Monday 5 April 2021

बर्फवाला

बात उन गर्मियों की है जब हम वो लाल - पीली और हरी - नीली आइस्क्रीम के उतने ही दीवाने हुआ करते जितने कि आज चाय के हुआ करते हैं । हल्की मिठास और थोड़ी सी कड़वाहट लिए पिघलती सी आइस्क्रीम से हमारे दिल पिघला करते और हम आइस्क्रीम वाले की घंटियों और डमरूओ की दिल धड़काने वाली आवाज पर सारे बंधन तोड़ उन तपती दुपहरी में निकल पड़ते । पैसे की परवाह किसे थी , बस निकल ही पड़ते । दूध वाली आइस्क्रीम और ऊपर से नारियल के बुरादे मिलकर हमें एक नायाब स्वाद दिया करते वो भी एक चवन्नी में । आइस्क्रीम में थोड़ा नमक डाल हम उसके भीतर के कीटाणुओं को खुली आंखों से देख लेने का हुनर रखते थे । आइस्क्रीम को चूसते हुए उसके ऊपर सिक्के रखकर उसकी छपाई देखकर हम जो मजे लिया करते वैसा कोई दूसरा मजा आजतक नहीं मिला । कभी - कभार आइस्क्रीम को गमछे के बीच रखकर थकोचकर उसका गोला भी बना लिया करते । आइस्क्रीम खाने के बाद उसकी बची हुई बांस की डनठी को जमा कर हम बांस की दीवारें यानी टट्टी बनाया करते। सबसे खास बात ये थी कि हम आइस्क्रीम के पैसे जुगारने में माहिर हुआ करते । उन दिनों घर में शायद ही कबाड़ हुआ करते जिसे बेच हम आइस्क्रीम ले पाते । हम कौवे के घोंसले ढूंढा करते जिसमें अक्सर लोहे के तार , चम्मच और भी कुछ न कुछ हमारे काम की चीजें मिल ही जाया करती । काम बड़े हुनर और हिम्मत का हुआ करता । कौवे के झुण्डों और उसकी चोंच यानी लोल का सामना करते हुए घोंसले पर हाथ साफ कर लेना आसान नहीं था । काम तो यह ठीक नहीं था मगर यही काम ही था हमारा ।बर्फ खाकर किसकी जीभ कितनी लाल हुई यह देखकर ही विजेता का चुनाव हो जाया करता । बर्फ खाने के बाद पानी का अजीब स्वाद हमें एक नया खेल दे जाता । सुना है अब बर्फ वो रंग नहीं दे पाता । वो रंगीन बर्फ अब आइस्क्रीम पार्लरों में कैद होकर नए रंग में रंग चुकी है जो हमारी जीभ को रंगती नहीं । अब बर्फ सिर्फ खाया जाता है और वो खेल बंद है । वो दूध वाली आइस्क्रीम और नारियल के बुरादे अब नहीं मिलते । अब कौवों के घोंसले भी कहां दिखते हैं । अब तो घरों में कबाड़ भी काफ़ी होते हैं मगर वो डमरू बजाता हुआ बर्फवाला नहीं आता । बर्फवाले की घंटी अब बजती नहीं । बस दूर कहीं एक डमरू की डमडम और घंटी की टनटन बजती सी महसूस हुआ करती है । बात आज की गर्मियों की अब बदल चुकी है ।

(राजू दत्ता✍️)

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