Thursday 18 July 2019

शहर के सिक्के

आया था शहर गांव छोड़कर
कमाऊंगा चंद सिक्के ये सोचकर
आया था गलियां वो छोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

बोली थी बूढ़ी माँ ना जा छोड़कर
ना माना आया सरहद वो छोड़कर
मिलेगा सहारा घर को ये सोचकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

था उनको ये दिलासा कि आऊंगा लौटकर
जोड़े थे चंद सिक्के बड़े सहेजकर
हसरतें होंगी पूरी बच्चों की ये सोचकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

जाना था कल ये शहर छोड़कर
सिक्कों की थैली बड़े सहेजकर
खुशियों की तम्मना यूं समेटकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

मारी जो जोर टक्कर यूं रपेटकर
ख़ून की थी धारा बिखरी थी सड़क पर
बिखरे थे सारे सिक्के खन-खनाकर रोड पर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

भीड़ भी थी काफ़ी यूं घेरकर
दया की थी नजरें इस गरीब पर
शामिल भी थे कुछ सिक्कों की लूट पर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

बुझ रही थी सांसे घर यादकर
बढ़ा ना कोई साथी क्या सोचकर
छंट रही थी भीड़ भी हमें छोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

ना देखा किसी ने नब्ज भी टटोलकर
जा रहा था बहुत दूर मैं शहर को छोड़कर
मिट रहा था मैं माँ  की आस तोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

(राजू दत्ता )