*अमर बाबू की मुहब्बत तो देखो , अपना नाम में भी रंजन लगा रखा है - विवेक रंजन का आधा नाम ले लिया है । बहुत छुप छुप के देशी घी का ठेकुआ छांका है अमर बाबू ने विवेक बाबू के लिए । बहुत गहरा रिश्ता है । जबसे विवेक बाबू का बिहा हुआ , अमर बाबू की जिंदगी में तूफ़ान आ गया । उस दिन दिलजले का दिल जला था धुआं धुआं होकर और राख अब भी रह रह के धधक उठता है । अब रंजन नाम काटने को दौड़ता है । मगर ठेकुआ अब भी देशी घी का बार बार छनता है और और बार बार दिल तार तार होता है । महुआ के मौसम में दरद का परवान माथा में चढ़ कर नाचता है और अमर बाबू का अमर प्रेम धुआं धुआं होकर बहुत दूर आसमान में उड़ता चला जाता है , उड़ता चला जाता है और उधर विवेक बाबू देशी घी का ठेकुआ - नीमकी फूल क्रीम वाला दूध के चाय में आमलेट के साथ कम्बल ओढ़ के मजा से खाता रहता है । विवेक बाबू बेवफ़ा निकला ।*
(उपन्यास का एक अंश)
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