने से गुजरना होता है , नम आंखों से अपने इतिहास को बार - बार दुहरा रहा होता महसूस होता है । कुछ परिवर्तन निश्चित ही कष्ट देते रहते हैं । नियति शायद इसी को कहते हैं । कोई जोर नहीं चल पाता ।

अब आते हैं चौथी रैंकिंग वाले हॉल - हरदयाल टॉकीज पर । यह तो पता नहीं कि यह बना कब था मगर हुलिए से यह सबसे बुजुर्ग सिनेमा हॉल जान पड़ता था और फिल्में भी यहां पुरानी ही लगा करतीं । भक्ति फिल्मों और भूतों वाली फिल्मों पर इसका लगभग आधिपत्य ही था । यह एक ऐसा सिनेमा हॉल था जिसने खास रूप से गावों की भीड़ को अपनी ओर खींच रखा था । सालोंभर शामियाने सजे रहने का कीर्तिमान भी इसी के पास था और लोग दूर गाव से अपनी पोटलियों में चूड़ा - मूढ़ी और जलेबी लिए इसी हॉल में अपनी जिंदगी के खुशनुमा पल बिताने आया करते थे ।

बांग्ला और भोजपुरी फिल्मों पर एकमात्र इसी का आधिपत्य था । इस हॉल की कैंपस के भीतर ही एक छोटा सा होटल हुआ करता था जिसके छेने - पाईस का स्वाद पूरे शहर ने ले रखा था और वो जायका भूले ना भुला जाता । इस सिनेमा हॉल ने सबसे ज्यादा लोगों को अपनी सेवाएं दे रखी थी मगर बदले में इसने कुछ भी नहीं लिया । आज यह हॉल सालों से बंद पड़ा है और अपनी पुरानी विरासत लिए जर्जर होकर भी टिका पड़ा है । अनंत पदों की छाप अपने में समेटे यह हॉल हमारे लिए काफ़ी कुछ मायने रखता है जिसके लिए शब्द नहीं ।

कुल मिलाकर इन चारों हॉलों ने पूरे जिले को अपनी अनमोल एवं निष्काम सेवाएं दे रखीं थीं । उन दिनों भले ही टिकटें ब्लैक में बिका करती , मगर इंसान साफ - सफेद ही हुआ करते थे । फिल्म देखना एक उत्सव सा था । मंगलवार का दिन बाज़ार बंद होने से चारों के चारों हॉल ठसाठस भरे हुआ करते थे । रविवार का दिन हमारा हुआ करता । शुक्रवार को फिल्में बदला करतीं । आज की तरह हर शुक्रवार फिल्में नहीं बदला करती थीं । एक फिल्म महीनों और कभी कभी एक साल भी चला करतीं । बहुत जोड़ - तोड़ कर , गुणा - भाग कर प्लानिंग कर फिल्म देखने का सौभाग्य मिला करता । हम जैसों का छिपकर फ़िल्में देखना काफी दुष्कर हुआ करता क्युकी कोई - न - कोई जानकार सिनेमा देखने आता ही रहता और किसी तरह उनकी नजर से बचकर अंदर चले भी जाते तो सिस्पेंटर तो मुहल्ले का ही हुआ करता जो सीधा हॉल के अंधेरे में भी सीधे हमारे मुंह पर टॉर्च मारने से कभी नहीं चूकने का जन्मजात हुनर रखा करता था और पहचानकर या तो वहीं से भगा देता या रात को घर लौटते समय हमारे घरवाले को चेता दिया करता था । फिर भी मार और यातना पर फिल्में देखने का नशा हमेशा ही भारी पड़ता था और हम फिर से प्लानिंग शुरू कर देते । उन दिनों फिल्म देखने से कहीं ज्यादा रोमांच जुगाड़ और हॉल में प्रवेश का था ।

ठीक फलाना टाइम में फलाना हॉल में फलाना फिलिम में फैलाना सीन और फलाना गाना आएगा , यह हम बखूबी नोट कर लेते और रोजाना गेटकीपर से बकझक कर ठीक समय पर सीन देख आया करते थे । दोस्तों की झुंड में ही एक - न - एक ब्लैकिया हुआ करता जिसकी जिम्मेदारी टिकट लेने और कुछ टिकट ब्लैक में बेच समोसे - लिट्टी का जुगाड करने को होती थी । वही हमारा तारणहार हुआ करता और हम उनकी तारीफों में कशीदे पढ़ा करते । फर्स्ट दिन , फर्स्ट शो देख लेने का रोमांच एवरेस्ट फतह कर लेने के रोमांच से भी कहीं ज्यादा था । भीड़ की बीच में कूदकर लाइन में आगे निकलकर टिकट खिड़की पर करिश्माई ढंग से पहुंचकर छोटी सी छेद में हाथ घुसाकर टिकट ले लेने का हुनर सबको नहीं था । कईयों ने तो अपनी सायकिल बेचकर फिल्म देखने का विश्व कीर्तिमान रच डाला था । हमनें तो एक ही दिन में चारों शो देख लेने का गौरवपूर्ण जीवन भी जी रखा है । कई तो जिला पार पूर्णिया जाकर फोर स्टार में फिल्म देखने की हिमाकत कर बैठते । फ़िल्म देखने की कीमत हम अक्सर अपनी पीठ फोड़वा के भी चुका देने का शानदार अनुभव रखते हैं । स्कूल से भागकर फिल्म देख लेने और न पकड़े जाने  का जो विजय भाव हमारे मुखमंडल पर हुआ करता वह तो ओलंपिक में गोल्ड लाने से भी कहीं ज्यादा हुआ करता था । फ़िल्म देखकर उनके किस्से हू - बहू दोस्तों को सुना डालने का टैलेंट हम सभी को बखूबी हुआ करता था और सुनने वाला अपनी लार टपकाए आश्चर्य से सुनता हुआ हमारे अहो- भाग्य पर जलता - भूनता रहता । फिल्म देख लेना गूलर के फूल को देख लेने से ज्यादा दुष्कर काम था । कई शरीफ़ बच्चे तो जवान होकर ही अपनी चॉइस की फिल्में हॉल में अकेले जाकर देख पाते । हम जैसे बे - शरीफ लोग बचपन से ही नक्सली हो चुके थे और अनंत बार जवां होने से पहले ही लाल - सलाम कर चुके थे । तथाकथित शरीफ बच्चों ने जवान होकर हम जैसे बे - शरीफों को भी पीछे छोड़ लाल - सलाम करने का ठीक उसी तरह रिकार्ड बनाया जैसे अधेड़ उम्र में शादी करने वाला अपनी प्रियतमा के पहलू में ताउम्र सारी दुनिया से छिपकर अपनी वफा का रिकार्ड बना डालता है ।

कुल मिलाकर फिल्में देखने का रोमांच जो उन दिनों था जब जब में फूटी कौड़ी भी नहीं हुआ करती , आज भरे बटुए में भी वो रोमांच नहीं । अब टिकट खिड़कियों पर ठेलमठेल भीड़ नहीं होती , हॉल में शोरगुल और सीटियां नहीं बजा करती । चिनिया बादाम को कब का बेवजह अलविदा कह दिया गया और जो अब पीनट बनकर शराब के संग जीने को बेबस है । मकई के लावे को अब विलायती नाम देकर " पॉपकॉर्न " कहा जाने लगा है । सिनेमा हॉल अब मल्टिप्लेक्स हो चुका है जहां से वो पहले वाले हॉल की महक नहीं आती । पहले उचक - उचककर फिल्में देखने का रोमांच था और अब सरकती हुई सी चेयर एसी की ठंडी हवा में सुलाते हुए फिल्में दिखाने का दावा करती है । पहले हलाहल शोर हुआ करता था और अब न जाने कानों में अलग - अलग झंकार सुनाने वाले डिजिटल साउंड का बोलबाला है । सबकुछ पहले से ज्यादा शानदार होने का दावा है मगर वो कौतूहल , वो रोमांच अब कहीं दूर छूट सा गया जान पड़ता है । बदलते वक़्त ने सबकुछ बदल सा डाला है मगर हम आज भी वहीं , उसी दौर में खड़े हैं जहां दीवारें भी जिंदा हुआ करतीं थीं और हमारे रिश्ते दरो - दीवारों से भी हुआ करते थे ।

राजू दत्ता ✍🏻

Tuesday 25 August 2020

स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी

*स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी*

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*बचपन में हमसे पढ़े - लिखे बड़े लोग अक्सर  इंग्लिश ट्रांसलेशन पूछ लिया जाया करते  थे और एक तो मानो जैसे हमारी नियति में ही लिखी थी - "मेरे स्टेशन पहुँचने से पहले ट्रेन खुल चुकी थी " बड़ी दुविधा थी उन दिनों । अब सचमुच ट्रेन जा चुकी है । अब ट्रांसलेशन पूछने वालों में से अधिकांश समय से पहले ही स्टेशन पहुंचकर ट्रेन पकड़कर अनंत यात्रा को जा चुके हैं । कुछ लोग तो स्पेलिंग पूछने को ही अपना कर्तव्य जान सबसे कोई न कोई स्पेलिंग पूछ लिया करते थे । स्पेलिंग पूछे जाने और न बता पाने की लाज अब खो चुकी है । एक छोटी सी भार्गव की डिक्शनरी घर - घर अपनी मौजूदगी से यह बता दिया करती कि यहां भी लोग अंगरेजी के कदरदान हैं और अब वो डिक्शनरी भी ट्रेन पकड़ समय से पहले जाने कहां जाकर खो गई है । डिक्शनरी तक को याद करके अंगरेजी को धूल चटा देने का सामर्थ्य हम बिहारियों को खूब अच्छी तरह आता था । अब सबकुछ गुगलमय हो चुका है , अबकुछ ऑटो - करेक्ट हो जाता है । अब कोई पूछने वाला नहीं और बताने वाला भी नहीं । अंगरेजी बोलने का हुनर रेपिडेक्स इंग्लिश वाली किताब सिखा दिया करती थी और बस किताब भर होने से आदमी जान जाता कि यह आदमी अंगरेजी बोल लेता है । रेपिडेक्स इंग्लिश की किताब ने न जाने कितने ही घरों को शोभा बढ़ाकर हमारे आन - बान और शान को अपने मोटे कवर से ढककर बिना अंगरेजी बुलवाए ही बचाए रखा था  यह तो बच्चा - बच्चा जानता है । रेपिडेक्स न होता तो आज अंगरेजी जिंदा न होता । हिंदी में अंगरेजी सीखने का शानदार अनुभव लेने का सौभाग्य अब नई पीढ़ी को कहां ? हमने अंगरेजी को हिंदी में सीख लेने का अजूबा काम कर दिखाया था । हम बिहारियों ने बिहारी- हिंदी में अंग्रेजी लिख - बोलकर अंगरेजी की एक नई शैली को खड़ा कर दिया था । आज भी हम अंगरेजी बिहारी में ही बोलने का बखूबी हुनर रखते हैं । बिहारी अंगरेजी ने एक नए फनेटिक को जन्म देकर अंगरेजी से पूरा बदला चुका लिया है और अंगरेजी अब बस खामोशी से सबकुछ सह लेने को मजबूर है ।*

*उन दिनों हम कर्सिव राइटिंग का नाम तक न सुने थे । बस एक चीज हम अपने आप अपनी शानदार प्रतिभा से सीख लिए थे और वह था जैसे भी हो सटा - सटा कर किसी तरह घुमा - फिराकर लप्तुआ अंगरेजी लेखन शैली जिसकी छाप आज भी कई विभागों छपती रहती है । यह हुनर उन दिनों सबको था । सबने अपने - अपने हुनर से एक नई शैली रच दी थी । और हां , तीन लाइन वाली अंग्रेजी की कॉपी हमारे लिए बेकार सी थी और हम हिंदी की दो लाइन वाली कॉपी में ही अंग्रेजी लिख - लिखकर अंगरेजी को बार - बार यह अहसास दिला देते थे कि हिंदी से बचकर कहां भागोगे । अंगरेजी का हिंदीकरण हमने कर ही डाला था । हम बिहारियों को जो सदमा अंगरेजी ने दे रखा था उसका खूब बदला हमने ले रखा है उसका रंग - रूप अपनी मर्जी से बदलकर  और बिहारी टोन से उसका विलायती फोनेटिक बदलकर ।*

*क्लास 6 से अंगरेजी पर फोकस किया जाता था और वो भी " I am , She is ......" टाइप का सिलेबस हुआ करता । 6 से पहले सब लोग वही लप्तुआ अंगरेजी लिखने का ही हुनर विकसित करते रहते और भार्गव की डिक्शनरी को चाट - चाटकर पहले कौन  पूरा पचा लेगा यही कॉम्पटीशन होता रहता। कुछ तो पूरा डिक्शनरी ही घोर के पी जाने का शानदार हुनर रखते थे । उन दिनों स्पेलिंग पूछने की घातक बीमारी चारों ओर फैली होती और यह सबको शिकार बना चित कर दिया करती थी । शायद ही इसके प्रकोप से कोई बच पाया । इसका कोई वैक्सीन नहीं बन पाया और पता नहीं यह बीमारी कैसे बिना वैक्सीन के चली गई । अब स्पेलिंग कोई नहीं पूछता । स्पेलिंग तो छोड़िए अब तो कोई टाइम भी नहीं पूछता । अब दौर किताब - कलम  और घड़ी की नहीं बस एंड्रॉयड फोन की है जहां सब मिलता है बस कोई पूछने वाला नहीं मिलता । अब आदमी काम टॉकिंग टॉम ज्यादा बोलता है ।*

*अब अंगरेजी मीडियम का नया दौर है जहां बच्चा जन्म लेते ही एप्पल खाता है और खेलने के लिए प्ले स्कूल जाता है । हम जैसे सरकारी स्कूल के पैरेंट्स अब नए सिरे से अपने बच्चों के साथ - साथ अंगरेजी स्कूल का अंगरेजी चैप्टर पढ़कर अपनी पुरानी भूल सुधारने में लगे हैं । अब स्पेलिंग नहीं फोनेटिक बताया जाता है । पैरेंट्स मीटिंग में गार्जियन लोग का रैगिंग होता है और बच्चा घर आकर हमको ही पढ़ा देने का जिगर रखता है । अब नया दौर है जिसमें खड़े - खड़े दौड़ लगानी होती है और पहुंचते कहीं नहीं मगर पसीने छूट पड़ते हैं ।*

*तख्ती और स्लेट पर चौक - पेंसिल से लिखना अब बेतुकी का सबब बन चुका है। अब सीधे कॉपियों पर पेंसिल से लिखे जाने का नया दौर है । तख्तियों पर चौक और पेंसिल से अक्षरों की प्रैक्टिस कर सुलेख लिखने पर अब यह कहकर पाबंदी है कि लेख बिगड़ जाएगा । लिखना लिखने की परंपरा अब खत्म हो चुकी है । सुंदर लिखावट की जगह अब कई किस्मों के फ़ॉन्ट ने ले लिया है ।अब तो जिंदगी का फ़ॉन्ट भी स्मार्टफोन और लैपटॉप्स तय कर रहा है । पुरानी दुनिया अब आउटडेटेड होकर नए वर्जन में एक छोटी सी डब्बी ने सिमटकर रह गई है । दुनिया अब वर्चुअल हो रही है जहां सबकुछ हवा में तैर रहा । हम जमीं छोड़ चुके हैं और बस उड़े ही जा रहे ।*

_________________________

*© राजू दत्ता✍🏻*

Tuesday 11 August 2020

आ जाओ

आ जाओ
जिंदगी है कि रुकती नहीं
आज सब हैं
कल कोई नहीं ।

वक़्त का तकाज़ा है
चारों तरफ जनाजा है
सोचा किया था कल मिलेंगे
आज खबर नहीं उनकी
ढूंढे न मिले जो हर पल साथ थे कभी

सोचा न था कभी
ये दौर भी आएगा
बिना कुछ कहे कोई चला जाएगा
बोझ मन पर कई छोड़ जाएगा
आ जाओ
जिंदगी है कि रुकती नहीं
आज सब हैं
कल कोई नहीं ।  

(राजू दत्ता✍️)


Sunday 9 August 2020

रिश्तों का भ्रम

आप तबतक अच्छे हैं जबतक इस्तेमाल किए जा सकते हैं। अधिकांश अपने इस्तेमाल किए जाने को ही अपनापन समझकर रिश्ते निभाते चले जाते हैं । एक बार आपने सच को समझा और सत्य कहा बस सामने वाले के पास विकल्प खत्म और साथ ही रिश्ते भी । मगर रिश्तों के साथ आपकी वेदना खत्म नहीं हो जाती । फिर शुरुआत होती है पश्चाताप उन अनमोल पलों का जिसे आपने यूं ही उन रिश्तों को सींचने में जाया किया । परंतु एक मजबूत पहलू यह भी है कि अब आपका आज आपका है और आपका आज का यह पल अब जाया नहीं होगा ।

सत्य वेदना तो देता है मगर साथ ही एक स्वाभिमानी शुकून भी देता है और आप मजबूत , और मजबूत होते चले जाते हैं और निश्चित ही आपका वो दूसरा बनावटी और ढोंगी रिश्ता कमजोर होते होते विस्मृत हो जाता है। सत्य की वेदना असत्य के आनंद से ज्यादा सुख देता है क्योंकि यही वास्तविक है बाकी भ्रम ।

चाकरी

चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई
लौटकर आया तो खो चुका था सब
आहिस्ते - आहिस्ते मिट चुका था सब
किस्तों में पूरी जिंदगी लेे गई
चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई ।

छुट्टियों को भी सहेजा
तनख्वाहों को ही समेटा
वक़्त का सिला दिया बार - बार
गुजरी सारी उम्र जार - जार
लौटकर आया तो खो चुका था सब
अब कहां ढूंढे मिले वो बहार
पुराने वो संगी - साथी वो यार
चाकरी सरकार की जिंदगी लेे गई ।

(राजू दत्ता✍️)

Wednesday 29 July 2020

जिंदगी जमीन है





कटिहार - एक शानदार और जानदार शहर । कहने को तो दिल्ली और मुंबई देश के सबसे महंगे शहरों में शुमार हैं लेकिन जिन्होंने यह सर्वे किया है वे अभी भी मां के गर्भ में ही है और उन्होंने कटिहार नहीं जाना । महंगाई के मामले में अमेरिका का न्यूयॉर्क शहर भी पीछे छूट जाए । यहां आपको खड़े होने की भी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।

सामान्य दिनों में चारों तरफ धूल - ही - धूल उड़ती आपको यह एहसास दिलाती रहती है कि एक दिन आपको इसी धूल में ही मिल जाना है । यह कोई मामूली धूल नहीं । यह धूल है लोकतंत्र की ।  आपको अपना बेशकीमती वोट देकर ज्यादा - से - ज्यादा धूल उड़ाने वाले को चुनना होता है। तब जाकर यह दुर्लभ धूल आपके फेफड़े में जाकर आपको सुकून दे पाता है और मरते वक़्त आपका छाती शान से फूला रहता है। इससे बढ़िया इम्यूनिटी बूस्टर और कोई नहीं । आपको किसी तरह की कोई चूरन लेने की जरूरत नहीं । सीधा आपके नाक और मुंह को तर करते हुए आपके श्वसन तंत्र की क्षमता बढ़ाते  हुए आपके दिलों दिमाग को दुरुस्त कर देगा । कोई यहां निकम्मा नहीं । सभी धूल झाड़ने और मच्छर मारने में व्यस्त हैं ।  यहां की फिजाओं में खास किस्म की खुसबू लिए यह धूल यूं ही नहीं आता । इसका एक पेटेंट तरीका है । नालियों से पहले कीचड़ निकालकर नालियों के ही किनारे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है और जो उत्तम किस्म का पावडर जैसा धूल होता है प्राकृतिक तरीके से धीरे - धीरे यहां की फिजाओं में घुल - घुलकर आपको एक नशा सा देता रहता है । मोटका धूल फिर से नाली में अपने आप चला जाता है और फिर से अगली बार की तैयारी में लग जाता है ।  यहां के चाट - घुपचुप के अद्भुत स्वाद का श्रेय इसी पवित्र और खुशबूदार धूल और लाल पानी को जाता है । इस शहर को छोड़ने वाले यहां के नायाब स्वाद को नहीं भूल सकते और कुछ तो यहां के पीले चाट पर कविताएं लिखते - लिखते राष्ट्रकवि हो जाते हैं ।

' जल ही जीवन है ' इस बात को यहां के लोगों से ज्यादा कोई भी नहीं जान सकता । जल जीवन देता है तो ले भी लेता है तो क्या ग़म है । हर साल आपको वैतरणी पार करवाने के लिए  बाढ़ खुद चली आती है और कुछ उनके साथ अनंत यात्रा पर निकल जाते हैं । यहां के पानी में भले ही फ्लोराइड और शीशा हो मगर लोगों ने इसे भी आयरन ही मानकर अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है। गोरा आदमी भी आयरन की प्रचुरता लिए थोड़ा अजीबोगरीब लाल - पीला होकर अपने सफेद दातों पर पीला तो कहीं काला परत चढ़ाए  अपने सफेद गंजी को ठीक लाल - लाल किए दांत निकालकर हंसता हुआ आपको लगभग हर जगह दिख ही जाएगा । धूल आपका वजूद है और पानी का आयरन ही आपको भीतर ही भीतर लौह पुरुष का रूप देता है जिसको कोई भी साधारण पुरुष आपके लाल - लाल होते बनियान से ही भांप लेता है । यह दोनों आपको बिना किसी दाम के समान रूप से पोषित कर समानता के भाव को स्थापित करता रहता  है । जीवन की इस सच्चाई को यह शहर आपको चाह कर भी भूलने नहीं देता ।

यहां कोई हवा - हवाई नहीं है । लोग यहां जमीन से जुड़े हैं । जमीन ही लोगों का वजूद है। जिंदगी ही जमीन है । पैदा होने का एकमात्र लक्ष्य है – ‘एक धूर जमीन’ । अंत में सबकुछ मिट्टी में मिल जाएगा सो मिट्टी से अत्यधिक लगाव है यहां । जैसा पानी वैसा ही भेष और विचार । यहां के पानी के शीशा , आयरन और फ्लोराइड को लोगों ने चरणामृत की तरह पी - पीकर पानी का सारा शीशा , आयरन और फ्लोराइड अपने पेट में जमा कर फुला रखा है । हर फुले हुए पेट में फैट या चर्बी होता है इस भ्रम में ना रहें , शीशा और आयरन का गोला भी होता है या फिर नेचुरल गैस । बढ़े हुए पेट को देख गलती से भी आप ये मत समझ लीजिएगा कि आदमी यहां  कसरत नहीं करता है और हेल्थ कॉन्शस नहीं  । यहां आदमी सीरीयस होने के बाद ही सीरीयस होता है और उससे पहले सीरीयस होकर सीरीयस नहीं होना चाहता । यहां का गुणकारी पानी मिनरल वाटर को उठाकर पटक देने की हैसियत रखता है । किसी भी बाबे के काढ़े से ज्यादा असरदार यहां का रोगनाशक जल है । बस आप आंख बंद कर अपने इष्टदेव का नाम ले लेकर पीते रहें बाकी तो विधि का विधान स्वयं विधाता भी नहीं टाल सकते ।

कुदरत की एक बेहतरीन  चीज आपको यहां घर - घर मिलेगी । वो बेहतरीन चीज है - मकरा । आप चाहे कितना भी मकरा का झूल झाड़ लें , अगले ही दिन फिर से आपको उतना ही झूल घर में मिल जाएगा । इतनी तेजी से संसार के किसी भी कोने में मकरा झूल नहीं बना सकता । कटिहार का मकरा कोई मामूली मकरा नहीं , उड़ती धूल को भी धूल चटा देने का बेहतरीन सामर्थ्य है इसमें । लोगों ने भी हार नहीं मानी है धूल और झूल से । जिंदगी आपकी यहां धूल और झूल झाड़ने में व्यस्त रहती है फिर भी समय खूब है यहां लोगों को ।

हजार जन्मों का पुण्य प्रताप ही है कि आप इस पुण्य भूमि पर पैदा हुए । काला पानी , फिजाओं में धूल ही धूल , काले - काले मोटे मच्छरों से लैस , सड़कों और हाईवे पर तरणताल जैसे गड्ढों की विशेष सुविधा लिए यह शहर गोरे लोगों पर अपनी लाल-लाल परत चढ़ाएं उनके पीले - पीले दांतो से दिल्ली और मुंबई तो क्या न्यूयॉर्क और वेनिस की स्थिति पर भी हंसता रहता है । अगर आप इटली के वेनिस शहर घूमने का ख्वाब संजोए रखे हैं और अपने जीवन की गाढ़ी कमाई को विदेशी मुद्रा में खर्च करने की सोच रहे हो तो थोड़ा इंतजार कीजिए । बस एक बरसात का इंतजार कीजिए । एक हल्की सी भी बारिश हो जाए। बस अब आपको वेनिस जाकर अपनी जेब ढीली करने की जहमत नहीं उठानी होगी । कटिहार में भी मुफ्त में आप इस का लुफ्त उठा सकते हैं। हल्की सी बारिश के साथ ही सुंदर सा नजारा आपको पल भर में विस्मित कर लेगा । चारों तरफ स्वच्छ जल कल-कल बहता मिलेगा । एकदम वेनिस शहर को भी मात देता । बस एक नाव की जरूरत पड़ेगी आपको । चारों तरफ लोग अपने पीले - पीले दांतों को निकाल कर वेनिस को भी मात देने वाली मुफ्त व्यवस्था के लिए यहां देव भाषा में यहां के सुविधा दाताओं को दुआएं देते दिख जाएंगे । बहुत ही शानदार एवं खुशनुमा माहौल होता है। छोटका नाली , बड़का नाला , छोटका गड्ढा , बड़का गड्ढा, सुख्खा सड़क , गिल्ला मैदान सब के सब परम आनंदित होकर भेदभाव भूलकर एकाकार हो जाते हैं । मल - मूत्र बस का भी भेदभाव मिट जाता है । गंगा - जमुनी संस्कृति के जीते जागते ज्वलंत उदाहरण से आप दांतों तले अपनी अंगुलियां दबाकर काट खाएंगे । एकाकीपन का यह रूप आपको मोह लेगा।

सड़कों पर पानी से भरे गड्ढे को देखकर उसे मामूली गड्ढा समझने की बचकानी भूल बिल्कुल भी ना करें । निश्चित तौर पर वह डीजल ही होगा । पेट्रोल और डीजल का अथाह भंडार छिपा है यहां । हीरा - मोती , सोना- चांदी , मुक्ता- माणिक्य और मकरंद ना जाने क्या क्या बेशकीमती चीजें दबी हैं यहां की जमीन में । यहां की जमीन के नीचे कब कौन सी बेशकीमती चीजें निकल आए यह कोई नहीं जानता। नींव की खुदाई करते ही सोने के सिक्कों और ईंट - गहनों से भरा मटका मिल जाना तो आम सी बात है । बस नींव खोदने भर की देर है और आप राजा बन गए । यहां के सारे बड़े लोग उसी मटके से ही तो आदमी बन गए हैं। पहले वो आदमी नहीं थे ।

बात रोजगार की करें तो यहां सौ फीसदी रोजगार है । बेरोजगारी ही यहां सबसे बड़ा रोजगार है । काम कुछ नहीं, फुरसत कभी नहीं ' - यह नायाब चीज आपको बस यहीं और यहीं मिलेगी । एक मेंढ़क भी अगर नाली से बाहर आ जाय तो जमा भीड़ को तीतर - बितर करने के लिए प्रशासन को लाठी चार्ज करना पड़ जाए । नाला में फंसा ट्रैक्टर कैसे निकल पाता है यह देखने के लिए लोग मोटरसायकिल रोक - रोक के घंटों जायजा लेते रहते हैं और ट्रैक्टर का ड्राइवर चुप - चाप खैनी मलता हुआ मुस्कि मारता रहता है । यहां आदमी समय को बस में कर काट - काटकर भुजिया बना बना कर दूसरों में बांटता रहता है । ' कुछ बड़ा होने के इंतजार में मर जाने से अच्छा है छोटा चीज में ही जीते जी  मजा ले  लेना '  यह बात यहां कुकुर  - बिलाय  को भी पता है ।  हम तो आदमी हैं । समय की कोई कमी नहीं यहां बस आप समय चक्र को तोड़कर फेक दीजिए एक बार । जी हां शहरों में बेशुमार, यह शहर है - कटिहार । अगर आप कटिहार नहीं जानते तो आप मां के गर्भ में ही हैं ।

पूरे सीमांचल को अपने कलेजे में समेटे छोटका एम्स चौबीसों घंटे इमरजेंसी सुविधा से लैस , चमचमाता - गमगमाता स्कूल - कॉलेज जहां आप अपना ललका चेहरा साफ - साफ देख सकते हैं ,  निरमा सरफ़ वाला दूधिया साफ मार्केट , मिरचाई बाड़ी से पूर्णिया तक रोड किनारे आपको आंखें बाहर कर आश्चर्य से देखता टंगा हुआ मुर्गा और खस्सी , लेलहा चौक पर हलाल होते मुर्गे से नजरें बचाते हुए मुर्गा - भात पर घात लगाए तेज लोगों का जखीरा, मेडिकल कॉलेज का जलजला और दिलजला , बाज़ार का अफलातून भीड़ , भीड़ - भीड़ का खेल खेलता भीड़ , अंग्रेजी मीडियम को हिंदी में आसानी से बच्चा के साथ साथ मां - बाप को भी पढ़ाता हुआ प्राइवेट स्कूल, अंगरेजी बोलते बच्चा को देख सीना फुलाए पापा - मम्मी,   सोशल मीडिया में पीएचडी करता लगभग हर जवां लड़का , मोबाइल में घुसकर अध्ययन और योग - साधना करता बच्चा - बच्चा और उसको देखकर दांतों तले उंगली दबाए गार्जियन, चाय - पान और नाई की दुकान पर बड़े - बड़े विद्वानों की विद्वता की धज्जियां अपने असीमित ज्ञान की फूंक से  उड़ाता बुद्धिजीवी युवा और सोशल मीडिया पर राष्ट्र-हित में युद्ध लड़ते - लड़ते थककर पब्जी खेलता और टिक - टौक पर अपना हुनर मुफ़्त में बांटता बच्चा - बच्चा , खैनी और गुटका को चबा - चबाकर धूल में मिलता और हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला कमोबेश हर शख़्स । और क्या - क्या बयां करें यहां का गुणगान । कोई नहीं ऐसा , कटिहार जैसा ।

इतनी खूबी लिए इस शहर की जमीन की कीमत को यदि आप ज्यादा समझ रहे हैं तो आप निरे मूर्ख हैं ।  आप अभी भी अजन्मे है और ना ही जन्मे तो ठीक हैं । जितने में आप दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास और मुंबई के बांद्रा और मालाबार हिल्स के पास एक बंगला ले लें , रोड किनारे एक धुर ही बमुश्किल से आप पा सकते हैं और वह भी बिना कबूलती किए या पाठा गछे तो सोचिए भी मत । यहां जमीन की कोई कीमत नहीं । सड़क से सटे जमीन में हीरा दबा होने से करोड़ों की कीमत , तो ठीक उसके पीछे लोहा होने से हजार या लाख । जमीन के नीचे दबा क्या है इसी से इसकी कीमत जमीन वाला लगाता है और जो दलाल है उसी को बस पता होता कि जमीन के नीचे दबा क्या-क्या है । हाईवे से सटी जमीन की कीमत तो आप पूछने की भूल भी ना करें। एक करोड़ से शुरू होकर खत्म कहां होता कोई नहीं जानता । आप करोड़ों की जमीन रोड किनारे लोन और करजा लेकर खरीद कर उसमें झोपड़ी डाल तंदूर मुर्गा का दुकान ,  चाय का दुकान, मैगी - पनीर पकौड़ा का दुकान या खाली दही - पेड़ा का दुकान खोलकर रोज कमा खाकर अपना पेट पाल सकते हैं । और हां , चापाकल का कोनो जरूरत नहीं । बस एक प्लास्टिक का आयरन से पीला वाला एक मग रखना है और उठा लीजिए कहीं से भी । खाली एक बार सूंघ लीजिए कहीं डीजल तो नहीं निकला है । एक बात याद रखना है आपके जमीन के नीचे का हीरा खोद पर नहीं निकाल खाना है । काहे की हीरा चाटने से ही आदमी खत्म हो जाता है सो हीरा को दबा ही रहने दीजिए और चाय बिस्कुट और मैगी खा कर ही मस्त रहना है । दबे हीरे के एहसास से ही आपका कॉन्फिडेंस बना रहता है ।

इस जमीन का सड़क कोलकाता से मिलेगा, यह वाला फोरलेन से सटा जमीन होगा, इस जमीन के बगल में फलाना कॉलेज होगा, इस जमीन पर पेट्रोल चेक हो रहा है, ठीक सामने फलाना स्कूल बनेगा और भी न जाने क्या - क्या । यह सब हमारे पैदा होने से पहले दादा के जमाने से ही हम सुनते आ रहे हैं ।

चौक पर रोड पर पहले कटरा बनाने का सपना आपको सोने नहीं देता। दसियों जगह से उधार - पैंचा ले, सोना - गहना गिरवी रख, आधा पेट खाकर आप दो-तीन कटरा बनाकर अपना सीना फुला सकते हैं । यह बात अलग है कि आपके फूले हुए सीने के भीतर पिचका हुआ दिल कब आपका साथ छोड़ दे आपको नहीं पता हो । लाखों लगा कर दो - तीन हजार कमाने के हुनरमंद यहीं पाए जाते हैं । कटरा आपको अपार शांति देता है और बिना खाए आपको खुद को जिंदा भी रखने का हुनर भी देता है । हर कटरे का भाड़ा उस दुकानदार का दुकान कितना चलता है उससे तय होता है । कुछ तेज दिमाग वाले कम लागत के जीरो मेंटेनेंस की लौज बना लेते हैं और दिन भर कैरम खेल खेल कर स्वर्ग का मजा यहीं ले लेते हैं। लौज में मौज लेते लड़कों को देखकर लौज़ वाला भी मस्त रहता है और मुर्गा - भात में साझेदारी कर मालिक और दास का भेद - भाव ख़तम कर देता है ।

कुछ लोग अपने माथे पर फोन का टॉवर लगवाकर भी बड़ी - बड़ी कंपनियों को भी अपना गुलाम बना लेते हैं और भाड़े के साथ - साथ मशीन का डीज़ल भी पी जाते हैं । टॉवर से खतरनाक रेडिएशन निकलकर इंसान को पागल कर दे या कैंसर इस बात से आप उनको बेवकूफ नहीं बना सकते । यदि आप समझाने की कोशिश करने वाले हैं तो ठहर जाइए । एक बार ठंडे दिमाग से सोच लीजिए कहीं आप उनको मिलने वाली सल्तनत से जल - भुन तो नहीं रहे । सल्तनत का नशा गांजे के नशे पर भारी होता है और आप वो हो जाते हैं जो आप हैं नहीं । मकान मालिक का होना ही आपको ओज और तेज से भर देता है। भाड़े-दार पर हुकूमत चलाकर जो सुख है वह देश की हुकूमत चलाने में कहां । सबसे निरीह प्राणी भाड़े- दार ही होता है। जिसके पास एक धुर भी जमीन नहीं वह पैदा ही क्यों हुआ ? जीवन को सार्थक करने के लिए यहां आपको अपनी जमीन चाहिए । जमीन नहीं तो कोई इज्जत नहीं । सड़क किनारे आपकी जमीन का होना आपकी हुनरमंदी को जगजाहिर करता है । लड़के का अपना पक्का घर है, दो ठो कटरा है और बस कुछ और ना भी हो तो चलता है । मकान मालिक आपको एक नायाब तोहफा घर लेते ही बिना आपसे पूछे तपाक से दे देता है । वो है बिना मीटर के बिजली । एक बल्ब का इतना लगेगा , पंखा का इतना , टीवी का इतना औरो हीटर और आयरन चलाते देख लिए तो कहानी ख़तम । बात यहीं ख़त्म नहीं होती । मकान मालिक रोज कभी - न - कभी किसी भी बहाने अपनी तिरछी और पैनी नज़रों से आपके घर के कोने - कोने को छानकर यह निश्चित कर निश्चिंत होकर सो जाता है कि सब ठीक है । बिना आयरन और हीटर जलाए भी सम्मानित रकम का बिजली का बिल आपसे वसूलकर आपके आत्मसम्मान को बनाए रखने में मकान मालिक की भूमिका आपके मानसपटल पर जीवनपर्यंत बना रहता है ।

मकान भाड़े में एक अलग ही रस  है यहां । एक तो पैसे का रस और दूसरा आपको अपनी सल्तनत और रि़याया पर हुक्म चलाने का नायाब अनुभव । दूसरा वाला अनुभव ज्यादा मजा देता है । किराएदार कितना भी किराया दे दे , मकान मालिक का कर्जा कभी नहीं उतार पाता है । इतना बड़ा मजा चाहिए तो जमीन के पीछे दीवानगी का होना लाजिमी है ।

भाड़े-दार रोज मुर्गा - मछली खाए और मकान मालिक भले ही नून - भात मगर ओहदा हमेशा मकान मालिक का ही बड़ा होता है। मकान मालिक अगर टूटल सायकिल पर बार - बार चेन चढ़ाकर चले और भाड़े- दार बुलेट पर तो क्या हुआ? भाड़े-दार लाख कमाकर भी गरीब होता है और मकान मालिक निकम्मा होकर भी मालिक ही होता है । इसी गरीबी को दूर करने के लिए गरीबों की दौड़ है यहां मालिक बनने की ।

क्या सेठ, क्या डॉक्टर, क्या बाबू, क्या नेता सब के सब ज्यादा से ज्यादा जमीन खरीद कर ज्यादा से ज्यादा इज्जत खरीद लेना चाहता है । रोड किनारे प्लॉटिंग,  ई फलाना नेता का, ई फलाना डॉक्टर का , ई फलाना सेठ का , ई फलाना बाबू का । ई लोग नहीं बेचेगा , आप पीछे वाला ले लीजिए । नेता जी के पीछे वाला 50 लाख, सेठ जी के पीछे 40 लाख,  डॉक्टर के पीछे 1 करोड़ ।  50 लाख वाला में रास्ता नहीं मिलेगा आपको उड़ कर जाना पड़ेगा । 40 वाला में थोड़ा लफड़ा है, अगर आज बयाना कीजिएगा तो अभी लफड़ा सलता देंगे ।  एक करोड़ वाला में दवाई दुकान खोल दीजियेगा तो भयानक चलेगा । पूर्णिया वाला रोड का दोनों तरफ बिक गया है, डी एस कॉलेज से कोलकाता तक बिक गया है, मिर्चाई बाड़ी से फलका तक सब खत्म हो गया है , मनिहारी रोड के दोनों किनारे सब सेठ गोदाम और स्कूल के लिए खरीद लिया है । दलाल को एक सौ साल बाद का भी सब कुछ पता रहता है । दलाल एक सौ साल तक जिंदा नहीं रहेगा इसलिए आपको दिलाकर चैन से दुनिया से चले जाना चाहता है ।

यह सोना विहार है, यह चांदी नगर , यह हीरा विहार , यह मोती नगर , यह पन्ना विहार , यह माणिक्य नगर , यह कुबेर खंड , यह लक्ष्मी विहार …. सब बुक हो गया है । यहां मॉल होगा , यहां टॉल होगा , यहां ताजमहल बनेगा , यहां प्रधानमंत्री जी ले लिए हैं , अमिताभ बच्चन यहीं आ रहे हैं, मुकेश अंबानी अपना एंटिला छोड़कर फोर लेन के पास रहेंगे , बाबा रामदेव अब हरिद्वार छोड़ बाबा - विहार में यहीं आश्रम लेंगे , फेसबुक का फैक्ट्री यहीं खुलेगा , साहेबगंज का पूल बनते ही सब साहब लोग यहीं रहने आएंगे यह सब बात का जानकारी आपको बिना पैसा का चाय - पान के दूकान पर या सैलून में चूल कटाते - कटाते  मिल जाएगा । दू साल बाद आप खरीद नहीं पाइएगा , यहां का जमीन का दाम आग हो जाएगा जिसमें आप जलकर भस्म हो जाइएगा , अभिए बायानानामा कर दीजिए यह सब बात सुनकर आप हदस कर हदस जाएंगे ।

शहर में सौ में नब्बे बुलेट दलाल लोग खरीदकर रोज चमकाकर चलाता आपको दिख ही जाएगा  और हां , दलाल आपको जमीन मालिक से ज्यादा स्मार्ट दिखेगा । उसपर यहां का आयरन का लाल पीला रंग नहीं चढ़ा मिलेगा काहे कि वो मिनरल वॉटर पीता है । जमीन मालिक के जैसन वह खैनी नहीं खाता मिलेगा । पान - पराग और तुलसी का खुशबू से आप मस्त हो जाएंगे । सादा ड्रेस और रंगीन चस्मा और काला जूत्ता में डील-डौल देखकर आपको अपने आप पर लाज़ आयेगी और आप संट हो जाएंगे ।  दलाल शब्द थोड़ा ठीक नहीं जान पड़ता सो आप मुंह पर मत बोल दीजियेगा और उसका नंबर मोबाइल में दलाल बोलकर सेभ मत कीजिएगा। वह आपका सबसे बड़ा हितैषी है सो आप उनका नाम सोच समझकर सेभ कीजिएगा । वही आपका तारणहार है और वही आपको मोक्ष देगा बाकी सब मोह - माया है ।

अमला टोला, बनिया टोला, कालीबारी, राज हाता ,बिनोदपुर , दुर्गापुर, नया टोला , चूड़ी पट्टी , गामी टोला, दुर्गा स्थान ई सब जगह में एक धुर के लिए कम से कम एक करोड़ चाहिए । वह भी तब जब जमीन बेचने वाला को आपका थोबरा पसंद आ जाए । यह सारे इलाके आपको वेनिस का मजा देंगे । आपके बेड तक पानी की सुविधा है यहां । मंगल बाजार, न्यू मार्केट , बड़ा बाजार, एमजी रोड में घर या दुकान लेना कनॉट प्लेस में लेने से कोनो कम नहीं है । शहीद चौक की बात करेंगे तो लोग आपको ' पगला गया है ' कहके आपके पीठ पीछे मुंह में गुटका दबाए ही जोर का हंसी हंस देंगे ।

आप घर में कितने ही निकम्मे क्यों न हो आपको पूरा इज्जत मिलेगा बाहर में अगर आपके पास किराए पर देने के लिए कटरा या मकान है । रजिस्ट्री आफिस के सामने रोज की कचा - कच भीड़ यह दिखलाती है सब लोग उतनी ही इज्जत पाने को कितना बेताब हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि आप खाली जमीन खरीदकर उसमें आज बाउंड्री वाल दे दे और कल ही आपको बिना खरीदार के ही  20 से 25 लाख के फायदे का एहसास अपने आप हो जाएगा । जमीन खरीदने वाला न जाने कितनी रात इसी खुशनुमा अहसास से  नहीं सोता । सबकुछ दांव पर लगाकर भी कई रातों तक न सोकर भी स्वर्ग - सुख का अनोखा अहसास यहीं , बस यहीं दिखता है। यहां आदमी नहीं जमीन ही जिंदा है और जमीन ही जिंदगी जीता है आदमी नहीं । आबोहवा ही शहर की कुछ ऐसी है कि जमीन लेते ही आप बन गए। क्या बन गए ? यह तो आप ही जान जानते हैं और हम ।

(राजू दत्ता ✍🏻)


Sunday 26 July 2020

नींद

सरकार और व्यवस्था को कोसने से कोई फायदा नहीं । इसे आपने स्वयं खड़ा किया है और पोषित भी। आपके प्रतिनिधि आपके ही प्रतिबिंब हैं। हर व्यवस्था में आपके ही अपने लोग स्थित हैं । जबतक समाज का प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं करेगा , स्थिति में बदलाव नहीं होगा । सत्ता को अयोग्य व्यक्ति के हाथों सौंपकर यदि व्यक्ति सो जाए तो दुस्वप्न निश्चित है । अधिकार स्थाई नहीं होता अपितु समय - समय पर आपकी उपस्थिति की अनुभूति अपरिहार्य है अन्यथा आपके अधिकारों पर कब्जा हो जाना कोई आश्चर्य नहीं । बिना आपकी मर्जी के कोई आपके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता । बिना उठे , बिना जगे आप बस एक मृत व्यक्ति मात्र ही हैं। जागना आवश्यक है। एक सजग और सचेत समाज में ही लोकतंत्र फलीभूत हो सकता है ।

किरदार

आप महज एक किरदार हैं । एक ऐसे किरदार जिनको अपना अभिनय तक पता नहीं । बस रंगमंच पर यूं ही उतार दिया गया है । पटकथा पहले ही लिखी का चुकी है । कौन मेहमान कलाकार है , कौन मुख्य यह बस उस निर्देशक को पता है। आप अपने किरदार में इस कदर खो जाते हैं कि आपको कुछ पता ही नहीं चलता कि आप महज एक किरदार हैं । इस रंगमंच का निर्देशन ही इतना उम्दा है कि आप बस खो जाते हैं। चंद किरदार ही होश में होते हैं और उन्हें ज्ञात होता है कि वे महज एक किरदार ही हैं । जिंदगी के सारे ताने - बाने बस यूं ही रचते चले जाते हैं और पटकथा यूं ही रचती चली जाती है ।

भीड़

यह जरूरी नहीं कि आपके पास भीड़ हों और वो भीड़ आपके अपनों की हो। इसकी पूरी संभावना है कि आप शिकार हों और आप चारों तरफ शिकारियों से घिरे हों । हितैषियों की कभी भीड़ नहीं होती । आपके असली चाहने वाले कभी भीड़ में नहीं होते । वो भीड़ से अकेले खड़े मिलेंगे । इसलिए अपने पीछे की भीड़ को कभी भी अपनी ताकत मानने की मूर्खतापूर्ण भूल ना करें । आपकी ताकत बस चंद लोग ही हो सकते हैं । ऐसे भी उचित कार्य के लिए ताकत की नहीं , नेक इरादों की जरूरत होती है । भीड़ और बल का प्रयोग सदा अनुचित कार्यों में ही होता है । महान कार्य के लिए साधना आवश्यक है जो एकांत में ही हो सकती है,  भीड़ में कदापि नहीं ।

हैसियत आपकी

लोग आपको जिंदगी में अपनी जगह आपकी हैसियत के हिसाब से देते हैं । जैसी आपकी हैसियत वैसी आपकी जगह लोग तय करते हैं । यही बात आपके प्रति आचरण और व्यवहार में भी लागू होता है । लोगों का आपके प्रति भाव ही आपका भाव तय करता है और आपका भाव ही यह तय करता है कि आपको लोग कितना भाव देंगे । रिश्तों की अहमियत आपकी अहमियत से तय होती है । अलग - अलग लोगों के लिए अलग - अलग व्यवहार इसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । भले ही हम इसे नजरअंदाज करते रहते हैं परन्तु  यह एक कटु सत्य है बाक़ी सब दिल को बहलाने वाली बातें हैं ।

Friday 17 July 2020

जिद्द

हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे 
उठना पड़ेगा ख़ुदा को भी
कुछ ऐसा कर जाएंगे ।

तकलीफों के समंदर को पार किया
बार - बार किया 
मरा बार - बार, फिर भी जीया 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

धूप और भूख को जीता बार - बार
हर तूफ़ान को किया तार - तार
झुका , गिरा फिर उठा मैं बार - बार
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

कैसा दुःख और फिर संताप कैसा 
जिंदा हूं जबतक फिर ताप कैसा 
हर ताप सहा , बार - बार सहा 
खड़ा हूं मैं अब भी फिर संताप कैसा 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

तपता हूं बार - बार 
फिर भी हंसता हूं बार - बार
कैसा दुःख और फिर संताप कैसा 
मिली है छाव भी तो 
फिर ताप से संताप कैसा
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

समय पर समय का ही जोर नहीं
बिना शांति के हो सकता शोर नहीं
बात बस सोच की है कोई कमजोर नहीं 
गिरा दे हौसले को आंधियों में वो जोर नहीं 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

बिना लड़े ही जीता जंग बस खड़े- खड़े 
विपदाएं अाई रहे हम अड़े - अड़े
सीखा था सबकुछ यूं ही जड़े - जड़े 
रोया, फिर हंसा, फिर भी ना रुका 
मैं न थका , बस वो ही थका 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

मैं मुस्कुराया सदा
रोया फिर हसा सदा
तूफानों से सीखा सदा
कैसे रहना है खड़ा सदा 
हादसों की दास्तां हूं मैं
हर अंजाम सह लेंगे ।

Tuesday 14 July 2020

अविश्वास प्रस्ताव

अरे भाई राजनीति व्यापार है ...समाज सेवा थोड़े ना है । समाज सेवा के लिए राजनीति की जरूरत नहीं होती । समाज खुद विकसित होकर बनता है । राजनीति 20-20 का गेम है जहां सट्टा लगता है । दशरथ मांझी अगर किसी पार्टी को ज्वॉइन करता तो पहाड़ काटकर रास्ता नहीं बनता । पार्टी जॉइन करने का मकसद पार्टी करना होता है । नेता काम करेगा ये  सोचना यह यह साबित करता है कि आप अभी जन्मे ही नहीं है । जहां पार्टी का टिकट ही पैसे से मिलता हो उसपर काम की उम्मीद वो भी समाज सुधार और विकास की तो आप सभ्य भाषा में बहुत ही भोले- भाले हैं । बिना बोतल बांटे आपका जमानत जहां ज़ब्त हो जाए वहां आपको बाद में खाली बोतल ही मिलेगा और आप बोतल चुन चुन कर बोतल हो जाएंगे । ऐसे लोकतंत्र मूर्खों का शासन है बाबा अरस्तू खुद ही मूर्ख बनकर पहले ही चल दिए । 

गुनाह करके कहाँ जाओगे ग़ालिब,

ये जमीं और आस्मां सब उसी का है।

Tuesday 7 July 2020

मारवाड़ी पाठशाला , कटिहार - " यादों की पाठशाला "

*मारवाड़ी पाठशाला , कटिहार - "यादों की पाठशाला"*

*अनकही बातों का दौर और कभी न खत्म होने वाली बातों के शोर से पूरे का पूरा स्कूल हमेशा की तरह चिर - परिचित काय - काय की शोर से गुंजायमान था कि अचानक एक कड़क और दमदार आवाज के भारीपन ने उस कोलाहल को जैसे अपने वजनी वजन से दबाकर चित सा कर दिया था । चारों तरफ अब निः शब्द शांति फैल चुकी थी । वह दमदार और सब को हिला देने वाली आवाज दसवीं कक्षा के सेक्शन बी के कमरे से निकलकर पूरे स्कूल में फैल गई थी । यह जानी पहचानी कड़क आवाज स्कूल की दरो - दीवार तक छेद देने का सामर्थ्य रखती थी । स्कूल से सटे आसपास के घरवालों तक को समझते देर न लगती कि यह चिल्ल - पौं अचानक शांति का चोगा ओढ़कर कैसे बैठ गई । लगभग 6 सवा 6 फूट के आसपास अधेड़ उम्र वाली हल्की सफेदी बालों में लिए मगर गठीले और सधे हुए जिस्म पर खादी का सफेद कुर्ता और घोती बिना सिलवट लिए उस रौबदार वजनी आवाज वाले शख्स पर पूरी तरह फब रहा था । चेहरे पर तीखा तेज और  आंखों में सिहरन पैदा करने वाली अनजानी चमक के साथ शब्दों की गर्जना से पूरे की स्कूल की काय काय को दबा देने का अद्भुत बल लिए वह शालीन व कड़क व्यक्तित्व कोई और नहीं सी. पी. सिंह सर थे । हां , वो सिंह ही तो थे हम बारे में बंद लगभग 600 के आसपास मेमनाओं के लिए , जिनकी गर्जना से आधी जान तो पहले ही निकल जाती थी । सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल तो कतई  नहीं दिखते थे । सरकारी स्कूल के सरकारीपन ने भी उन्हें अपनी आगोश में लेने की हिमाकत अब तब तक नहीं की थी । उनका व्यक्तित्व और डील डौल प्रिंसिपल से भी भारी था । यूं कहा जाए तो किसी रौबदार मंत्री की शख्सियत रखने वाले थे। नया टोला जैसे मोहल्ले के हिम्मतवर और खूंखार छात्रों ने भी उस शख्सियत के सामने झुककर नील डाउन होकर दो - चार हाथ  खाकर अपने- अपने सुनहरे भाग्य को सराहा था । उनकी आवाज और शख्सियत की मार ही  काफी थी । 5 सालों की पढ़ाई में दो - चार बार से ज्यादा रूबरू होने का सौभाग्य हमें नहीं मिला था ।* 

*बड़ा बाजार, चूड़ी पट्टी, नया टोला, अरगड़ा चौक , हरिगंज चौक , गामी टोला ,दुर्गा स्थान ,एक और दो नंबर कॉलोनी, गांधी नगर ,बनिया टोला , मंगल बाजार और कटिहार की हर गली मोहल्ले के छात्रों को अपने में समेटे यह स्कूल कटिहार के बीचो- बीच अपना सिक्का जमाए  हुए गर्व से इठलाया करता था ।*

*जगह की कमी और छात्रों की भीड़ का दबाव कहा जाए या नियति की मार , लड़कों और लड़कियों का एक साथ पढ़ना मयस्सर नहीं हुआ । सुबह के 6:00 बजे से 11:00 बजे तक का समय लड़कियों का और 11:00 से 4:00 बजे का समय लड़कों का था । केवल छठी कक्षा के लिए लड़कों का समय 6:00 से 11:00 का था, मगर उसमें भी लड़कों का सेक्शन अलग ही था । छठी कक्षा पर इतनी मेहरबानी और आरक्षण क्यूं थी, इसका  कारण भूतकाल के गर्त में ही रहे  तो उचित है । हर एक  क्लास के दो सेक्शन थे -  सेक्शन - ए और सेक्शन - बी । सेक्शन - ए के लड़के अपने को ए - ग्रेड समझते और सेक्शन - बी के लड़के को बी - ग्रेड । ए से अच्छे और बी से बुरे होने की लड़ाई आम बात थी । यह महज एक इत्तफाक था या सोची समझी योजना थी कि लड़कों के डील - डौल  और हाव-भाव से भी यही लगता था या फिर सेक्शन- बी के अधिकांश लड़कों ने अपनी यदि नियति मानकर खुद से समझौता कर लिया था ।* 

*छठी कक्षा के क्लास टीचर नरेश सर थे । गोरे रंग का सामान्य कद काठी के नरेश सर हिंदी और संस्कृत की क्लास लेते थे । सधी हुई टनकदार आवाज के साथ हिंदी और संस्कृत के काव्य- उच्चारण की ध्वनि कोई नहीं भूल सकता । पढ़ाने के अलावा हमने हमेशा उन्हें रजिस्टर  लेकर कुछ ना कुछ करते ही देखा था । वह दो ही जगह पर पाए जाते या तो स्कूल के भीतर या फिर रबिया होटल के भीतर चाय की टेबल पर । इसका दुष्परिणाम हमारे लिए यह होता कि हम रबिया होटल की चौक पर ना तो चौका - विहार कर पाते और ना ही मटरगश्ती ही ।उनकी लेखन शैली और आलेख की छवि हमारे जेहन में आज भी तरोताजी  है । साधारण होकर भी वह असाधारण थे । शायद ही ऐसा कोई था जिसका कान मचोड़कर उन्होंने लाल नहीं कर डाला होगा ।*

*बात अगर जब छठी कक्षा की हो तो झरना मैडम, दुर्गा मैडम, रत्ना मैडम और शिप्रा मैडम की बात ना हो तो बेमानी होगी।*

*झरना मैडम की आवाज से पूरे का पूरा क्लास शांत रहा करता था ।उनकी कड़क आवाज ही हमारे अनुशासन के लिए पर्याप्त थी । झरना मैडम हमें अंग्रेजी पढ़ाया करतीं और अंग्रेजी से रूबरू हम उनकी क्लास से ही ठीक से हो पाए ।  ऊपर से इतनी कड़क मगर भीतर से नरम- हृदय का इतना  बेहतर सामंजस्य बहुत ही कम दिखने को मिलता है ।*

*दुर्गा मैडम हमें चित्रकला सिखाया करती थी । नाम के अनुरूप ही उनकी छवि भी मां दुर्गा की तरह हुआ करती थी । उनका व्यवहार सदा ही हमारी ओर वात्सल्य भरा रहा । शांति और अदम्य मुस्कान का वह रूप आंखों से उतरकर सीधे हमारे आत्मा की गहराई में उतर आता ।*

*रत्ना मैडम विज्ञान पढ़ाया करती थी। उनकी सौम्यता के कारण उनकी क्लास में किसी को कोई डर नहीं था । उनकी उपस्थिति ही स्वत शांति और अनुशासन साथ लेे आती ।* 

*अगर शिप्रा मैडम की बात की जाए तो भला कौन है जो उनको नहीं जानता । कड़े अनुशासन का पालन कराने की वजह से वह पूरे विद्यालय में मशहूर थी । खासकर लड़कियों की क्लास में उनका अच्छा खासा खौफ और दबदबा था । मगर यह दबदबा अनुशासन और चरित्र की नीव को मजबूती से थामे रखने का था ।*

*छठी कक्षा के समापन के बाद भोर का वह विद्यालय हमारे जीवन से सदा के लिए सांझ की तरह समाप्त हो गया । भोर की लालिमा अब दिन के तपते सूरज ने ले लिया था । छठी कक्षा के बाद की पढ़ाई का समय 11:00 बजे के बाद का था । लड़कियों की 11 बजे की छुट्टी के के समय उनके निकालने का इंतजार करते लड़कों की भीड़ से पूरी सड़क भारी होती । सड़क के दोनों ओर लड़कों कि भीड़ और बीच से निकलती लड़कियों का रेला। वह पल ही सबके लिए धड़कने बढ़ाने वाला अद्भुत पल होता । कुछ तो मनवांछित दर्शन कर वहीं से वापस लौट आते और फिर अगली सुबह और 11 बजे के इंतज़ार में सारा दिन यूं ही गुज़ार दिया करते थे । बिना मोबाइल के भी उस दौड़ में संपर्क साधने की कोई कमी न थी । अद्भुत दौड़ था वो । समय ने सबको काफ़ी समय दे रखा था । समय इतना होता कि उसे काट - काट कर खत्म करना होता था । अंतहीन समय का दौर था वो ।*

*सातवीं कक्षा के सेक्शन - ए के क्लास टीचर लक्ष्मी सर हुआ करते थे । वे हमें अंग्रेजी पढ़ाया करते थे । क्लास की पहली घंटी अंग्रेजी से आरंभ हुआ करती थी । अंग्रेजी पढ़ने में किसी को यकीन नहीं था । मगर क्लास टीचर ही अगर अंग्रेजी का शिक्षक हो तो हमारे पास कोई उपाय नहीं था । किसी तरह पिट - पिटा कर  हमने अंग्रेजी पास करनी सीख ही ली थी ।श्याम वर्ण होने के साथ-साथ लक्ष्मी सर का व्यक्तित्व भी काफी निराला था। प्रभु की दुकान की पान की लाली उनके मुख मंडल पर खूब फबती थी । हम उन्हें पढ़ाते वक्त कम और स्कूटर चलाते वक्त ज्यादा ध्यान से देखा करते थे । तिरछे होकर 20 किलोमीटर प्रति घंटे की निश्चित रफ्तार में स्कूटर चलाने का अंदाज हमारे लिए मनोरंजन और कौतूहल का विषय था ।*

*पतले - दुबले  और छरहरे बदन के सुनील सर हमें कभी-कभी संस्कृत पढ़ाने आया करते थे । मगर भारी व्यक्तित्व नहीं होने की वजह से हमने कभी उनके क्लास को तवज्जो नहीं दी थी ।वह दौर ही ऐसा था कि भारी व्यक्तित्व और दबंगता के बिना छात्र शिक्षण लाभ ले ही नहीं पाते थे ।*

*किसी तरह सातवीं कक्षा से प्रोन्नत होकर हम आठवीं कक्षा के सेक्शन- ए में पहुंच गए ।*

*आठवीं कक्षा के सेक्शन - ए के क्लास टीचर थे - दुर्गानंद झा सर । वे हमें में हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे । उनके साथ हमारा समय ज्यादा व्यतीत हुआ । एक तो वे हमारे मुहल्ले ( दुर्गापुर) में रहते थे और ऊपर से उनका एकमात्र पुत्र पिंटू (दिव्यांशु) हमारे साथ हमारा क्लास - मेट हुआ करता था । छठी कक्षा से ही उन्होंने हमें कॉन्पिटिशन एग्जाम के बारे में जानकारी ही नहीं दी  बल्कि तैयारियां भी शुरू करवा दी थीं । सफेद कुर्ते - पजामे में हमेशा मुस्कुराते और पान चबाते 6 फुट के आसपास के एक महान व्यक्तित्व ने हम जैसे निचले तबके के छात्रों में आशा की किरण बचपन के उस मोड़ पर प्रज्वलित कर दिया था  उसकी रोशनी आज भी जीवन को सही दशा और दिशा दिखा रही है । अपने बच्चे और आम छात्रों में रत्ती भर का विभेद नहीं किया उन्होंने । लेख और सुलेख का पाठ हमने उन्हीं से पढ़ा । हिंदी साहित्य को प्रत्येक लिहाज से उन्होंने हमें उसी उम्र में ही अवगत करा दिया था । बिना गुरु - दक्षिणा के घर पर समय देकर उन्होंने हमें सदा कृतार्थ किया जिनका ऋण जन्म जन्मांतर तक नहीं चुकाया जा सकता ।*

*बात अगर शिक्षकों की हो तो कामदेव सर के शांत एवं सौम्य व्यवहार को कैसे भुला जा सकता है ? ऐसा कौन होगा जो उनके शांत और सौम्य व्यवहार से अभिभूत ना रहा हो ?  बिना किसी डांट- डपट के उनके क्लास में स्वत शांति का छा जाना उनके विशाल व्यक्तित्व के प्रभाव को मूर्त रूप दिया करता था । उनके मुख- मंडल  पर एक दिव्य प्रकाश हमें सदा दिखता रहता था ।*

*बात अगर हिंदी और संस्कृत की हो और चंद्रकांत सर आंखों के सामने साक्षात खड़े न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता । हमारे मनो- मस्तिष्क में वो समाहित हैं ।चंद्रकांत सर का भारी भरकम लंबा - चौड़ा व्यक्तित्व और चेहरे का ओज पूरे शहर को सुशोभित करता जान पड़ता था । नया टोला में रहने के कारण वहां के मशहूर और दबंग छात्र तक भी  डर से अपनी बगलें हांका करते थे उनके सामने । बिना बेंत की मार से ही अच्छे अच्छे टेढों को भी सीधा करने का अद्भुत सामर्थ था उनमें । बिना पुस्तक उठाए संस्कृत के भारी-भरकम श्लोकों की बौछार से घायल होने से भला कौन बचा होगा ? सफेद धोती -  कुर्ते में चौड़े माथे पर चंदन का लाल तिलक और उनके कंठ से निकला संस्कृत का एक-एक श्लोक से ऐसा जान पड़ता मानो किसी यज्ञ वेदी पर हम आहुति देने बैठे हों और कोई दिव्य- पुरुष अपने मंत्रोच्चारण से यज्ञ संपन्न करवा रहा हो । उनके व्यक्तित्व और शब्दों की छाप हमारे मन मस्तिष्क पर आज भी तरोताजा है । संस्कृत पढ़ाने में पूरे शहर में उनका कोई सानी नहीं था और उनका इसपर एकाधिकार था ।*

*प्रेमचंद सर का अद्भुत सानिध्य  हमें मिला था।  करिश्माई व्यक्तित्व , असाधारण भाव - भंगिमा और वाकपटुता के स्वामी । न जाने कितने विशिष्ट गुणों से युक्त प्रेमचंद सर पूरी सृष्टि में केवल एक ही हो सकते थे । इतिहास पढ़ाते थे। उनकी लिखावट का सौंदर्य इतिहास जैसे बेझिल विषय को भी अपनी खूबसूरती से जीवंत बना देने के लिए पर्याप्त होती थी । उन्होंने केवल इतिहास ही नहीं पढ़ाया बल्कि स्वयं इतिहास रचा था । बिना वाक्यों के ही बस सुंदर आलेख के माध्यम से उन्होंने मृत हो चुके इतिहास  को जीवंत कर डाला था । उनकी जादुई बातों का दौर और कहानियों की कड़ी हमें जाग्रत अवस्था में ही स्वप्नलोक की सैर करा दिया करता था । काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद चौक से बिल्कुल सीधा लिखते हुए उनकी लिखावट की छाप सीधे हमारी आत्मा में उतर आती । वे स्काउट गाइड के प्रभारी शिक्षक भी थे जिनके सानिध्य में न जाने कितने छात्रों ने अपने जीवन की दशा और दिशा दोनों को एक नया आयाम दिया था । प्रयोगशाला दिखाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी । शब्दों को भी उनके बारे में लिखने का सामर्थ्य नहीं । कभी न भूले जाने वाला वह महान शख्स आज भी हमारे मानस पटल पर काली ब्लैक बोर्ड पर सफेद चौक से मोतियां पिरोते दिखता रहता है ।*

*उन दिनों स्कूल में नया नया कंप्यूटर आया था । कंप्यूटर क्लास के प्रभारी  कंदगोपाल सर थे । कंप्यूटर के लिए आरक्षित कमरा था जिसमें दो या तीन गेट होते थे। सभी का प्रवेश वर्जित था। केवल वे ही छात्र उस कमरे में प्रवेश पाते जिन्होंने कंप्यूटर कोर्स में अपना नाम डलवा रखा था । अधिकांश तो उस समय कंप्यूटर को देख भी नहीं पाते थे । कंप्यूटर वायरस भी हमें आदमी को बीमार कर देने वाला वायरस ही समझ आता था। कंद गोपालसर कंप्यूटर पढ़ाने के साथ-साथ एडवांस मैथ भी पढ़ाया करते थे। उनका साधारण व्यक्तित्व मनमोहक हुआ करता था।*

*राजदूत लेकर आने वाले आजाद सर को भला कौन भूल सकता है ? वह हमें भूगोल पढ़ाया करते थे । उनका साम्य व्यवहार हमारे बीच काफी मशहूर था ।*

*तीखे नैन - नक्स और माध्यम कद के विश्वनाथ सर का एक अलग ही स्थान था ।विश्वनाथ सर हमें लगभग सारा सब्जेक्ट पढ़ा दिया करते थे ।*

*फिर दुबले - पतले गौड़ वर्ण के आंखों में मोटे फ्रेम का चस्मा लिए भवेश सर को कौन भूल सकता है ? भवेश सर बीमार रहने की वजह से  कभी-कभी ही क्लास लिया करते थे । मैथ सिखाने का का उनका तरीका निराला था । त्रिकोणमिति के फार्मूले को हमारे दिमाग में स्थित करने में उसने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी ।*

*सुरेंद्र सर गणित पढ़ाते थे। इनकी एक विशिष्ट पहचान थी । पान चबाते  समय जीभ को बार-बार बाहर कर दाएं - बाएं करने की इनकी नकल करने में  न जाने कितने लड़के अपनी सामत बुला बैठते थे । थी शानदार तरीके से आसानी से कठिन सवालों को समझाना उनके लिए चुटकी का काम था।*

*जगदीश मंडल सर मैथ और साइंस पढ़ाने वाले बहुत ही सौम्य स्वभाव सब के व्यक्तित्व थे । ऐसे तो  वे बहुत  ही शांत स्वभाव के थे लेकिन अनुशासन तोड़े जाने पर हाथ पांव भी तोड़ देने का सामर्थ रखते थे ।*

*समय बदला और नए ज्वॉइन किए शिक्षकों में अजय सर अन्य शिक्षकों से ज्यादा मशहूर हुए । वे हमें जीव - विज्ञान पढ़ाया करते थे। लंबे और गोरे रंग वाले, आंखों में चश्मा लिए अजय सर के दोस्ताना व्यवहार ने हमारे मन में बैठे उन पुराने शिक्षकों  के भय को बहुत हद तक दूर कर दिया था । दोस्ताना व्यवहार के बावजूद अनुशासन का दामन थामे हमने भी नई दशा और दिशा को हरसंभव सम्मान दिया था ।* 

*आज भी स्कूल के पास से गुजरने पर ऐसा आभास होता है मानो न जाने कौन सा शिक्षक पीछे से कान खींचकर वही पुराना सबक न पूछ ले। स्कूल के आहाते में झालमूढ़ी का अपना खोमचा लिए परमेश्वर जितनी तन्मयता से हमारे लिए झालमुढ़ी बनाया करता वो स्वाद , वो जायका भी समय के साथ फीका पड़ता जा रही ।*

*कुल मिलाकर हमारा स्कूल प्रतिभावान शिक्षकों से भरा था, जिनकी प्रतिभा के आलोक में हजारों जिंदगियां गुलज़ार हुआ करती थी जिसकी रोशनी आज भी हजारों जीवन का पथ आलोकित कर रही है। अब शिक्षा और शिक्षक का प्रारूप बदलते समय के साथ बदल चुका है । डर के साथ - साथ सम्मान की भावना की जगह व्यावसायिक संबंधों ने लेे लिया है जिनकी जड़ें उतनी पुख्ता नहीं जितनी कल हुआ करती थीं । राजनीतिक इच्छशक्ति की कमी ने सिलेबस के साथ - साथ वो सबकुछ बदल दिया है जो जीवन को जीवंत रखने का आधार हुआ करती थी ।*

(राजू दत्त ✍🏻)

Sunday 5 July 2020

ख़ून पसीना

*एक गरीब दोस्त भी फटका चप्पल में पेपर बेचकर तुमको पढ़ाया - लिखाया डाक्टर बनाया । यहां तक कि तुमको - आप आप बोलकर इज्ज़त देता रहा और तुम उसका बोटी - बोटी नोच नोच के खाया । सूख - सूख के चूसा हुआ केतारी जैसन हो गया उ । सब रस पी गिया तुम । उ रोज रोता है छिप - छिप के । उसका क्या ? घर का गरीब तुमको नै दिख रहा है ? उ अभी भी अपना बचा खुचा ख़ून बहाने का तैयार है तुमरे लिया । किडनी , लीवर , आंख शरीर का सब्बे चीज से दोस्ती निभाया उ । खाली पैर बिना चप्पल के तुम रा खातिर सब सावन में बाबा धाम गया । इतना कबूलती किया कि आज तक पूरा नै कर पाया । भगवान सब भी गुस्सैल है । तुमको नै पता कितना ख़ून पसीना से तुमको पाला पोसा और पढ़ाया  औरो तुम साला अभी भी विद्यार्थी जीवन का चद्दर ओढ़ कर टाटा गोल्ड का चायपत्ती और फूल क्रीम वाला दूध वाला चाय और आमलेट चबाता रहा । आज तक उ लड़का टाटा गोल्ड वाला चाय पीना तो दूर सूंघा तक नहीं है । नंगा पैर पेपर लेकर दौड़ दौड़ के जो कमाया तुमको भेजा और तुम नायकी का जुत्ता पहिन के घूमा है । उसका खून पसीना वाला पैसा तुम लौंडियाबाजी में भी लुटाया । हमको बोलने दो आज । बहूते लिहाज़ किए हम अब उ लड़का का दरद नै देखा जा रहा । तुमको उ कुछ नै कहेगा । तुमरे लिए देशी घी का ठेकुआ नीमकी बनाते बनाते अपना हड्डी गला दिया । अपने धी नै खाया कभी तुमको खिलाया । छाती फटता है हमारा । उ तुमको कभी नै बोलेगा , कभी नै ।*

बाल - विद्यापीठ

बाल - विद्यापीठ

सफेद इस्तरी की हुई धोती, हल्के हरे रंग का खादी का कुर्ता और ऊपर से काले रंग का हाफ नेहरू जैकेट और लंबी और तीखी नाक पर मोटे फ्रेम वाला चश्मा पहने गौर वर्ण का दुबले-पतले  आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी जिनकी आवाज में इतनी टनक होती कि पूरे स्कूल को सुनाई पड़ जाती । उस शानदार व्यक्तित्व का नाम था - सच्चिदानंद दास, बाल विद्यापीठ का प्रधानाध्यापक । विद्यालय ही उनका घर था । पांचवी कक्षा का लकड़ी से घिरा कमरा और एक कुर्सी - टेबल और कुछ किताबों - स्टेशनरी के बोझ से दम तोड़ती लाचार अलमारी, बस यही थी उसकी जीवन भर की कमाई और जमापूंजी । चने के सत्तू का एक डब्बा और हॉर्लिक्स की बोतल यही था उनका किचन का सामान । स्कूल का चापाकल और शौच - घर ही उनके लिए पर्याप्त था । एक रस्सी पर सूखती सफेद रंग की धोती की दिव्य सफेदी मानस पटल पर आज भी तरोताजा है । प्रधानाध्यापक के साथ साथ वे पांचवी कक्षा के प्राचार्य भी थे । पतले बांस की करची से न जाने कितने लोगों का भविष्य रच डाला था उस असाधारण व्यक्ति ने ।

उस जमाने में भी उस विद्यालय में लड़के लड़कियों में विभेद नहीं था । सब साथ - साथ पढ़ते थे । कक्षा 1- बी के टीचर थे श्रीवास्तव सर,  1- ए के महेंद्र सर 1 के राजेंद्र सर , दो के राय सर , 3 के  शर्मा सर , 4 के  कमलू सर और पांच के स्वयं सच्चिदानंद सर ।

श्रीवास्तव सर सूखे पेट की भी चमड़ी पकड़कर सजा देने में माहिर थे,  तो राजेंद्र सर के पहाड़े की क्लास में शायद ही कोई उनकी बेंत की मार से  बचा हो ।  राय सर का नाम ही खौफ के लिए काफी था और वो सेकेंड सर के नाम से हमारे बीच मशहूर थे । शर्मा सर कानों के नीचे बाल खींच कर सीधा कर देते और कमलू सर पूरे सर के बाल खींचकर शरीर तक को उठा लेने का सामर्थ रखते थे । सच्चिदानंद सर तो प्रिंसिपल ही थे । टी. सी. के नीचे बाद भी बेमानी थी ।

पठन- पाठन से ज्यादा महत्व बिगडों को सुधारने पर था, जिसका भरपूर ज्ञान शिक्षकों को था । उन दिनों स्कूल में पिटने का मतलब घर पर भी धुलाई थी, आज की तरह हमें उतनी तवज्जो नहीं दी जाती थी । स्कूल ना जाने का कोई बहाना काम नहीं करता था। शिक्षक स्वयं घर आकर हमें उठा ले जाते थे । उन दिनों घड़ियां भी घरों में कम होती थी । जूट मील का  साढ़े नौ बजे के सायरन से डरावनी आवाज आजतक नहीं सुनी । पहली सायरन बजते ही खौफ का मंजर होता शुरू होता । घसीटकर स्कूल भेजने की तैयारी की जाती । चारों तरफ रुदन  और हाहाकार फैला होता। पौने दस बजे के सायरन पर रुदन का जोर और भी परवान चढ जाता और दस बजे के सायरन के साथ हमें किसी तरह घसीटकर स्कूल पहुंचा ही दिया जाता, जहां पहुंचकर सब कुछ सामान्य हो जाने की नियति से हम भय वश  समझौता करने को विवश थे।

आज भी वो जूट मील की सायरन और स्कूल की घंटियों की टनटनाहट कानों में गूंजती रहती है । स्कूल में टिफिन ले जाने की परंपरा नहीं थी । टिफिन के समय भी ठीक डेढ़ बजे जूट मील का सायरन बजता और इधर ही स्कूल की घंटी । दो बजे फिर घर से खाना खाकर आने की असहनीय पीड़ा किसे याद नहीं होगी । चार बजे छुट्टी होती थी । छुट्टी की घंटी का संगीत का आनंद मोक्ष के आनंद पर भी भारी था । 26 जनवरी और 15 अगस्त को केवल चॉकलेट बंटने की नाखुशी आज भी बरकरार है। जलेबियां न बटने का कष्ट काफी दुष्कर था । शानदार पढ़ाई के पीछे शानदार दंड- विधान का महत्वपूर्ण योगदान था । हर एक शिक्षक के दंड - विधान का अपना एक अलग ही तरीका था । मुर्गी बनाना, मुर्गा बनाना ,कान पकड़ कर बेंच पर खड़ा होना और हंसना भी नहीं, पीठ पर ईंट रखना, धूप में खड़ा करना ,क्लास में झाड़ू लगाने और उंगलियों के बीच पेंसिल डालकर उंगलियों को दबाकर पेंसिल को धीरे - धीरे घुमाकर सजा जैसा दंड सामान्य था । 

बारिश के मौसम में स्कूल की छतों से टपकता पानी, उन दिनों हमें एक खेल सा लगता था ।हमें शायद यह नहीं पता था कि यह महज  टपकता पानी ही नहीं बल्कि कुछ और ही था । शायद कम अर्थों के बोझ के कष्ट का रुदन था वो । हमारी फीस काफ़ी काम थी और उसपर भी कम लोग ही समय पर फीस दे पाते थे ।जर्जर अर्थवयवस्था ने स्कूल की नीव के साथ - साथ छतों को भी यातना दे दे कर उसे तोड़ दिया था ।

वार्षिक परीक्षा के समापन के बाद परिणाम घोषित होने वाले दिन में मुख्य अतिथि हर बार एक ही होते थे । वो थे - डॉक्टर दौलतराम ढंड। प्रथम , द्वितीय और तृतीय स्थान लाने वाले छात्रों को एक कलम प्रदान की जाती थी ।

समय की मार और धन के अभाव में वह देवालय एक बार दो हिस्सों में बट गया और वह पुराना और अमूल्य विद्यालय खाली हो गया और खाली हो गई हमारी अंतरात्मा । यह बंटवारा हमारी अनगिनत सुनहरी यादों का था, उन अमूल्य भावनाओं का था जिनकी जड़ें उसके  प्रांगण में आज भी जीवित है और प्रतीक्षारत भी ।आज भी अनायास ही कदम उस तरफ जाकर ठहर जाते हैं । नीले अक्षरों में स्कूल का धुंधला सा नाम आज भी अपनी गौरवपूर्ण दास्तां बयां कर रहा है। स्कूल की घंटी की जगह घिसावट का निशान आज भी ज्यों की त्यों है । स्कूल का वह प्रांगण आज कचरों से भरा है, जहां कल न जाने कितने सुंदर-सुंदर फूल खिले होते थे । स्कूल का वह चापाकल जो कभी न थकता था आज निस्तेज होकर सूखा पड़ा है । कानों में वो शोर अब भी गूंज रहा  पर कोई वहां नहीं है । स्कूल के सामने चाट वालों का खोमचा, झालमुड़ी वाले का पिटारा और खट्टे - मीठे मौसमी फलों की टोकरियां अब नहीं सजती। चाट की खट्टी खुशबू और  झालमुड़ी की तीखी महक अब भी जस की रस ताज़ी है जेहन में । कैलाश चाचा की चाय की दुकान भी अब बंद हो चुकी है , जहां न जाने कितने चाय और बिस्कुट हम खाते रहे। ब्रह्म मुहूर्त में सदा खुलने वाला वह दुकान अब सदा के लिए बंद था । हम आगे निकल आए और वह सब कुछ पीछे छूट गया । कुछ गुरुदेव अब नहीं रहे और जो है बिल्कुल भी ना बदले । रायसर , कमलू सर राजेंद्र सर और श्रीवास्तव सर से मुलाकात होती रहती है । इन गुरुओं ने हमें अपने रक्त से पोषित किया है, हमें जीवंत बनाए रखा है। इनका ऋण जन्म - जन्मांतर में नहीं चुकाया जा सकता । काश मैं इतना अमीर होता कि उस पुराने खंडहर हो चुके स्कूल को खरीद पाता और दोबारा उस सूख चुके उपवन को सींचकर जीवंत कर पाता। मेरी दृष्टि में इससे बड़ी गुरूदक्षिणा और कोई नहीं होती । गुरु - पूर्णिमा के पावन उपलक्ष्य पर उन सभी गुरुओं को मेरा सहृदय आत्मिक नमन है, जिन्होंने निस्वार्थ अपने रक्तो से हमें सींचकर हमें मजबूत शिक्षा और संस्कारों से अभिभूत किया है ।

(राजू दत्ता ✍️)

Tuesday 30 June 2020

घिसी चप्पल

पूरी तरह घिसी हुई नेपाली चप्पल जिसके भीतर के परतों का रंग भी अंगुलियों की लगातार घर्षना से बाहर आने को शेष न बची हो । इस पूरी तरह घिसी चप्पल ने अपनी परत दर परत को उधेरकर मानो अपना वक्ष फाड़कर सबकुछ दिखा देने का निश्चय कर रखा था । कुछ शेष न बचा था अब छिपाने को । वक़्त के थपेड़ों ने उस चप्पल को जर्जर से जर्जरतम अवस्था में लाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी । कई तरफ़ से फैल चुकी उसकी फीतों का आकार चीख - चीख कर यह बता रहा था कि लगातार धूप और बारिश में फटे पांव और चप्पल को जोड़े रखने के प्रयास ने उसे लगातार बार - बार कितनी असहनीय पीड़ा दी थी । फीते के पस्त होते हौसले को कहीं - कहीं से आलपिन लगाकर बुलंद करने की कोशिश की गई थी । न जाने कितनी कीलों को अपने जेहन में छिपाए वह जर्जर चप्पल अब भी घिसी जा रही थी । चलते - चलते फीते के अगले सिरे का बार - बार खुल जाना मानो उसकी बार - बार उखड़ती सांसों का आभास दे रही होती । उस जर्जर चप्पल ने मानो न जाने कितना बोझ उठा रखा था । बोझ था उस जर्जर होते शरीर का जिसने उसको धारण कर रखा था । उस कंकलरूपी शरीर को देख यह कतई नहीं कहा जा सकता कि उसके लेशमात्र बोझ से चप्पल इतना घिस सकता है । नहीं , यह इसके बोझ से इतना नहीं घिस सकता । जरूर यह बोझ जर्जर होते उस शरीर की उस भारी और वजनी आत्मा का था जिसने सारे समाज की अवहेलना, दुत्कार , तिरस्कार और भी न जाने कितने अनगिनत निष्ठुर और भारी भावों जैसे अनंत बोझ को उठा रखा था । उसकी चप्पल निश्चय ही उसके शारीरिक बोझ से नहीं बल्कि उसकी आत्मा के उसी अनंत भार से घिस  - घिस कर अपनी एक - एक परतों में उस असीम संघर्ष और संतापों को तह करके संजोए हुए था । वह चप्पल अपने आप में समस्त समाज का बोझ लिए पूरे समाज को प्रतिबिंबित कर रहा था ।
(राजू दत्ता ✍️)

Monday 29 June 2020

अमर बाबू

*अमर बाबू की मुहब्बत तो देखो , अपना नाम में भी रंजन लगा रखा है - विवेक रंजन का आधा नाम ले लिया है । बहुत छुप छुप के देशी घी का ठेकुआ छांका है अमर बाबू ने विवेक बाबू के लिए । बहुत गहरा रिश्ता है । जबसे विवेक बाबू का बिहा हुआ , अमर बाबू की जिंदगी में तूफ़ान आ गया । उस दिन दिलजले का दिल जला था धुआं धुआं होकर और राख अब भी रह रह के धधक उठता है । अब रंजन नाम काटने को दौड़ता है । मगर ठेकुआ अब भी देशी घी का बार बार छनता है और और बार बार दिल तार तार होता है । महुआ के मौसम में दरद का परवान माथा में चढ़ कर नाचता है और अमर बाबू का अमर प्रेम धुआं धुआं होकर बहुत दूर आसमान में उड़ता चला जाता है , उड़ता चला जाता है और उधर विवेक बाबू देशी घी का ठेकुआ - नीमकी फूल क्रीम वाला दूध के चाय में आमलेट के साथ कम्बल ओढ़ के मजा से खाता रहता है । विवेक बाबू बेवफ़ा निकला ।*
(उपन्यास का एक अंश)

Saturday 27 June 2020

मन की बात

'मन का बात' बोला जाता सुना नहीं । आम जनता का मन का बात त उसका कनिया भी नहीं सुनता तो फिनु ख़ास आदमी कहे सुने । आम जनता खाली आम बेचता है और खास जनता बात बेचकर आम जनता से आम कीनता है और खाली आम का सेक पीता है और फिर गुठली फेक देता है और फिर आम जनता वही गुठली से या तो पॉपी बनाकर बजाता है या फिनू से आम का गाछ उगाता है और फीनू से आम बेचता है । यही चक्कर चलता रहता है । ✍️

शेष

अपने ही तानों बानों में हम उलझ बैठे
बना पेंच जीवन को हम खुद उलझ बैठे
जानकर सत्य सभी फिर भी सब लुटा बैठे
गिनती की सांसों को यूं ही गवां बैठे 
अपने ही तानों बानों में हम उलझ बैठे ।

छोड़ रौशनी सूरज की अंधेरे में सिमट बैठे 
बहती हवाओं को यूं ही शोर समझ बैठे 
दौड़ दिवा - सपनों की सत्य समझ बैठे
छलावे को ही सत्य समझ बैठे 
अपने ही तानों बानों में हम उलझ बैठे ।

टिप - टिप गिरती बूंदों को व्यर्थ शोर समझ बैठे 
सिक्कों की खन - खन को संगीत समझ बैठे 
सीधे - सादे जीवन को बेकार समझ बैठे
अपने ही तानों बानों में हम उलझ बैठे ।

समय शेष है , बाकी है सांसे 
खुले आसमां के नीचे 
बिना मूल्य के, बिना उलझन के 
सत्य सदा ही भरा रहा , संगीत सदा ही गूंज रहा 
कर लो निर्मुल्य आलिंगन इसका 
कुछ ही जीवन शेष रहा ।

Wednesday 24 June 2020

संताप

बहुत रौशनी है आज इस मुकम्मल जहां में
मगर न जाने वो निगाहें कहां चली गईं
ढूंढ लेती थी हर वो तलाश मन की 
मगर जाने वो लोग कहां चले गए ।

चकाचौंध है आंखें इस गहरी रात में भी 
मगर न जाने वो टिमटिमाती डिबिया कहां चली गई
देती थी जरूरत भर रौशनी आंखों को 
मगर जाने वो शीतल रौशनी कहां चली गई ।

बहुत उजाले हैं आज गहरी रातों में भी 
मगर जाने वो रौशनी कहां चली गई 
बनते थे काजल उन कलिखों से भी 
मगर जाने वो आंखों का नूर कहां चला गया ।

आज सफेद रौशनी की चादर है, न ताप है न धुआं
अब हवा के झोंको से संघर्ष नहीं, बस मन का ताप है 
टिमटिमाना , बुझते हुए फिर जलना अब नियति नहीं 
अब केवल संताप है , जाने वो ताप कहां चला गया ।

Monday 1 June 2020

बड़का चुनाव, छोटका लोग

"आपका भोट कीमती है " इसको बेरबाद नहीं करना है। मोहर मारो तान के हमरा छाप पेहचान के। अबकी बार हमरी सरकार। जात पे न पात पे मोहर मारो सीना तान के। आप हमको भोट दो , हम आपको आजादी। इ सब के हल्ला गुल्ला औरो शोर शराबा से बार  बार लोकतंत्र जिन्दा होता है और औरो इलेक्शन के बाद कुपोषित होकर फिर मर जाता है। यही भारत का कभी न मरने वाला लोकतंत्र है और सारा दुनिया भारत का अमर लोकतंत्र का पुनर्जीवन देखकर दांतो तले ऊँगली दबाकर अपना अपना ऊँगली काट खाता है। ऐसे थोड़े न भारत एक सशक्त लोकतंत्र है औरो इसका चुनाव दुनिया का सबसे बड़का औरो अजूबा मेला है। इ मेला का मेन बाजार गांव में ही तो लगता है औरो पंचायत चुनाव तो दुनिया का सबसे बड़का चुनाव से भी बड़का होता है। आखिर पंचायती राज व्यवस्था ही तो लोकतंत्र का बीज होता है।  आज अगर मार्क्स औरो लेनिन जिन्दा होता तो इ चुनाव देखकर उसका सीना चौड़ा हो जाता। नयका आमिर - पुरनका गरीब , छोटका आदमी - बड़का आदमी , शोषक -शोषित , जनाना- जननी , कुकुर - बिलाय सब के सब  को बिना कोनो भेद - भाव के इस मेला में एक्के पिलेट में एक साथ पीला - पीला चाट औरो  झाल-झाल   घुपचुप औरो गुलाबी - गुलाबी जलेबी पेलते देख लेनिन औरो माओत्सेतुंग तो ख़ुशी से पगला गए होते।  क्या मंदिर , क्या मस्जिद , क्या गिरजा , क्या गुरुद्वारा सब जगह चौपाल में खचा- खच लोग अड्डा जमा देश के भविष्य पर चिंता में पगलाइल रहते है। "धर्म अफीम है " इ बात भारत में लागु नहीं है इ मार्क्स को पता नहीं था। भारत में धरम का मतलब अलग है। यहाँ धरम भी साम्यवादी चद्दर ओढ़कर सब पूंजपति लोगन का खर्चा - पानी से जिन्दा है। यहाँ बड़का आदमी मंदिर बनवाता है और छोटका लोग पूजा करता है और ' जेहि विधि रखे राम , का कीर्तन करते रहता है।  चाय औरो पान के दुकान के भीड़ देख , चीन -अमेरिका का भी माथा घूम जाता है और जिनपिंग औरो ट्रम्प दोनों सोच में पड़ जाते कि काहे न चाय और पान का दुकान खोले। चाय का स्कोप तो दुनिया देख ही लिया है। सैलून में तो सरकार गिरा - गिरा कर उठाते -उठाते लोग सब थक हारकर बीड़ी जलाकर अपना कलेजा सकते रहते हैं। सैलून अपना पीला दाँत निपोरे संसद को अपने दाँत के बीच का बड़का छेद दिखा - दिखा कर पानी -पानी कर देता है।

बड़ा सुहाना मौसम होता है। औरो हर आदमी अपना  भोट महा कीमती होने के अहसास मात्र से धन्ना सेठ को भी पानी पीला देता है। " आपका भोट कीमती है " इसका असली मतलब सारा दुनिया में यहीं लोग जानता है । बेइज्जत से बेइज्जत आदमी का भी कोनो इज्जत होता है यह चुनाव ही सिद्ध करता है। चुनाव के मौसम में कोनो आदमी बुरबक नहीं होता।  चुनाव बिना किसी भेद भाव के सबको बराबर समझता है।  असली साम्यवाद चुनाव के समय ही दीखता है। बिना कोनो क्रांति के साम्यवाद चुनाव में कुकुरमुत्ता के जइसन पनप जाता है जिसके खातिर मार्क्स अपने बच्चा लोग को भूख से मरने छोड़ दिया था।  उप्पर बैठकर मार्क्स सोच में पड़ जाता है कि भारत में क्रांति किये होते तो जच्चा बच्चा औरों उनका जच्चा बच्चा और फिनु उनका जच्चा बच्चा सब जिन्दा होता औरो आम जनता का आम का गुद्दा और जूस पीकर उसका गुठली उछाल उछाल कर आम जानता को लुटा देता और आम जानता एक समान रूप से चैन से उसका पॉपी बजाकर मस्त रहता।

यहाँ चुनाव मुद्दा पर नहीं होता , गुद्दा पर होता है। जिसका जितना बड़का गुद्दा , जीत उसका पक्का। इ बात पर दुनिया भर का राजनीती के जानकर रिसर्च कर रहा है और अभी तक गुद्दा का माने जान नहीं पाए हैं। कितना लोग तो उप्पर जाकर भी शोध में लगे हैं। गुद्दा क्या है ? कहाँ होता है ? कोनो ग्रन्थ में इसका जिकर नहीं।  इ एक गूंगे का गुर है और सब यहाँ गूंगा - बहरा ही तो है। 

नौजवान , देश कि शान , अपन - अपन बाइकवा झाड़ - पोछकर रेडी कर लेता है जिसका टंकी भी लोकतंत्र का रस पीकर फिर से जिन्दा होने के उम्मीद में कैंडिडेट लोगन का बाट जोहने लगते हैं। इ अलग बाट है कि टंकी को पेट्रोल पीकर ही काम चलाना होता है और रस चलाने वाला पी जाता है। टंकी फूल औरो कैंडिडेट का पैसा का बीड़ी - सिगरेट से हर फ़िक्र को धुंए में उडाता चला जाता नौजवानों का जत्था। क्या नौजवान , क्या बुड्ढा सब का सब शाम तक  लोकतंत्र का बोझा उठाते - उठाते थक कर चूर होकर दारू से ही अपना शरीर का दरद मिटा पाते हैं। दारू शौक थोड़े है , मज़बूरी है। लोकतंत्र इतना भी गरीब नहीं कि जान ले ले आम आदमी का।  दवा नहीं दे सकता तो क्या आम आदमी को दरद से मरने दे ? तो फिर दारु देता है। ठीक वैसे जैसे घर में भात नहीं बनने पर मां बगल वाला घर से माड़ मांगकर अपना बच्चा का भूख शांत करता है। फिर दारू खली पेट थोड़ो न भरता है , मन को भी भर देता है और सबको समान भाव से भर देता है। अगर दारू का महत्व मार्क्स और लेनिन को पता होता तो इतना लहू लुहान क्रांति का कोनो जरुरत नहीं था।  बस दारू पियो , दारू पिलाओ  अहिंसक आंदोलन से काम हो जाता।

फिर जाति भी कहाँ अपने त्याग बलिदान से पीछे हटे ? सब जाति अलग - अलग झुण्ड बनाकर लोकतंत्र का पौआ पकड़ कर उसको औरो मजबूत करने के लिए अपने - अपने तरफ से सबसे सियाना आदमी चुनकर तैयार कर लेता है जो उसके कीमती वोट का ठीक - ठाक कीमत लगाने का सबसे मेन रोल निभा सके। गांव का गांव छोटे - छोटे जातीय कबीलों में बंटकर कबीलामय होकर वैदिक काल के कबीलाई ढांचा की मान्यता को पुष्ट करता इस चुनावी उत्सव में बड़े जोशो - खरोश औरो होशियारी से भाग लेकर लोकतंत्र की लाज बचाने का दायित्व निभाता है।  राजनीतीक जागरूकता के हिसाब से दिल्ली भी इन गावों के आगे पानी मांगते नजर आते हैं।  राजनीती ने इन गावों को क्या दिया ये तो शोध का विषय है मगर इन गावों ने इन गावों ने राजनीती को यह पूरा भरोसा दिया है कि हम हर बार भले ही ठगे जाएँ , पर हर नए चुनाव को हम गांव नयी उम्मीद से देखेंगे और नए रेट पर सलटेंगे और शायद इसी पक्के भरोसे का ही तो करिश्मा है कि भारत में लोकतंत्र आज भी चैन कि नींद सो रहा है और अरस्तु के उस कथन को कि " लोकतंत्र मूर्खों का शासन है" को दांत निपोरे चिढ़ा रहा है।  लोग अपना सब कुछ लुटा लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए बिना किसी लिंग भेद के आदमी औरत का भोट और औरत आदमी का भोट देकर एक भी कीमती भोट बेरबाद नहीं करता। कई मतदाता तो बरसों पहले स्वर्ग जा चुके लोगों के नाम पर भी भोट देकर स्वर्ग में भी उनकी आत्मा कि लाज बचा लेते हैं और आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है को चरितार्थ कर जाते हैं।  यहाँ लोकतंत्र कि जड़ें कितनी गहरी है यह लोकतंत्र को भी नहीं पता मगर इनकी शाखा स्वर्ग तक जाती है ये बच्चा-बच्चा जानता है।

भारत का लोकतंत्र क्युकी विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो इसके हिसाब से इसका पेट भी सबसे बड़ा है और चुनाव के समय ही यह कुम्भकर्णी नींद से जगता है और मानो सबकुछ डकार जाने को तैयार रहता है और इसका पेट तो अंत में भरता है - खस्सी के मीट से और प्यास बुझती है दारू से।

[राजू दत्ता]✍🏻✍🏻✍🏻

Thursday 21 May 2020

चाय की चुस्की

बाबा बहुत चाय पीते थे । हर वक़्त चाय चाहिए होती थी। चाय की एक केतली हर वक़्त चूल्हे पर हुआ करती और मां बिना ब्रांड वाली कोई सी भी चायपत्ती डालकर चाय बनाती रहती । चाय हमारे लिए केवल एक पेय ही नहीं था बल्कि रोटी खाने का एक माध्यम भी था । बहुत बचपन से हम भाई बहनों को भी चाय चाहिए होता था । सुबह मुंह हाथ धोते ही हमें चाय की एक प्याली के साथ रात की बची रोटी नमक - तेल से मिलाकर रोल बनाकर दी जाती और उसी चाय में डुबोकर हम उसे बड़ी चाव से खाया करते । गरमा गरम रोटी हमें पसंद नहीं थी इसीलिए रात को ही ज्यादा रोटियां सेककर रख दी जाती । बासी रोटी वो भी नमक तेल लगी का चाय के साथ का जायका आज भी ताज़ा है । फ़िर शाम को चाय - मूढ़ी का मजा लेना । बाटी में चाय और उसमें तैरती मूढ़ी को चम्मच से निकालकर उसे खाना बड़े संयम और अनुभव का काम था जिसे हम बख़ूबी जानते थे । अक्सर शाम को चाय रोटी ही खाकर सोना होता था । दूध रोटी हमें रास न आता था चाहे उसके पीछे जो भी वजह रही हो । दूध भी बस चाय की असली काली रंगत को बस थोड़ा गोरा रंग ही देने के लिए डाला जाता । आज वाली फूल क्रीम की चाय नहीं होती थी । आग में जली - जली सी काली केतली ने ही हमारे बचपन को अपना रंग दिया था । चाय ने ही हमें बड़ा किया । फिर ट्यूशन पढ़ाने का दौर आया तो जैसे चाय मानो जिंदगी से और भी जुड़ती चली गई । जिस घर में जाओ वहीं एक कप प्याली चाय के साथ नमकीन बिस्कुट और कभी दालमोठ । 

दोस्तों के साथ तरके सबेरे उठकर सैर पर जाना और गुटका बिस्कुट का पूरा पैकेट और मिट्टी की भांड में चाय की चुस्की और अंतहीन बातों का दौर । कभी शहीद चौक पर राजू भैया की गहरी चाय , कभी पी. एन. टी. चौक पर शाम की चाय । ओ. टी. पारा शिव मंदिर के पास की गुमटी की चाय की यादें । दुर्गा स्थान चौक की बिल्कुल अलग स्वाद वाली चाय का जायका वो भी इलायची वाली कौन भूल सकता । शिव - मंदिर चौक पर अशोक भैया की चाय और साथ में उनका व्यव्हार अंतर्मन में आज भी ताज़ी है । मिर्चाईबाड़ी चौक के पास डब्बू भैया की दिलकश चाय का जोड़ कहां ? शाम को रेलवे फिल्ड की नींबू वाली चाय और दोस्तों की भीड़ और राजीव बाबा की कभी न खत्म होने वाली गुफ्तगू और अलौकिक ज्ञान का वो दौर किसे याद न होगा ? चाय के साथ गोकुल स्वीट्स की निमकी का स्वाद कैसे फीका हो सकता है । बड़ा बाज़ार और रबिया होटल का चाय और समोसे का कर्ज आज भी है । श्यामा टॉकीज के पास लेकर वाली चाय भी कभी कभी पसंद की जाती रही जो हमें स्वाद भले ही उतना न दे पाती मगर मधुर पलों का अहसास जरूर दिया करती थी ।मेडिकल कॉलेज की कैंटीन में डॉक्टर बंधु (अक्की बाबू) के साथ चाय पर चर्चा और रास्ते में झा जी के ढाबे पर चाय और पनीर पकोड़े पर बहस का नशा अफीम के नसे से कम न था । हर चाय की दुकान पर साथ राजीव बाबा का होता ही था। हफला - मरंगी से लेकर काकी की दूकान , बस चाय और राजीव बाबा का अंतहीन साथ । चाय की बात हो और डॉक्टर बाबू विवेक की बात न हो तो चाय का किस्सा अधूरा होगा । पहली बार कोई दोस्त मिला था जो खुद चाय बनाकर कर पिलाता । छोटी गैस स्टोव और चाय का सॉसपैन बस यही उसकी दुनिया होती ।  घंटों खौलती गहरी दूध वाली वो असाधारण चाय और उसके बीच का गहन वार्तालाप । प्यार पर गंभीर चर्चा और चाय की चुस्की का वो दौर मानो वक़्त थम सा जाता ।  चाय तो बस एक जरिया था । असली स्वाद दोस्तों के साथ का था । चाय रोमांस है । चाय की चुस्की विचार है । इस चाय ने सबको न जाने कितने अनमोल रिश्तों का तोहफ़ा दिया है । चाय बस एक चुस्की भर नहीं बल्कि सामाजिक जुड़ाव की एक मजबूत कड़ी थी जिसने हम सबको साम्यता के बंधन से जोड़ा था जहां बस प्रेम का माधुर्य रस हुआ करता था जिसकी मिठास जेहन में आज भी ताज़ी है ।
☕☕☕
(राजू दत्ता ✍🏻)

[उन सभी मित्रों और चायवाले बड़े भाइयों और उनके परिवार वालों को समर्पित जिसने अपने प्रेम से हमें सदा अनुग्रहित किया है । बहुत सारे मित्रों और लोगों के नाम उद्धतरित नहीं किए जा सके परन्तु हर किसी ने प्रेम के माधुर्य रस से हमें सींचा है । हर एक व्यक्ति मेरी अंतरात्मा से जुड़ा है । उन सबको मेरा नमन है ।🙏🏻🙏🏻🙏🏻]
© राजू दत्ता

Wednesday 20 May 2020

गांव हूं मैं

हां गांव हूं मैं 
धूप में शीतल छांव हूं मैं
धूल और मिट्टी ही पहचान मेरी 
व्याकुलता में ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं ।

मौन था मैं
जब लगा था लांक्षण 
असभ्य , जाहिल और गवार हूं मैं 
गए थे छोड़कर , सिसका था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

जोहता रहा था बाट मैं
तेरे जाने के बाद मैं
न तू आता ,न तेरी खबर 
शहर के आगे बेअसर था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

सिक्कों से खाया चोट था मैं
पूछी न किसी ने सुध मेरी 
अपनों के बीच अनजान हूं मैं
वात्सल्यता ही पहचान मेरी 
हां, वही गांव हूं मैं।

देखकर छाले पांव के
सिसका हूं बारम्बार मैं
लुटाउंगा ममता की फिर वही छांव मैं
कोई मुझे रंजिश नहीं
हां, वही गांव हूं मैं ।

सींचा था सारा शहर
अपने ही रक्त से 
क्यूं जुदा हुए दो जून से 
धूल मिट्टी से सजी, भाली गवार हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

प्रकृति की वरदान हूं मैं
समझ न पाए मुझको तुम
न भूखों सोने देता तुझको मैं
हां, वही वरदान हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

आओ लौट, जोहता अब भी बाट मैं
वेदना मिटाने का कारगर उपाय हूं मैं
प्रकृति से जीना सिखाने का पर्याय हूं मैं
हां, वही ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

*(राजू दत्ता)*✍🏻

Tuesday 19 May 2020

अंतर्मन

नेत्र मात्र का खुलना ही दिख जाना नहीं 
अंतर्मन के चक्षु ही सत्य बतलाते हैं ।

अधरों का हंसना मात्र ही आनंद नहीं 
अंतर्मन की गहराई ही सत्य बतलाते हैं ।

मिले जो हाथ मात्र वो साथ नहीं
अंतर्मन का मिलना ही सत्य बतलाते हैं ।

देकर अन्न मात्र ही मिटाना भूख नहीं 
अंतर्मन की करुणा ही सत्य बतलाते हैं ।

मंदिर मस्जिद जाना मात्र ही भक्ति नहीं 
अंतर्मन की शुद्धि ही सत्य बतलाते हैं ।

नेत्र मात्र का खुलना ही दिख जाना नहीं 
अंतर्मन के चक्षु ही सत्य बतलाते हैं ।

(राजू दत्ता) ✍🏻

Friday 15 May 2020

चवन्नी की कॉमिक्स

उन दिनों टेलीविज़न और दूरदर्शन का लुफ्त उठाना सबके लिए सहज नहीं होता था और इसी बात की कमी को हमारी एक दूसरी दुनिया पूरा कर दिया करती थी और वह थी हमारी अपनी - "कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं की दुनिया"

अक्सर मुझे वो दिन याद आ जाते हैं जब शाम ढलते ही सीधा सीताराम लाइब्रेरी जाया करता था और गोवर्धन भैया ४-५ कॉमिक्स की गड्डियां मेरे सामने रख देते थे । उनमें से मैं जिनको पढ़ चुका होता अलग रख देता और मेरे हिसाब से जिन कॉमिक्स के टाइटल नए और मेरे पसंदीदा चरित्रों वाले होते उन्हें चवन्नी प्रतिदिन किराए के हिसाब से पढ़ने के लिए घर ले आता था । ऐसे तो दो चार और भी लाइब्रेरी थी शहर में मगर जो बात गोवर्धन भैया की सीताराम लाइब्रेरी में थी वो किसी और में नहीं थी । एक तो घर के नजदीक और बिल्कुल हमारे स्कूल "बाल विद्यापीठ " के करीब और ऊपर से गोवर्धन भैया और उनके सभी परिवार वालों का शालीनता पूर्ण व्यव्हार । वह केवल लाइब्रेरी नहीं बल्कि हमारे लिए एक वटवृक्ष की तरह था जिसकी छाव में हमारे बचपन की कौतूहलता पली - बढ़ी । वह केवल कॉमिक्स और चवन्नी का रिश्ता भर नहीं था बल्कि कुछ और ही था जिनकी जड़ें आज भी  उन यादों का पोषण करती हैं । लाइब्रेरी के सामने शो केस में "इन्द्र की हार" वाली डाइजेस्ट की तस्वीर आज भी ताज़ी है । डाइजेस्ट का भाड़ा कॉमिक्स से ज्यादा था तो कभी कभी मिला करता था । पहली कॉमिक्स जो भाड़े पर ली थी आज भी याद है -"जासूस टोपिचंद और पेट्रोल की खेती"। उस समय कॉमिक्स पढ़ना भी एक चुनौतपूर्ण कार्य था जिसे हम अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर पढ़ा करते थे ।

उस समय मेरे चहेते कॉमिक्स चरित्र ही हमारे सुपरहीरो हुआ करते थे. 

‘वो मारा पापड़ वाले को’ बांकेलाल का यह मशहूर और पसंदीदा डायलॉग मुझे, मेरे भाई बहनों और दोस्तों को गुदगुदाता था और हम कहानी के अंत तक यही चाहते थे कि बांकेलाल एक बार और बोले ’वो मारा पापड़ वाले को’। बांकेलाल की किस्मत और उनको मिला श्राप भला कौन भूल सकता है । यह रोमांच शायद आज भी इसलिए बरकरार है क्योंकि वो कानों में इयरफोन लगाकर सुनी जाने वाली फूहड़ कॉमेडी नहीं थी, साबू का ज्यूपिटर ग्रह से आना और धरती पर बस जाना मेरे लिए एक ऐसा रोमांच था जैसे कि मैं स्वंय साबू के ग्रह पर घूम आया हूं.. बिल्लू के बाल जो हमेशा उसकी आंखो के छज्जे को ढंके रहते थे मैं यही सोचता था कि आखिर इसको दिखता कैसे होगा.. शायद यही सुनहरा बचपन था और मैं भी यही कहने की कोशिश कर रहा हूं कि तकनीक ने इस नस्ल से बचपन के इस रोमांच को दूर कर दिया है.. चाचा चौधरी, साबू, नागराज, ध्रुव, डोगा, तौसी, भोकाल, अंगारा, आक्रोश, क्रुक बॉन्ड, परमाणु, बांकेलाल, पिंकी, रमन, और बिल्लू के दीवाने अपने चहेते कॉमिक्स चरित्रों को पढ़ने के लिए अपने दोस्तों के साथ कॉमिक्स की अदला बदली कर पैसों की बचत भी कर लिया करते थे । एक नहीं, दो नहीं ढेर सारी कॉमिक्स पूरे महीने के लिए संजो कर रखना शौक हुआ करता था, लेकिन दौर बदला और कॉमिक्स चरित्रों से नए बच्चों का मन ऊब गया जमाना डिजीटल था बच्चों ने भी कॉमिक्स से बेहतर विकल्प आज कल के स्मार्ट फोन्स को चुना तकनीक के सहारे इतने आगे निकले कि अपने चहेते कॉमिक्स चरित्रों को तो अब याद भी नहीं करते यूं कहें तो साबू की लंबाई का रोमांच इन स्मार्ट फोन्स ने खत्म कर दिया।

यह तो सभी जानते थे कि "चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज़ चलता है" लेकिन कंप्यूटर से भी तेज़ दिमाग वाले आदमी को मिनी कंप्यूटर के आगे भूल गए.. उस जमाने में कॉमिक्स बच्चों के लिए मनोरंजन साधन के साथ-साथ प्रेरणादायक कहानियों का एक जखीरा था.. लेकिन अफसोस आज इन कॉमिक्स चरित्रों में किसी को दिलचस्पी नहीं है.. जिन कॉमिक्स और कई बाल पत्रिकाओं ने सालों तक बच्चों के दिलों पर राज किया उनका तकनीक के आगे कुचला जाना बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है.. तकनीक ने भले ही इस नस्ल को एक छोटे से डिब्बे में ब्रह्मांड दे दिया हो लेकिन जो बाल साहित्य कभी बच्चों की जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश हुआ करते थे आज तकनीक के आगे दम तोड़ते नज़र आ आते हैं.. इस बात का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि तकनीक का त्याग कर दें लेकिन अपने उस अंश को जिसे हम भूल चुके हैं एक बार फिर अपनी इस पीढ़ी को याद दिलाना चाहिए ।

आज का बचपन बदल चुका है और  बाल पत्रिकाओं और कॉमिक्स अपनी उम्र की ढलती कगार पर है । सवाल यह है कि उस दौर में बच्चों को कॉमिक्स चरित्र इतने अज़ीज़ क्यों थे क्यों आज वो बाल पत्रिकाओं की जगह महंगे मोबाइल फोन मांगते हैं । बेशक बीते सालों में काफी कुछ बदला चुका है, डिजिटल क्रांति ने शिक्षा के क्षेत्र में भी हर उम्र के छात्रों के लिए नए अवसर दिए तकनीक के विकास से बच्चों के मन और मस्तिष्क दोनों का विकास भी हुआ लेकिन इस सब के आगे बचपन छीना जाना बेमानी होगा । चंदामामा, चंपक , नंदन , गुड़िया , नन्हें सम्राट , बाल भारती न जाने कितनी किताबों ने हमारे बचपन को सींचा है । इन बाल पत्रिकाओं ने न केवल हमारे बाल्यमन में साहित्य रुचि का बीजारोपण ही क्या अपितु एक मधुर रिश्ता भी लाइब्रेरी वाले भैया और पेपर वाले भैया से स्थापित भी किया जो आज भी जीवंत है । उन बाल पत्रिकाओं और कॉमिक्स ने एक असाधारण सामाजिक ताना - बाना रच डाला था जिसमें आज भी हमारे रिश्ते जुड़े हैं । वो एक मजबूत सामाजिक कड़ी थी। आज फिर एक मजबूत सामाजिक कड़ी स्थापित करने और आज के बचपन को डिजिटल इंद्रजाल से निदान हेतु वैसे ही "सीताराम लाइब्रेरी " और वैसे ही गोवर्धन भैया की आश्यकता है ।
*(राजू दत्ता)*✍🏻

Tuesday 12 May 2020

हाफ पैंट

दो चार बार दर्जी मास्टर के यहां जाकर पता करने की कोशिश करने की कवायद कि वो पुरानी अब न इस्तेमाल होने वाली परिवार के बड़े सदस्यों की फूल पैंट से दो नई हाफ पैंट (निक्कर) सिलकर तैयार हुई या नहीं तो निराशा ही हाथ लगती थी । उस समय ये इल्म न था कि दर्जी मास्टर के लिए यह कोई प्राथमिकता का काम न था । नए कामों पर ज्यादा दाम मिलने का उत्साह हमारे बाल मन के कौतूहल से ज्यादा था और तो और हमारे काम के लिए दाम भी एकमुश्त मिलने के कम आसार और किस्तों में मिलने के आसार उनके काम को सुस्तता से भरने के लिए काफ़ी होते थे । कई बार दर्जी की फटकार सुनने के बाद बस एक ही उपाय शेष बचता था कि बस किसी भी बहाने से दर्जी की दुकान के सामने से बार बार गुजरा जाए और अपनी तिरछी नज़रों से पुरानी पैंट से बने नए निक्कर को तलाशा जाए । दर्जी के लिए यह काम भले ही दोयम दर्जे का था मगर हमारे लिए बिल्कुल नए से नए अनुभव का पल होता था । बेतरतीब तरीके से चिप्पियों वाले हाफ पैंट के सामने पुराने फूल पैंट से बना नया हाफ पैंट हमारे लिए एक नूतन गौरव का कारण था । एक पुराने फूल पैंट से दो हाफ पैंट को तैयार करवाने की जद्दोजहद और किसी तरह टेलर मास्टर का तैयार होना एक बहुत बड़ी बात होती थी । आखिर ढली उम्र वाली जर्जर फूल पैंट से दो हाफ पैंट को तैयार करना काफी बारीकियों भरा काम भी तो होता था और ऊपर से सिलाई के उतने दाम भी न मिलने और मिलने भी तो किस्तों में । आखिर किसी तरह वो दिन आ ही जाता जब दो हाफ पैंट घर आ जाता जिनमें काफ़ी अंतर भी हुआ करता था ।साइज के अंतर पर तो ध्यान भी न दिया जाता । किसी एक में जिप होती तो किसी एक में बटन । किसी में दो पॉकेट होते तो किसी में एक भी नहीं । ऐसे भी उन दिनों पॉकेट का इस्तेमाल बस जाड़े में हाथ डालकर रखने में होता था न कि सिक्कों को सहेजने में । हमारे लिए वो दिन उत्सव का ही होता था । पुरानी फूल पैंट से नए हाफ पैंट के उत्सव का दिन ।
(राजू दत्ता)✍🏻

Friday 8 May 2020

सजीव का आनंद

हमारी जिंदगी बहुत छोटी है दोस्तों. हमारे मिलने का कारण होता है , कोई न कोई अबूझ रिश्ता होता है. यह संयोग मात्र नहीं होता है. प्रकृति हमें मिलाती  है. जिंदगी की आपा धापी में हम उन्हें भूल जाते हैं. यह दुखद है. जब यादें दस्तक देती हैं तो हम अपने मन के द्वार तुरंत बंद कर देते हैं. कारण अज्ञात है. एक भय है कि कष्ट होगा उन यादों में जाकर. हम सदा अपने वर्तमान कॊ कल से जोड़कर दुखी होते हैं. बीता हुआ कल सदा सुखद प्रतीत होता है. परन्तु , सत्य तो यॆ है कि वो आनँद आज़ भी वर्तमान है. आनँद का मार्ग स्वयं बंद कर रखा है. हमने अपने अंदर उठने वाले आनँद कॊ दबाए रखा है. ऐसा क्या था कि बचपन में बिना किसी सुख साधन , वैभव और धन के मस्त रहते थे और आज़ सबकुछ है ,मगर वो चंचलता , वो उत्साह , वो उमंग , वह  ओज , वह तेज , वो आनँद नहीं है. बात विचार करने योग्य है.🙇विचार की आवश्यता है. कहीँ न कहीँ हमारे आकलन में भूल है. हमने बड़े होने का आवरण ओढ़ लिया है. आपने कोमल मन कॊ धीरे धीरे कठोर आवरण से ढँक लिया है. हम अक्सर याद करते हैं कि जब छोटे थे  तो दोस्तों के साथ दिनभर मस्ती किया करते थे. गुल्ली डंडे के खेल से लेकर बगीचे से आम चुराना , नदियों में देर तक नहाना , न जाने क्या क्या. सबकुछ आज़ भी यथावत है , वो आनँद भी यथावत है. हमने स्वयं कॊ इससे दूर रखा हुआ है. खेल कॊ देखकर और सोच कर अनुभव करना और खेल में हिस्सा लेने के अनुभव में कोई तुलना नहीं. किसने रोका है हमें उन पलों कॊ पुन: जीने से ? हमने स्वयं कॊ रोक रखा है. किसने रोका है अपने पुराने दोस्तों कॊ वैसे ही गले लगाने कॊ और कंधे पे उसी तरहा हाथ रखकर चलने कॊ ? किसने रोक रखा है दोस्तों के साथ पतंगबाजी कॊ ? किसने रोका है पानी में पत्थर फेंककर छल्लिया बनाने कॊ ? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है. हमने स्वयं अपनी असीमित चेतना कॊ संकुचित कर लिया है. हमने स्वयं अपना मार्ग बदल दिया है. कसूर किसका है ? जवाब अनगिनत होंगे , मगर खोखले होंगे. यही सत्य है. "हमारे पास समय नहीं है ", "अब हम बड़े हो गये हैं ", जिम्मेदारियां बढ़ गयी हैं " न  जाने कितने जवाब हम बनाते हैं. ये सारे जवाब खुद कॊ फुसलाने  के लिये है. हमने स्वयं से झूठ बोलना सीख लिया है. कारण ? कारण अज्ञात है. हम स्वयं का सामना करने से डरते हैं. हमारी उत्कंथ इच्छाशक्ति  कमजोर हो चुकी है क्योंकि हमने इसका पोषण करना छोड़ दिया है. आज़ हम बारिश में भींगने से बचते हैं. क्या खुद कॊ भींगने से बचाने के लिये ? नहीं. अपने जूते , अपना बटुआ और अपना मोबाइल बचाने के लिये. सोचने वाली बात है 🙇🏻छोटी बात नहीं. जीवन का सारा सार छिपा है इसमे. इच्छा होती है बारिश का आनंद लेने की मगर कुछ रोकता है. निर्जीव सजीव कॊ रोक रहा है. आश्चर्य है. निर्जीव चीज़े सजीव कॊ नियंत्रित कर रहीं हैं.अगर हम गौर करें तो आज़ हम आनंदित सिर्फ़ इसलिये नहीं हो पाते क्योंकि हमारा नियंत्रण निर्जीव पदार्थ कर रहा है. निर्जीव कॊ क्या पता ? कसूर सजीव का है. सत्य तो यह है कि हम स्वयं दुहरा चरित्र रखते हैं-एक सजीव का जो आनँद चाहता है और दूसरा निर्जीव का जो हमें नैसर्गिक आनँद से रोकता है. हम पोषण भी निर्जीव का करते हैं इसलिये निर्जीव सजीव पर विजित होता है. सजीव का पोषण करो दोस्तों , आत्मा की पुकार सुनो , आनँद कॊ चुनो , अपनी आत्मा का विस्तार करो , प्रकृति से जुड़ो , अपने बचपन कॊ पुनर्जीवित करो. समय सीमित है.
-सजीव महत्वपूर्ण है, निर्जीव तो निर्जीव है........

राजू दत्ता ✍️

लपटों का संघर्ष

गंगा घाट पर बहुत भीड़ भाड़ थी । चारों तरफ़ मेला सजा था । प्रत्येक पूर्णिमा के दिन यह मेला न जाने कितने युगों से सजता आ रहा है । गंगा स्नान का महत्व दैविक के साथ साथ आध्यात्मिक भी रहा है । मोक्ष का मार्ग यही वर्णित है । उस मेले की चका चौंध और शोर शराबे में मैं भी अपने परिजनों और मित्रों के साथ था परंतु अंतरात्मा कहीं और विचरण कर रही थी । कुछ ही देर में मैं सबसे नज़रे बचा कर उस घाट की ओर अनायास चल पड़ा जहां जाना अशुद्ध समझा जाता है । हां , वो समशान घाट ही था । मैं वहीं दूर जाकर ऊंचे बालू के टीले पड़ बैठकर उस निर्मल गंगा की अनवरत अविरल धारा को निश्चल बहते देख रहा था । शीतल हवा मंद मंद बह रही थी । कोई शोर न था । चारों तरफ शांति थी । दूर किसी कोने में नज़रे उठाकर देखा तो एक चिता सज रही थी । एक सुंदर और भव्य अर्थी सजी पड़ी थी। कीमती वस्त्रों में कई लोग इर्द गिर्द खड़े थे । किसी धनाढ्य व्यक्ति की अर्थी रही होगी शायद । कुछ पगों की दूरी पर एक और चिता सजी हुई धुंधली सी दिख रही थी जिसे किसी तरह चिता का रूप भर दिया गया था । कुछ लोग वहां भी थे मगर बहुत ही सामान्य कपड़ों में और कुछ तो अर्ध नग्न ही थे । सब कुछ बहुत स्पष्ट तो नहीं था मगर उतना भी धुंधला न था ।  कहीं से किसी का रुदन का स्वर नहीं था । शायद रुदन की भी एक आयु और अवधि होती है और उसकी समाप्ति के पश्चात वह फिर नहीं आती । भाव शून्य हो मैं सबकुछ देख रहा था । चिता धू धुकर जल उठी थी मगर उनकी अग्नि में भी न जाने क्यूं अंतर सा था । एक की लपटें लहलहा रही थी तो दूसरे की लहलहाने को संघर्ष कर रही थी । शायद संघर्ष का यह अंतिम संघर्ष है जो लपटों में दिख रहा था । कुछ ही घंटो में दोनों चिताओं पर लगे मेले छंट गए । एक चिता जलकर पूरी तरह शांत होने को थी और दूसरी अधजली सी धुओं से धिरी जलने को संघर्ष कर रही थी । न जाने क्यों मेरे कदम उसी और अनायास उठ पड़े । अब वहां कोई न था । सुलगती हुई राख न जाने क्यूं काफ़ी कुछ बयां कर रही थी । दोनों चिताओं से मेरा कोई आत्मीय संबंध न था । फ़िर भी न जाने क्यूं किस आकर्षण ने बांध रखा था । न कोई भाव था , न वेदना थी । बस अनंत अनुत्तरित प्रश्नों का विहवल शोर सा था ।(राजू दत्ता)✍🏻

Sunday 26 April 2020

अंतर्मन की व्यथा

मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था
दस्तक भी कुछ ऐसी थी
रोम रोम को जगा रहा था

पूछा मैंने कौन हो तुम 
निशब्द वह मुस्कुरा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

बेचैनी थी सांसों में 
फिर पूछा कौन हो तुम 
धुंधली सी काया थी उसकी
कुछ अपना सा भा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

पास गया तब जाकर पाया
अंतर्मन ही बुला रहा था
पूछा उसने कैसे भूल गए मुझको
ऐसा भी क्या आखिर भा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

सालों से भूले थे मुझको 
आखिर क्या क्या हो रहा था
याद कभी न अाई मेरी
ऐसा भी क्या सो रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

याद करो वो भोर बेला
क्या सानिध्य रस सा बह रहा था
बिन मेरे संग 
कुछ तुमसे न हो रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

मैं जो कहता झट से होता
आखिर कैसा नशा रहा था
तुम भी उन्मुक्त थे मैं भी ख़ुश था
जीवन अविरल सा बह रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

दिन चढ़ा फिर निकले तुम 
छोड़ के मेरा दामन तुम 
बल पड़ा था पेशानी पर
ऐसी भी क्या अभिलाषा रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

पीछे पीछे निकला था मैं भी
क्या आवाज ना आयी मेरी
सुनकर भी किया अनसुनी
जाने किस मद में तू जी रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

कर सब याद हुआ शर्मिंदा
नज़रे भी ना मिला रहा था
जीवन की इस आपाधापी में
खुद को ही तो भुला रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

गला घोंट कर खुद का ही
जाने कैसे जी रहा था
खोकर वो अनमोल सितारे 
माटी पत्थर बीन रहा था
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

बचा शेष जीवन कुछ पल 
इसलिए आया तू इस पल
चल वापस ले चल 
भोर सवेरा हो रहा है
मध्य रात्रि की बेला में
जाने कौन बुला रहा था

(राजू दत्ता) 🌞🌞🌞