Sunday, 2 September 2018

वो मेला

*मेले की उस जगह पे खड़े नजरें उन दुकानों क़ो ढूंढ रही हैं जहां सजा करती थी मिट्टी की वो मूरतें ,  वो गर्दन हिलाता दाढ़ी वाला बुढ्ढा , शिवलिंग पे लिपटा हिलने वाला सांप , वो गेहूं पीसने वाला जाता ,  वो गहरे गुलाबी और जलेबी रंगों वाले पुतले जो बजा करते थे , वो पट पट कर पानी में  चलने वाली टीन की नांव ,  वो मिट्टी की पुतला -पुतली किधर है ? कहाँ गया वो हल्की गुलाबी लालिमा लिए कुछ पीलापन लिए अधपके आलुओं की चाट सजाये वो दुकान वाला ?  वो खटास और महक कहाँ छोड़ आया वो ?  वो कागज़ की घिरनी बेचनेवाला शायद बीमार होगा जो नहीं आया . वो खींचकर जादू से लंबी -लंबी मीठी लड़ियों से मुर्गे , घिरनी और पंखे बनानेवाला किधर छिपा बैठा है ?  वो हवा मिठाई वाले की साइकिल किधर है जो पैडल मरते ही घौउ -घौउ की बेचैन कर देने वाली आवाज़ किया करता था ? वो बाइस्कोप पर दिल्ली क़ा कुतुबमीनार दिखाने वाला अबकी क्यों नहीं आया ? वो बाजे -बांसुरी क़ा शोर जो मेले की आवाज़ हुआ करती थी ,  क्यूँ नहीं सुनायी दे रहा ?  वो लोहे क़ा झूला जो झूलेवाला दो पैसे में चाहे जितना चक्कर लगवा लो चिल्लाया करता , वो अब खाली क्यूँ पड़ा है ? वो मिट्टी की टूमनी बेचनेवाला जिनके पास ना जाने कितने तरह की टूमनियाँ हुआ करती थी वो उस दुकान पे क्यूँ खड़ा है जहां पीग्गी बैंक सजे हैं ? वो शामियाने क़ा रंग-ओ -रूप भी क्यूँ बदला -बदला सा है ?  वो मेला जो सजता था एक एक पल के इंतजार में , आज़ इतना सूना क्यूँ दिख रहा ?  मन इसी ख्यालों के अंतर्द्वंद में उलझा सा था कि मोबाइल की घंटी बज उठी और आवाज़ आयी -"कहाँ हैं ? डिजनीलैंड कब जाना है ? "(RD)✍🏻✍🏻✍🏻*

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