“वक़्त”
रोशनी शहर का
यूँ कमाल कर
गया
आदमी तो जिंदा
है, इंसानियत जला
गया.
रौनक-ए-जिंदगी,
यूँ बढ़ा ले
गया
चैन-ओ-सुकून,
सब चुरा ले
गया.
वक़्त का जहाज़,
यूँ उड़ा ले
गया
उन हसीं लम्हों
को, यूँ चुरा
ले गया
जिंदगी का दौड़
हमसे, वक़्त छीन
ले गया
फ़ासले रिश्तों का, यूँ
बढ़ा ले गया.
संग बैठने के यारों
का, वो समा
ले गया
जिंदगी का दौड़
भी, क्या हमें
दे गया
रोशनी शहर का,
यूँ हिसाब कर
गया
रोशन जमाना हुआ, घर
अंधेर कर गया.
शहर-ए-मिज़ाज
भी, यूँ सबक
दे गया
पत्थरों की महफ़िलों
में, गॉव याद
आ गया
रोशनी शहर का,
यूँ कमाल कर
गया
आदमी तो जिंदा
है, इंसानियत जला
गया.
-आर.के.दत्ता
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