Thursday 21 May 2020

चाय की चुस्की

बाबा बहुत चाय पीते थे । हर वक़्त चाय चाहिए होती थी। चाय की एक केतली हर वक़्त चूल्हे पर हुआ करती और मां बिना ब्रांड वाली कोई सी भी चायपत्ती डालकर चाय बनाती रहती । चाय हमारे लिए केवल एक पेय ही नहीं था बल्कि रोटी खाने का एक माध्यम भी था । बहुत बचपन से हम भाई बहनों को भी चाय चाहिए होता था । सुबह मुंह हाथ धोते ही हमें चाय की एक प्याली के साथ रात की बची रोटी नमक - तेल से मिलाकर रोल बनाकर दी जाती और उसी चाय में डुबोकर हम उसे बड़ी चाव से खाया करते । गरमा गरम रोटी हमें पसंद नहीं थी इसीलिए रात को ही ज्यादा रोटियां सेककर रख दी जाती । बासी रोटी वो भी नमक तेल लगी का चाय के साथ का जायका आज भी ताज़ा है । फ़िर शाम को चाय - मूढ़ी का मजा लेना । बाटी में चाय और उसमें तैरती मूढ़ी को चम्मच से निकालकर उसे खाना बड़े संयम और अनुभव का काम था जिसे हम बख़ूबी जानते थे । अक्सर शाम को चाय रोटी ही खाकर सोना होता था । दूध रोटी हमें रास न आता था चाहे उसके पीछे जो भी वजह रही हो । दूध भी बस चाय की असली काली रंगत को बस थोड़ा गोरा रंग ही देने के लिए डाला जाता । आज वाली फूल क्रीम की चाय नहीं होती थी । आग में जली - जली सी काली केतली ने ही हमारे बचपन को अपना रंग दिया था । चाय ने ही हमें बड़ा किया । फिर ट्यूशन पढ़ाने का दौर आया तो जैसे चाय मानो जिंदगी से और भी जुड़ती चली गई । जिस घर में जाओ वहीं एक कप प्याली चाय के साथ नमकीन बिस्कुट और कभी दालमोठ । 

दोस्तों के साथ तरके सबेरे उठकर सैर पर जाना और गुटका बिस्कुट का पूरा पैकेट और मिट्टी की भांड में चाय की चुस्की और अंतहीन बातों का दौर । कभी शहीद चौक पर राजू भैया की गहरी चाय , कभी पी. एन. टी. चौक पर शाम की चाय । ओ. टी. पारा शिव मंदिर के पास की गुमटी की चाय की यादें । दुर्गा स्थान चौक की बिल्कुल अलग स्वाद वाली चाय का जायका वो भी इलायची वाली कौन भूल सकता । शिव - मंदिर चौक पर अशोक भैया की चाय और साथ में उनका व्यव्हार अंतर्मन में आज भी ताज़ी है । मिर्चाईबाड़ी चौक के पास डब्बू भैया की दिलकश चाय का जोड़ कहां ? शाम को रेलवे फिल्ड की नींबू वाली चाय और दोस्तों की भीड़ और राजीव बाबा की कभी न खत्म होने वाली गुफ्तगू और अलौकिक ज्ञान का वो दौर किसे याद न होगा ? चाय के साथ गोकुल स्वीट्स की निमकी का स्वाद कैसे फीका हो सकता है । बड़ा बाज़ार और रबिया होटल का चाय और समोसे का कर्ज आज भी है । श्यामा टॉकीज के पास लेकर वाली चाय भी कभी कभी पसंद की जाती रही जो हमें स्वाद भले ही उतना न दे पाती मगर मधुर पलों का अहसास जरूर दिया करती थी ।मेडिकल कॉलेज की कैंटीन में डॉक्टर बंधु (अक्की बाबू) के साथ चाय पर चर्चा और रास्ते में झा जी के ढाबे पर चाय और पनीर पकोड़े पर बहस का नशा अफीम के नसे से कम न था । हर चाय की दुकान पर साथ राजीव बाबा का होता ही था। हफला - मरंगी से लेकर काकी की दूकान , बस चाय और राजीव बाबा का अंतहीन साथ । चाय की बात हो और डॉक्टर बाबू विवेक की बात न हो तो चाय का किस्सा अधूरा होगा । पहली बार कोई दोस्त मिला था जो खुद चाय बनाकर कर पिलाता । छोटी गैस स्टोव और चाय का सॉसपैन बस यही उसकी दुनिया होती ।  घंटों खौलती गहरी दूध वाली वो असाधारण चाय और उसके बीच का गहन वार्तालाप । प्यार पर गंभीर चर्चा और चाय की चुस्की का वो दौर मानो वक़्त थम सा जाता ।  चाय तो बस एक जरिया था । असली स्वाद दोस्तों के साथ का था । चाय रोमांस है । चाय की चुस्की विचार है । इस चाय ने सबको न जाने कितने अनमोल रिश्तों का तोहफ़ा दिया है । चाय बस एक चुस्की भर नहीं बल्कि सामाजिक जुड़ाव की एक मजबूत कड़ी थी जिसने हम सबको साम्यता के बंधन से जोड़ा था जहां बस प्रेम का माधुर्य रस हुआ करता था जिसकी मिठास जेहन में आज भी ताज़ी है ।
☕☕☕
(राजू दत्ता ✍🏻)

[उन सभी मित्रों और चायवाले बड़े भाइयों और उनके परिवार वालों को समर्पित जिसने अपने प्रेम से हमें सदा अनुग्रहित किया है । बहुत सारे मित्रों और लोगों के नाम उद्धतरित नहीं किए जा सके परन्तु हर किसी ने प्रेम के माधुर्य रस से हमें सींचा है । हर एक व्यक्ति मेरी अंतरात्मा से जुड़ा है । उन सबको मेरा नमन है ।🙏🏻🙏🏻🙏🏻]
© राजू दत्ता

Wednesday 20 May 2020

गांव हूं मैं

हां गांव हूं मैं 
धूप में शीतल छांव हूं मैं
धूल और मिट्टी ही पहचान मेरी 
व्याकुलता में ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं ।

मौन था मैं
जब लगा था लांक्षण 
असभ्य , जाहिल और गवार हूं मैं 
गए थे छोड़कर , सिसका था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

जोहता रहा था बाट मैं
तेरे जाने के बाद मैं
न तू आता ,न तेरी खबर 
शहर के आगे बेअसर था मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

सिक्कों से खाया चोट था मैं
पूछी न किसी ने सुध मेरी 
अपनों के बीच अनजान हूं मैं
वात्सल्यता ही पहचान मेरी 
हां, वही गांव हूं मैं।

देखकर छाले पांव के
सिसका हूं बारम्बार मैं
लुटाउंगा ममता की फिर वही छांव मैं
कोई मुझे रंजिश नहीं
हां, वही गांव हूं मैं ।

सींचा था सारा शहर
अपने ही रक्त से 
क्यूं जुदा हुए दो जून से 
धूल मिट्टी से सजी, भाली गवार हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

प्रकृति की वरदान हूं मैं
समझ न पाए मुझको तुम
न भूखों सोने देता तुझको मैं
हां, वही वरदान हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

आओ लौट, जोहता अब भी बाट मैं
वेदना मिटाने का कारगर उपाय हूं मैं
प्रकृति से जीना सिखाने का पर्याय हूं मैं
हां, वही ममता की छांव हूं मैं
हां, वही गांव हूं मैं।

*(राजू दत्ता)*✍🏻

Tuesday 19 May 2020

अंतर्मन

नेत्र मात्र का खुलना ही दिख जाना नहीं 
अंतर्मन के चक्षु ही सत्य बतलाते हैं ।

अधरों का हंसना मात्र ही आनंद नहीं 
अंतर्मन की गहराई ही सत्य बतलाते हैं ।

मिले जो हाथ मात्र वो साथ नहीं
अंतर्मन का मिलना ही सत्य बतलाते हैं ।

देकर अन्न मात्र ही मिटाना भूख नहीं 
अंतर्मन की करुणा ही सत्य बतलाते हैं ।

मंदिर मस्जिद जाना मात्र ही भक्ति नहीं 
अंतर्मन की शुद्धि ही सत्य बतलाते हैं ।

नेत्र मात्र का खुलना ही दिख जाना नहीं 
अंतर्मन के चक्षु ही सत्य बतलाते हैं ।

(राजू दत्ता) ✍🏻

Friday 15 May 2020

चवन्नी की कॉमिक्स

उन दिनों टेलीविज़न और दूरदर्शन का लुफ्त उठाना सबके लिए सहज नहीं होता था और इसी बात की कमी को हमारी एक दूसरी दुनिया पूरा कर दिया करती थी और वह थी हमारी अपनी - "कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं की दुनिया"

अक्सर मुझे वो दिन याद आ जाते हैं जब शाम ढलते ही सीधा सीताराम लाइब्रेरी जाया करता था और गोवर्धन भैया ४-५ कॉमिक्स की गड्डियां मेरे सामने रख देते थे । उनमें से मैं जिनको पढ़ चुका होता अलग रख देता और मेरे हिसाब से जिन कॉमिक्स के टाइटल नए और मेरे पसंदीदा चरित्रों वाले होते उन्हें चवन्नी प्रतिदिन किराए के हिसाब से पढ़ने के लिए घर ले आता था । ऐसे तो दो चार और भी लाइब्रेरी थी शहर में मगर जो बात गोवर्धन भैया की सीताराम लाइब्रेरी में थी वो किसी और में नहीं थी । एक तो घर के नजदीक और बिल्कुल हमारे स्कूल "बाल विद्यापीठ " के करीब और ऊपर से गोवर्धन भैया और उनके सभी परिवार वालों का शालीनता पूर्ण व्यव्हार । वह केवल लाइब्रेरी नहीं बल्कि हमारे लिए एक वटवृक्ष की तरह था जिसकी छाव में हमारे बचपन की कौतूहलता पली - बढ़ी । वह केवल कॉमिक्स और चवन्नी का रिश्ता भर नहीं था बल्कि कुछ और ही था जिनकी जड़ें आज भी  उन यादों का पोषण करती हैं । लाइब्रेरी के सामने शो केस में "इन्द्र की हार" वाली डाइजेस्ट की तस्वीर आज भी ताज़ी है । डाइजेस्ट का भाड़ा कॉमिक्स से ज्यादा था तो कभी कभी मिला करता था । पहली कॉमिक्स जो भाड़े पर ली थी आज भी याद है -"जासूस टोपिचंद और पेट्रोल की खेती"। उस समय कॉमिक्स पढ़ना भी एक चुनौतपूर्ण कार्य था जिसे हम अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर पढ़ा करते थे ।

उस समय मेरे चहेते कॉमिक्स चरित्र ही हमारे सुपरहीरो हुआ करते थे. 

‘वो मारा पापड़ वाले को’ बांकेलाल का यह मशहूर और पसंदीदा डायलॉग मुझे, मेरे भाई बहनों और दोस्तों को गुदगुदाता था और हम कहानी के अंत तक यही चाहते थे कि बांकेलाल एक बार और बोले ’वो मारा पापड़ वाले को’। बांकेलाल की किस्मत और उनको मिला श्राप भला कौन भूल सकता है । यह रोमांच शायद आज भी इसलिए बरकरार है क्योंकि वो कानों में इयरफोन लगाकर सुनी जाने वाली फूहड़ कॉमेडी नहीं थी, साबू का ज्यूपिटर ग्रह से आना और धरती पर बस जाना मेरे लिए एक ऐसा रोमांच था जैसे कि मैं स्वंय साबू के ग्रह पर घूम आया हूं.. बिल्लू के बाल जो हमेशा उसकी आंखो के छज्जे को ढंके रहते थे मैं यही सोचता था कि आखिर इसको दिखता कैसे होगा.. शायद यही सुनहरा बचपन था और मैं भी यही कहने की कोशिश कर रहा हूं कि तकनीक ने इस नस्ल से बचपन के इस रोमांच को दूर कर दिया है.. चाचा चौधरी, साबू, नागराज, ध्रुव, डोगा, तौसी, भोकाल, अंगारा, आक्रोश, क्रुक बॉन्ड, परमाणु, बांकेलाल, पिंकी, रमन, और बिल्लू के दीवाने अपने चहेते कॉमिक्स चरित्रों को पढ़ने के लिए अपने दोस्तों के साथ कॉमिक्स की अदला बदली कर पैसों की बचत भी कर लिया करते थे । एक नहीं, दो नहीं ढेर सारी कॉमिक्स पूरे महीने के लिए संजो कर रखना शौक हुआ करता था, लेकिन दौर बदला और कॉमिक्स चरित्रों से नए बच्चों का मन ऊब गया जमाना डिजीटल था बच्चों ने भी कॉमिक्स से बेहतर विकल्प आज कल के स्मार्ट फोन्स को चुना तकनीक के सहारे इतने आगे निकले कि अपने चहेते कॉमिक्स चरित्रों को तो अब याद भी नहीं करते यूं कहें तो साबू की लंबाई का रोमांच इन स्मार्ट फोन्स ने खत्म कर दिया।

यह तो सभी जानते थे कि "चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज़ चलता है" लेकिन कंप्यूटर से भी तेज़ दिमाग वाले आदमी को मिनी कंप्यूटर के आगे भूल गए.. उस जमाने में कॉमिक्स बच्चों के लिए मनोरंजन साधन के साथ-साथ प्रेरणादायक कहानियों का एक जखीरा था.. लेकिन अफसोस आज इन कॉमिक्स चरित्रों में किसी को दिलचस्पी नहीं है.. जिन कॉमिक्स और कई बाल पत्रिकाओं ने सालों तक बच्चों के दिलों पर राज किया उनका तकनीक के आगे कुचला जाना बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है.. तकनीक ने भले ही इस नस्ल को एक छोटे से डिब्बे में ब्रह्मांड दे दिया हो लेकिन जो बाल साहित्य कभी बच्चों की जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश हुआ करते थे आज तकनीक के आगे दम तोड़ते नज़र आ आते हैं.. इस बात का यह मतलब बिल्कुल नहीं कि तकनीक का त्याग कर दें लेकिन अपने उस अंश को जिसे हम भूल चुके हैं एक बार फिर अपनी इस पीढ़ी को याद दिलाना चाहिए ।

आज का बचपन बदल चुका है और  बाल पत्रिकाओं और कॉमिक्स अपनी उम्र की ढलती कगार पर है । सवाल यह है कि उस दौर में बच्चों को कॉमिक्स चरित्र इतने अज़ीज़ क्यों थे क्यों आज वो बाल पत्रिकाओं की जगह महंगे मोबाइल फोन मांगते हैं । बेशक बीते सालों में काफी कुछ बदला चुका है, डिजिटल क्रांति ने शिक्षा के क्षेत्र में भी हर उम्र के छात्रों के लिए नए अवसर दिए तकनीक के विकास से बच्चों के मन और मस्तिष्क दोनों का विकास भी हुआ लेकिन इस सब के आगे बचपन छीना जाना बेमानी होगा । चंदामामा, चंपक , नंदन , गुड़िया , नन्हें सम्राट , बाल भारती न जाने कितनी किताबों ने हमारे बचपन को सींचा है । इन बाल पत्रिकाओं ने न केवल हमारे बाल्यमन में साहित्य रुचि का बीजारोपण ही क्या अपितु एक मधुर रिश्ता भी लाइब्रेरी वाले भैया और पेपर वाले भैया से स्थापित भी किया जो आज भी जीवंत है । उन बाल पत्रिकाओं और कॉमिक्स ने एक असाधारण सामाजिक ताना - बाना रच डाला था जिसमें आज भी हमारे रिश्ते जुड़े हैं । वो एक मजबूत सामाजिक कड़ी थी। आज फिर एक मजबूत सामाजिक कड़ी स्थापित करने और आज के बचपन को डिजिटल इंद्रजाल से निदान हेतु वैसे ही "सीताराम लाइब्रेरी " और वैसे ही गोवर्धन भैया की आश्यकता है ।
*(राजू दत्ता)*✍🏻

Tuesday 12 May 2020

हाफ पैंट

दो चार बार दर्जी मास्टर के यहां जाकर पता करने की कोशिश करने की कवायद कि वो पुरानी अब न इस्तेमाल होने वाली परिवार के बड़े सदस्यों की फूल पैंट से दो नई हाफ पैंट (निक्कर) सिलकर तैयार हुई या नहीं तो निराशा ही हाथ लगती थी । उस समय ये इल्म न था कि दर्जी मास्टर के लिए यह कोई प्राथमिकता का काम न था । नए कामों पर ज्यादा दाम मिलने का उत्साह हमारे बाल मन के कौतूहल से ज्यादा था और तो और हमारे काम के लिए दाम भी एकमुश्त मिलने के कम आसार और किस्तों में मिलने के आसार उनके काम को सुस्तता से भरने के लिए काफ़ी होते थे । कई बार दर्जी की फटकार सुनने के बाद बस एक ही उपाय शेष बचता था कि बस किसी भी बहाने से दर्जी की दुकान के सामने से बार बार गुजरा जाए और अपनी तिरछी नज़रों से पुरानी पैंट से बने नए निक्कर को तलाशा जाए । दर्जी के लिए यह काम भले ही दोयम दर्जे का था मगर हमारे लिए बिल्कुल नए से नए अनुभव का पल होता था । बेतरतीब तरीके से चिप्पियों वाले हाफ पैंट के सामने पुराने फूल पैंट से बना नया हाफ पैंट हमारे लिए एक नूतन गौरव का कारण था । एक पुराने फूल पैंट से दो हाफ पैंट को तैयार करवाने की जद्दोजहद और किसी तरह टेलर मास्टर का तैयार होना एक बहुत बड़ी बात होती थी । आखिर ढली उम्र वाली जर्जर फूल पैंट से दो हाफ पैंट को तैयार करना काफी बारीकियों भरा काम भी तो होता था और ऊपर से सिलाई के उतने दाम भी न मिलने और मिलने भी तो किस्तों में । आखिर किसी तरह वो दिन आ ही जाता जब दो हाफ पैंट घर आ जाता जिनमें काफ़ी अंतर भी हुआ करता था ।साइज के अंतर पर तो ध्यान भी न दिया जाता । किसी एक में जिप होती तो किसी एक में बटन । किसी में दो पॉकेट होते तो किसी में एक भी नहीं । ऐसे भी उन दिनों पॉकेट का इस्तेमाल बस जाड़े में हाथ डालकर रखने में होता था न कि सिक्कों को सहेजने में । हमारे लिए वो दिन उत्सव का ही होता था । पुरानी फूल पैंट से नए हाफ पैंट के उत्सव का दिन ।
(राजू दत्ता)✍🏻

Friday 8 May 2020

सजीव का आनंद

हमारी जिंदगी बहुत छोटी है दोस्तों. हमारे मिलने का कारण होता है , कोई न कोई अबूझ रिश्ता होता है. यह संयोग मात्र नहीं होता है. प्रकृति हमें मिलाती  है. जिंदगी की आपा धापी में हम उन्हें भूल जाते हैं. यह दुखद है. जब यादें दस्तक देती हैं तो हम अपने मन के द्वार तुरंत बंद कर देते हैं. कारण अज्ञात है. एक भय है कि कष्ट होगा उन यादों में जाकर. हम सदा अपने वर्तमान कॊ कल से जोड़कर दुखी होते हैं. बीता हुआ कल सदा सुखद प्रतीत होता है. परन्तु , सत्य तो यॆ है कि वो आनँद आज़ भी वर्तमान है. आनँद का मार्ग स्वयं बंद कर रखा है. हमने अपने अंदर उठने वाले आनँद कॊ दबाए रखा है. ऐसा क्या था कि बचपन में बिना किसी सुख साधन , वैभव और धन के मस्त रहते थे और आज़ सबकुछ है ,मगर वो चंचलता , वो उत्साह , वो उमंग , वह  ओज , वह तेज , वो आनँद नहीं है. बात विचार करने योग्य है.🙇विचार की आवश्यता है. कहीँ न कहीँ हमारे आकलन में भूल है. हमने बड़े होने का आवरण ओढ़ लिया है. आपने कोमल मन कॊ धीरे धीरे कठोर आवरण से ढँक लिया है. हम अक्सर याद करते हैं कि जब छोटे थे  तो दोस्तों के साथ दिनभर मस्ती किया करते थे. गुल्ली डंडे के खेल से लेकर बगीचे से आम चुराना , नदियों में देर तक नहाना , न जाने क्या क्या. सबकुछ आज़ भी यथावत है , वो आनँद भी यथावत है. हमने स्वयं कॊ इससे दूर रखा हुआ है. खेल कॊ देखकर और सोच कर अनुभव करना और खेल में हिस्सा लेने के अनुभव में कोई तुलना नहीं. किसने रोका है हमें उन पलों कॊ पुन: जीने से ? हमने स्वयं कॊ रोक रखा है. किसने रोका है अपने पुराने दोस्तों कॊ वैसे ही गले लगाने कॊ और कंधे पे उसी तरहा हाथ रखकर चलने कॊ ? किसने रोक रखा है दोस्तों के साथ पतंगबाजी कॊ ? किसने रोका है पानी में पत्थर फेंककर छल्लिया बनाने कॊ ? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है. हमने स्वयं अपनी असीमित चेतना कॊ संकुचित कर लिया है. हमने स्वयं अपना मार्ग बदल दिया है. कसूर किसका है ? जवाब अनगिनत होंगे , मगर खोखले होंगे. यही सत्य है. "हमारे पास समय नहीं है ", "अब हम बड़े हो गये हैं ", जिम्मेदारियां बढ़ गयी हैं " न  जाने कितने जवाब हम बनाते हैं. ये सारे जवाब खुद कॊ फुसलाने  के लिये है. हमने स्वयं से झूठ बोलना सीख लिया है. कारण ? कारण अज्ञात है. हम स्वयं का सामना करने से डरते हैं. हमारी उत्कंथ इच्छाशक्ति  कमजोर हो चुकी है क्योंकि हमने इसका पोषण करना छोड़ दिया है. आज़ हम बारिश में भींगने से बचते हैं. क्या खुद कॊ भींगने से बचाने के लिये ? नहीं. अपने जूते , अपना बटुआ और अपना मोबाइल बचाने के लिये. सोचने वाली बात है 🙇🏻छोटी बात नहीं. जीवन का सारा सार छिपा है इसमे. इच्छा होती है बारिश का आनंद लेने की मगर कुछ रोकता है. निर्जीव सजीव कॊ रोक रहा है. आश्चर्य है. निर्जीव चीज़े सजीव कॊ नियंत्रित कर रहीं हैं.अगर हम गौर करें तो आज़ हम आनंदित सिर्फ़ इसलिये नहीं हो पाते क्योंकि हमारा नियंत्रण निर्जीव पदार्थ कर रहा है. निर्जीव कॊ क्या पता ? कसूर सजीव का है. सत्य तो यह है कि हम स्वयं दुहरा चरित्र रखते हैं-एक सजीव का जो आनँद चाहता है और दूसरा निर्जीव का जो हमें नैसर्गिक आनँद से रोकता है. हम पोषण भी निर्जीव का करते हैं इसलिये निर्जीव सजीव पर विजित होता है. सजीव का पोषण करो दोस्तों , आत्मा की पुकार सुनो , आनँद कॊ चुनो , अपनी आत्मा का विस्तार करो , प्रकृति से जुड़ो , अपने बचपन कॊ पुनर्जीवित करो. समय सीमित है.
-सजीव महत्वपूर्ण है, निर्जीव तो निर्जीव है........

राजू दत्ता ✍️

लपटों का संघर्ष

गंगा घाट पर बहुत भीड़ भाड़ थी । चारों तरफ़ मेला सजा था । प्रत्येक पूर्णिमा के दिन यह मेला न जाने कितने युगों से सजता आ रहा है । गंगा स्नान का महत्व दैविक के साथ साथ आध्यात्मिक भी रहा है । मोक्ष का मार्ग यही वर्णित है । उस मेले की चका चौंध और शोर शराबे में मैं भी अपने परिजनों और मित्रों के साथ था परंतु अंतरात्मा कहीं और विचरण कर रही थी । कुछ ही देर में मैं सबसे नज़रे बचा कर उस घाट की ओर अनायास चल पड़ा जहां जाना अशुद्ध समझा जाता है । हां , वो समशान घाट ही था । मैं वहीं दूर जाकर ऊंचे बालू के टीले पड़ बैठकर उस निर्मल गंगा की अनवरत अविरल धारा को निश्चल बहते देख रहा था । शीतल हवा मंद मंद बह रही थी । कोई शोर न था । चारों तरफ शांति थी । दूर किसी कोने में नज़रे उठाकर देखा तो एक चिता सज रही थी । एक सुंदर और भव्य अर्थी सजी पड़ी थी। कीमती वस्त्रों में कई लोग इर्द गिर्द खड़े थे । किसी धनाढ्य व्यक्ति की अर्थी रही होगी शायद । कुछ पगों की दूरी पर एक और चिता सजी हुई धुंधली सी दिख रही थी जिसे किसी तरह चिता का रूप भर दिया गया था । कुछ लोग वहां भी थे मगर बहुत ही सामान्य कपड़ों में और कुछ तो अर्ध नग्न ही थे । सब कुछ बहुत स्पष्ट तो नहीं था मगर उतना भी धुंधला न था ।  कहीं से किसी का रुदन का स्वर नहीं था । शायद रुदन की भी एक आयु और अवधि होती है और उसकी समाप्ति के पश्चात वह फिर नहीं आती । भाव शून्य हो मैं सबकुछ देख रहा था । चिता धू धुकर जल उठी थी मगर उनकी अग्नि में भी न जाने क्यूं अंतर सा था । एक की लपटें लहलहा रही थी तो दूसरे की लहलहाने को संघर्ष कर रही थी । शायद संघर्ष का यह अंतिम संघर्ष है जो लपटों में दिख रहा था । कुछ ही घंटो में दोनों चिताओं पर लगे मेले छंट गए । एक चिता जलकर पूरी तरह शांत होने को थी और दूसरी अधजली सी धुओं से धिरी जलने को संघर्ष कर रही थी । न जाने क्यों मेरे कदम उसी और अनायास उठ पड़े । अब वहां कोई न था । सुलगती हुई राख न जाने क्यूं काफ़ी कुछ बयां कर रही थी । दोनों चिताओं से मेरा कोई आत्मीय संबंध न था । फ़िर भी न जाने क्यूं किस आकर्षण ने बांध रखा था । न कोई भाव था , न वेदना थी । बस अनंत अनुत्तरित प्रश्नों का विहवल शोर सा था ।(राजू दत्ता)✍🏻