Tuesday 30 June 2020
घिसी चप्पल
Monday 29 June 2020
अमर बाबू
Saturday 27 June 2020
मन की बात
शेष
Wednesday 24 June 2020
संताप
Monday 1 June 2020
बड़का चुनाव, छोटका लोग
"आपका भोट कीमती है " इसको बेरबाद नहीं करना है। मोहर मारो तान के हमरा छाप पेहचान के। अबकी बार हमरी सरकार। जात पे न पात पे मोहर मारो सीना तान के। आप हमको भोट दो , हम आपको आजादी। इ सब के हल्ला गुल्ला औरो शोर शराबा से बार बार लोकतंत्र जिन्दा होता है और औरो इलेक्शन के बाद कुपोषित होकर फिर मर जाता है। यही भारत का कभी न मरने वाला लोकतंत्र है और सारा दुनिया भारत का अमर लोकतंत्र का पुनर्जीवन देखकर दांतो तले ऊँगली दबाकर अपना अपना ऊँगली काट खाता है। ऐसे थोड़े न भारत एक सशक्त लोकतंत्र है औरो इसका चुनाव दुनिया का सबसे बड़का औरो अजूबा मेला है। इ मेला का मेन बाजार गांव में ही तो लगता है औरो पंचायत चुनाव तो दुनिया का सबसे बड़का चुनाव से भी बड़का होता है। आखिर पंचायती राज व्यवस्था ही तो लोकतंत्र का बीज होता है। आज अगर मार्क्स औरो लेनिन जिन्दा होता तो इ चुनाव देखकर उसका सीना चौड़ा हो जाता। नयका आमिर - पुरनका गरीब , छोटका आदमी - बड़का आदमी , शोषक -शोषित , जनाना- जननी , कुकुर - बिलाय सब के सब को बिना कोनो भेद - भाव के इस मेला में एक्के पिलेट में एक साथ पीला - पीला चाट औरो झाल-झाल घुपचुप औरो गुलाबी - गुलाबी जलेबी पेलते देख लेनिन औरो माओत्सेतुंग तो ख़ुशी से पगला गए होते। क्या मंदिर , क्या मस्जिद , क्या गिरजा , क्या गुरुद्वारा सब जगह चौपाल में खचा- खच लोग अड्डा जमा देश के भविष्य पर चिंता में पगलाइल रहते है। "धर्म अफीम है " इ बात भारत में लागु नहीं है इ मार्क्स को पता नहीं था। भारत में धरम का मतलब अलग है। यहाँ धरम भी साम्यवादी चद्दर ओढ़कर सब पूंजपति लोगन का खर्चा - पानी से जिन्दा है। यहाँ बड़का आदमी मंदिर बनवाता है और छोटका लोग पूजा करता है और ' जेहि विधि रखे राम , का कीर्तन करते रहता है। चाय औरो पान के दुकान के भीड़ देख , चीन -अमेरिका का भी माथा घूम जाता है और जिनपिंग औरो ट्रम्प दोनों सोच में पड़ जाते कि काहे न चाय और पान का दुकान खोले। चाय का स्कोप तो दुनिया देख ही लिया है। सैलून में तो सरकार गिरा - गिरा कर उठाते -उठाते लोग सब थक हारकर बीड़ी जलाकर अपना कलेजा सकते रहते हैं। सैलून अपना पीला दाँत निपोरे संसद को अपने दाँत के बीच का बड़का छेद दिखा - दिखा कर पानी -पानी कर देता है।
बड़ा सुहाना मौसम होता है। औरो हर आदमी अपना भोट महा कीमती होने के अहसास मात्र से धन्ना सेठ को भी पानी पीला देता है। " आपका भोट कीमती है " इसका असली मतलब सारा दुनिया में यहीं लोग जानता है । बेइज्जत से बेइज्जत आदमी का भी कोनो इज्जत होता है यह चुनाव ही सिद्ध करता है। चुनाव के मौसम में कोनो आदमी बुरबक नहीं होता। चुनाव बिना किसी भेद भाव के सबको बराबर समझता है। असली साम्यवाद चुनाव के समय ही दीखता है। बिना कोनो क्रांति के साम्यवाद चुनाव में कुकुरमुत्ता के जइसन पनप जाता है जिसके खातिर मार्क्स अपने बच्चा लोग को भूख से मरने छोड़ दिया था। उप्पर बैठकर मार्क्स सोच में पड़ जाता है कि भारत में क्रांति किये होते तो जच्चा बच्चा औरों उनका जच्चा बच्चा और फिनु उनका जच्चा बच्चा सब जिन्दा होता औरो आम जनता का आम का गुद्दा और जूस पीकर उसका गुठली उछाल उछाल कर आम जानता को लुटा देता और आम जानता एक समान रूप से चैन से उसका पॉपी बजाकर मस्त रहता।
यहाँ चुनाव मुद्दा पर नहीं होता , गुद्दा पर होता है। जिसका जितना बड़का गुद्दा , जीत उसका पक्का। इ बात पर दुनिया भर का राजनीती के जानकर रिसर्च कर रहा है और अभी तक गुद्दा का माने जान नहीं पाए हैं। कितना लोग तो उप्पर जाकर भी शोध में लगे हैं। गुद्दा क्या है ? कहाँ होता है ? कोनो ग्रन्थ में इसका जिकर नहीं। इ एक गूंगे का गुर है और सब यहाँ गूंगा - बहरा ही तो है।
नौजवान , देश कि शान , अपन - अपन बाइकवा झाड़ - पोछकर रेडी कर लेता है जिसका टंकी भी लोकतंत्र का रस पीकर फिर से जिन्दा होने के उम्मीद में कैंडिडेट लोगन का बाट जोहने लगते हैं। इ अलग बाट है कि टंकी को पेट्रोल पीकर ही काम चलाना होता है और रस चलाने वाला पी जाता है। टंकी फूल औरो कैंडिडेट का पैसा का बीड़ी - सिगरेट से हर फ़िक्र को धुंए में उडाता चला जाता नौजवानों का जत्था। क्या नौजवान , क्या बुड्ढा सब का सब शाम तक लोकतंत्र का बोझा उठाते - उठाते थक कर चूर होकर दारू से ही अपना शरीर का दरद मिटा पाते हैं। दारू शौक थोड़े है , मज़बूरी है। लोकतंत्र इतना भी गरीब नहीं कि जान ले ले आम आदमी का। दवा नहीं दे सकता तो क्या आम आदमी को दरद से मरने दे ? तो फिर दारु देता है। ठीक वैसे जैसे घर में भात नहीं बनने पर मां बगल वाला घर से माड़ मांगकर अपना बच्चा का भूख शांत करता है। फिर दारू खली पेट थोड़ो न भरता है , मन को भी भर देता है और सबको समान भाव से भर देता है। अगर दारू का महत्व मार्क्स और लेनिन को पता होता तो इतना लहू लुहान क्रांति का कोनो जरुरत नहीं था। बस दारू पियो , दारू पिलाओ अहिंसक आंदोलन से काम हो जाता।
फिर जाति भी कहाँ अपने त्याग बलिदान से पीछे हटे ? सब जाति अलग - अलग झुण्ड बनाकर लोकतंत्र का पौआ पकड़ कर उसको औरो मजबूत करने के लिए अपने - अपने तरफ से सबसे सियाना आदमी चुनकर तैयार कर लेता है जो उसके कीमती वोट का ठीक - ठाक कीमत लगाने का सबसे मेन रोल निभा सके। गांव का गांव छोटे - छोटे जातीय कबीलों में बंटकर कबीलामय होकर वैदिक काल के कबीलाई ढांचा की मान्यता को पुष्ट करता इस चुनावी उत्सव में बड़े जोशो - खरोश औरो होशियारी से भाग लेकर लोकतंत्र की लाज बचाने का दायित्व निभाता है। राजनीतीक जागरूकता के हिसाब से दिल्ली भी इन गावों के आगे पानी मांगते नजर आते हैं। राजनीती ने इन गावों को क्या दिया ये तो शोध का विषय है मगर इन गावों ने इन गावों ने राजनीती को यह पूरा भरोसा दिया है कि हम हर बार भले ही ठगे जाएँ , पर हर नए चुनाव को हम गांव नयी उम्मीद से देखेंगे और नए रेट पर सलटेंगे और शायद इसी पक्के भरोसे का ही तो करिश्मा है कि भारत में लोकतंत्र आज भी चैन कि नींद सो रहा है और अरस्तु के उस कथन को कि " लोकतंत्र मूर्खों का शासन है" को दांत निपोरे चिढ़ा रहा है। लोग अपना सब कुछ लुटा लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए बिना किसी लिंग भेद के आदमी औरत का भोट और औरत आदमी का भोट देकर एक भी कीमती भोट बेरबाद नहीं करता। कई मतदाता तो बरसों पहले स्वर्ग जा चुके लोगों के नाम पर भी भोट देकर स्वर्ग में भी उनकी आत्मा कि लाज बचा लेते हैं और आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है को चरितार्थ कर जाते हैं। यहाँ लोकतंत्र कि जड़ें कितनी गहरी है यह लोकतंत्र को भी नहीं पता मगर इनकी शाखा स्वर्ग तक जाती है ये बच्चा-बच्चा जानता है।
भारत का लोकतंत्र क्युकी विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो इसके हिसाब से इसका पेट भी सबसे बड़ा है और चुनाव के समय ही यह कुम्भकर्णी नींद से जगता है और मानो सबकुछ डकार जाने को तैयार रहता है और इसका पेट तो अंत में भरता है - खस्सी के मीट से और प्यास बुझती है दारू से।
[राजू दत्ता]✍🏻✍🏻✍🏻