Saturday, 19 October 2019

अजीब दिन थे

अजीब दिन थे 
बिन मंजिल की तलाश में वो दौड़ने के दिन
बेवज़ह हंसने के वो दिन
अंतहीन बातों के वो दिन ।

खुली धूप में बेफिक्री के वो दिन
वो देर रात तक यारों संग बकबक के अंतहीन दिन
कंधे मिलाकर पटरियों पे बेवज़ह चलने के दिन
अभाव के किसी भावों के न होने के दिन ।

अंतहीन , दिशाहीन सरकते वो दिन
बेपरवाह मचलते झूमते वो दिन
बिन पैसे के सबकुछ ख़रीद लेने के दिन
सरसराती हवाओं में छुपे गीत को ढूंढने के वो दिन ।

बादलों में छुपी तस्वीरों को उकेरने के वो दिन
बारिश की बूंदों पर थिरकने के वो शानदार दिन
बिन साज-ओ -सामान के वो सजने के दिन
रातों को खुले आसमान में तारे गिनने के वो दिन ।

अबोध मन के उन्मुक्त तर्कहीन वो दिन
फूलों को खिलते दिखने के वो दिन
पंछियों के कलरव को बेवजह गुनगुनाने के दिन
अजीब दिन थे , वो न बीतने वाले दिन ।

(✍🏻राजू दत्ता )

Thursday, 18 July 2019

शहर के सिक्के

आया था शहर गांव छोड़कर
कमाऊंगा चंद सिक्के ये सोचकर
आया था गलियां वो छोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

बोली थी बूढ़ी माँ ना जा छोड़कर
ना माना आया सरहद वो छोड़कर
मिलेगा सहारा घर को ये सोचकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

था उनको ये दिलासा कि आऊंगा लौटकर
जोड़े थे चंद सिक्के बड़े सहेजकर
हसरतें होंगी पूरी बच्चों की ये सोचकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

जाना था कल ये शहर छोड़कर
सिक्कों की थैली बड़े सहेजकर
खुशियों की तम्मना यूं समेटकर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

मारी जो जोर टक्कर यूं रपेटकर
ख़ून की थी धारा बिखरी थी सड़क पर
बिखरे थे सारे सिक्के खन-खनाकर रोड पर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

भीड़ भी थी काफ़ी यूं घेरकर
दया की थी नजरें इस गरीब पर
शामिल भी थे कुछ सिक्कों की लूट पर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

बुझ रही थी सांसे घर यादकर
बढ़ा ना कोई साथी क्या सोचकर
छंट रही थी भीड़ भी हमें छोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

ना देखा किसी ने नब्ज भी टटोलकर
जा रहा था बहुत दूर मैं शहर को छोड़कर
मिट रहा था मैं माँ  की आस तोड़कर
होंगे ख़्वाब पूरे ये सोचकर
आया था शहर गांव छोड़कर

(राजू दत्ता )

Sunday, 14 April 2019

सतुआ परब

आज 'सत्तुआनी' है ! इस् पर्व को पंजाब में 'वैशाखी' भी कहते हैं - वैशाख महीने का पर्व ! गाँव में होते थे - एक दिन पहले ही 'घोन्सार' से तरह तरह का 'सत्तू' भूंजा और पीस कर आता था - चना का सत्तू , जौ का , मकई का ...मालूम नहीं कितने तरह का ...फिर "आम के टिकोला" का चटनी ! 'भंसा घर' ( किचेन ) के दुआरी ( दरवाजा ) पर् बडका पीढा ( लकड़ी का बैठने वाला ) पर् बाबा नहा धो कर बैठ जाते थे - सफ़ेद चक चक खादी वाला धोती ..वहीँ उनके सामने छोटे वाले पीढा पर् हम भी बैठ जाते ..फिर परदादी एक बड़े थाली में तरह तरह का सत्तू परोसती थीं ...और तब तक 'आम के टिकोला' को पुदीना के साथ मिला कर बड़े वाले सिलवट पर् 'चटनी' पिसा रहा होता ...जल्दी लाओ ..'चटनी' :))
जब तक बाबा और हम खाते रहते ..परदादी उतने देर तक पंखा लेकर बैठी होंती थी ...उधर किसी को आने का इज़ाज़त नहीं होता !
एक सुबह से ' पीतमपुरा ' में "टिकोला" खोज रहा हूँ ..नहीं मिला ✍🏻

Sunday, 10 February 2019

वसंत पंचमी

बसंत पंचमी का नाम सुनते ही वो दिन बरबस ही आँखों के सामने तैरने लगते हैं . टीन के डब्बे में बंद चंद सिक्के की खन - खन की आवाज़ बजाते चंदा काटने का वो सुकून भरा पल आँखों को नम कर देता है . दिन भर का वो दौर और शाम को पैसे गिनने का कौतूहल वो पल कोई कैसे भूल सकता है ?  चंदे में दूधवाले से दूध फल वाले से फल जो भी मिल जाता था वसूले जाते थे . वो तड़के की सुबह सवेरे शहीद चौक पर गाय -भैंस वालों को रोककर चंदे की बकझक और फ़िर चंदा वसूल लेने के विजयभाव का वो गर्व अब भी गर्वित करता है . बांस लगाकर , रास्तों को रोककर सायकल वाले , रिक्शे वाले , स्कूटर वाले से चंदा काटना अपने आप में एक त्यौहार सा था . अबकी बार कौन सा क्लब कौन सा पंडाल सजायेगा ,  मूर्ति कहाँ से आएगी इसका पता लगाना एक अद्भुत अनुभव सा था . रायगंज से मूर्ति लाने का गौरव किसी -किसी को था . दिनभर मिशन रोड , अनाथालय रोड और न्यूं मार्केट का चक्कर लगाना और बनती मूर्ति को अनंत बार बैठकर देखते रहना और मुर्तीवाले से डांट फ़टकार खाकर भागना और छुपकर फ़िर देखना वो कौतूहल कौन भूल सका है ? माँ की सारियॉँ से पंडाल बनाना और सारी फटने पर डांट और पिटायी का वो मंज़र अभी तक ताज़ा है .ख़ुद से पंडाल सजने की वो अनमोल काला अब खोती सी जा रही है .पूजा की रात रातभर जगना और चाय -पावरोटी का मज़ा लेने का वो सौभाग्य हमें मिला हुआ था . मूर्ति विसर्जन के बाद खिचड़ी बांटने और खाने का वो स्वर्गिक आनंद अद्भुत था . क्लब के मेंबर होने का सुख ये था कि प्रसाद और खिचड़ी ज़्यादा मिलता था जो कि किसी उच्च ओहदे से कम न था . वो नाच -गाना , वो संगीत , वो आनंदित पल भुलाए नहीं भूले . वो चट्टान क्लब अब नहीं रहा मगर जेहन में वो मधुर यादें चट्टान सी खड़ी हैं .(RD)✍🏻✍🏻✍🏻