Saturday, 25 April 2020

बरगद का पेड़

जेठ की दोपहरी में सबसे नज़रे बचा के मैं चुपचाप दबे पांव सरहद के पास उस बूढ़े बरगद के पेड़ के पास जा पहुंचा जिनके लटकते- झूलते जटाओं में मेरा बचपन  कभी झूला झूला करता था । उस वक़्त उन्मुक्त बचपन उतना व्याकुल न था और विचार न था इन विचारों का । मैं अपलक उसे निहारता रहा । न जाने क्यूं ऐसा लगा जैसे कितने युगों बाद उस अपने से मिल रहा जिसने हमारे बचपन को अपनी शीतलता से सींचा था जिसके बदले हमने कभी कुछ न दिया और ना ही कभी चिंतन मात्र भी किया । जाने कितने युगों से यह अटल खड़ा कितनी पीढ़ियों को अपनी निर्मल छाव में अमूल्य प्रेम की शीतलता देता आ रहा। अनायास मैं लिपट पड़ा उन जटाओं से और एक गहरी सांस में वो सारी खुशबू अपने जेहन में समेटता चला गया । बरगद का वो बूढ़ा पेड़ मौन था और मौन था मैं भी । बस हवाओं की सांय- सांय वो सबकुछ बयां कर रही थी जो मेरे जेहन में था । आज भी कुछ लेकर जा रहा इस विशाल हृदय -बरगद से ।🌳🌳🌳

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