Wednesday 6 August 2014

अपराजित हार


अपराजित हार

ये कैसी जीत है कि हम जहाँ खड़े हैं, वहाँ तलाश है उनकी जो पीछे छूट गये ? हर जीत में इंसान अकेला खड़ा होता है. रेस मे जीतने वाला विजेता तो कहलाता है, मगर हार मे मिलती हैं उनकी यादें जो दौड़ में पीछे छूट गये. जिंदगी की दौड़ भी कुछऐसी ही है. सपनों की उड़ान में आशियाने छूट जाया करते हैं. किसी चीज़ को पाने की कीमत किसी चीज़ को खोकर मिलती है. शायद इसलिए सबकुछ पाकर भी अधूरेपन का अहसास होता है. जवानी बचपन को खो देती है. समझदारी आने पर यौवन चला जाता है. जीवन के अंतिम पड़ाव में हमें यथार्थ से साक्षात्कार होता है. यह सुनिश्चित हो जाता है  कि हमारी दिशाहीन दौड़ निरर्थक थी. एक जीत ऐसी भी है, जहाँ विजेता केवल जीतता है. एक जीत ऐसी भी है, जहाँ हार में भी जीत का जश्न होता है. हारकर जीतने का वह सुखद अनुभव उस जीत से भी बड़ा होता है. सबको साथ लेकर चलने में चाल भले ही मन्थर हो जाती है और प्रथम दृष्तिया दुनिया की दौड़ में खुद को पीछे पाते हैं, परंतु साथ चलने का जो विजय-भाव होता है, वह जीतने की महत्वाकांक्षा को पराजित कर देता है. यह अंतरात्मा की जीत है.

  -राजू दत्ता

 

Wednesday 23 July 2014

अपनापन


अपनापन

 

छोटी-छोटी खुशियों में,जीवन पूरा लगता था
ममता की आँचल में, मन शीतल सा लगता था
मंज़र-मंज़र गाँव का, बस अपना सा लगता था
मिलना सारे यारों का, एक मेला सा लगता था
हर मौसम सुहाना, अलबेला सा लगता था
खेल-खेल में बच्चों के, एक झगड़ा सा लगता था
बस दूजे ही पल, सब अपना सा लगता था
मोल-भाव का पता नहीं था, मिट्टी भी सोना सा लगता था
मिट्टी के चन्द खिलौने से, शहर अलबेला सा सजता था
धूल भरे उन मुखड़ों मे भी, राजकुमार सा लगता था
छोटी-छोटी खुशियों मे, जीवन पूरा लगता था
ममता की उस छाँव मे, प्रेम अविरल सा बहता था
धूल भरे उस गाँव  में, फिर भी दिल सा लगता था
बैर नही था कभी किसी से, सब अपना सा लगता था
मंज़र-मंज़र गाँव का, बस अपना सा लगता था
 
-आर.के.दत्ता

Tuesday 22 July 2014

मूल्य


 
मूल्य
 
नारी-शक्ति की महिमा का पाठ पूरे संसार को पढ़ाने वाला भारतवर्ष आज स्वंय से आँखें चुरता नज़र रहा है. शक्ति-पीठों की पूजा-अर्चना करनेवाला एक उन्नत समाज आज नारी-जाति के मान-मर्दन से कलंकित होता जा रहा है. विकास की पराकाष्ठा को चूमने का दावा करनेवाला समाज स्वंय से द्वन्द करता दिख रहा है. भौतिक विकास की दौड़ मे हमारा सामाजिक विकास पिछर सा गया है. सामाजिक मूल्यों का पाठ पढ़ानेवाला पाठ्यकर्म अब केवल भौतिक मूल्यों का सबक सिखाने की ओर अग्रसर है. भौतिकता की दौड़ मे मानव भाव सिमटा जा रहा है. परिवार का दायित्य अब केवालमात्र भौतिक सुविधाएँ प्रदान करना ही रह गया है. मानव-मूल्य, संस्कार आदि का पाठ तो परिवार का दायित्य रहा है और ही हमारे शिक्षण-संस्थान का. फिर यह समाज क्या अपेक्षा रख सकता है ? जो बीज मे ही नहीं है, वो वृक्ष और फिर फल में कैसे हो सकता है ? नारी-जाति का अपमान विध्वंश होते समाज का स्पष्ट संकेत है. नारी-शक्ति का मान-मर्दन विरूपित और कलुषित समाज को काल के गर्त मे ले जाती है. इतिहास साक्षी है.

-आर.के.दत्ता

सुकून


                    सुकून


अंधेरों में भी उम्मीदों का चिराग जलाकर तो देखो

रोशन होगा घर तेरा भी, दीया किसी का जलाकर तो देखो

सवरेंगी जिंदगी तुम्हारी भी, घर ग़रीबों का सजाकर तो देखो

होगी निजात ठोकरों से तुम्हारी भी, सहारा किसी को देकर तो देखो

 

गमों का दौर भी गुजर जाएगा, आँसू किसी का पोछ्कर तो देखो

टूट जाएगा वहम ग़रीबी का भी तेरा, किसी भूखे को खिलाकर तो देखो

मिलेगा सुकून दिल को तुम्हारे भी, दर्द किसी का मिटाकर तो देखो

मेल तेरा भी हो जाएगा, किसी को मिलकर तो देखो

 

मंज़िलें मिल जाएँगी तुम्हें भी, रास्ता किसी को बताकर तो देखो

सजेगी सेज तुम्हारी भी, डोली किसी की सजाकर तो देखो

लगेंगे पराए भी अपने, किसी को गले लगाकर तो देखो

सजेगी मुस्कान चेहरे पे तुम्हारे भी, किसी को हँसाकर तो देखो

 

आएगा लौट बचपन तेरा भी, किसी बच्चे को बहलकर तो देखो

होगा अहसास अमीरी का भी, बाँटकर बच्चों मे खिलोने तो देखो

आएगी नींद गहरी तुम्हें भी, सोकर गोद मे माँ के तो देखो

पाएगा सुकून तू भी, छाँव  मे आँचल की के तो देखो

 

                                                                          -आर.के.दत्ता

“यादें”


“यादें”

भूले से भी भुला ना सके उन यादों को

दीए की रोशनी मे गुज़री उन रातों को

नुक्कर की दुकान वाली नानी की उन बातों को

परी-कथाओं मे छिपे उन जज्बातों को

बारिश मे रिसने वाले खप्पर की उन हालातों को

तूफ़ानों मे भी मिलने वाले उन मुलाक़ातों को

मधुर मिलन की उन सौगातों को

भूले से भी ना भुला सके उन यादों को

दीए की रोशनी मे गुज़री उन रातों को.

-राजू दत्ता