Wednesday, 5 September 2018

शिक्षक

उन दिनों शिक्षक दिवस पर 20 पैसे की टिकट स्कूल में लेना होता था . हरे रंग के स्टाम्प साइज़ पर काले रंग क़ा राधाकृष्णन जी की पोट्रेट बनी होती थी . कमीज पर पिन से उसे लगाना और हो गया शिक्षक दिवस पूरा. छुट्टी नहीं हुआ करती थी . ताम झाम नहीं था मगर शिक्षकों के प्रति जो सामाजिक आदर सत्कार और श्रध्दा भाव था वह शिक्षक दिवस की परकाष्ठा से परे था . छात्र पर जो गुरु क़ा अधिकार था वो परिवार से भी बढ़कर था . गुरु को अपने शिष्य पर पूर्ण अधिकार था . गुरुजी के दंडविधान पर कोई सामाजिक प्रतिबंध न था बल्कि शिक्षा क़ा यह पर्याय था . बावज़ूद इसके गुरु क़ा स्थान प्रथम श्रेणी में था. गुरु के लिए अर्थ से ज़्यादा इस बात क़ा अर्थ था कि शिष्य की शिक्षा विशेषकर नैतिक शिक्षा किस दिशा में जा रही है . सम्पूर्ण समर्पण क़ा भाव जो गुरु क़ा था वो नालायक से नालायक छात्र को पथ पर लाने को पर्याप्त था . आज़ समय के साथ बदलते सामाजिक प्रारूप ने शिक्षा की दिशा को बदल डाला है . पहले शिक्षा क़ा उद्देश्य नैतिक था अब आर्थिक है और गुरु क़ा अर्थ भी अब अर्थ तक सिमट चुका है . वो सामाजिक ताना बाना अब जर्जर हो चुका है . अर्थ ने गुरु शिष्य के आत्मीय संबंधों क़ा अर्थ बदल दिया है . अब उस हरे रंग की टिकट की जगह क़ीमती केकों और महँगे पेन ने ले लिया है . अब शिक्षक दिवस पर स्टेज सजते हैं और काफ़ी धूम धाम होती है . मगर एक शिक्षक और छात्र के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही है . दूर कोने पर एक शिक्षक उपेक्षित है और छात्र गुरुछाया से वंचित है . पहले एक मानव निर्मित होता था और आज़ सिर्फ सिलेबस पूरा होता है . मैं गौरवान्वित हूँ कि मैं उस युग क़ा शिष्य हूँ जहाँ गुरु क़ा स्वरूप गोविन्द से भी परे रहा .
उन सभी गुरुओं को मेरा आत्मिक नमन है जिन्होंने बिना मूल्य के अमूल्य बीजो क़ा बीजारोपण मुझमें किया अन्यथा हम जैसे अर्थविहीन की शिक्षा एक दिवास्वप्न होती .

(बाल विद्यापीठ,  मारवाड़ी पाठशाला , D.S.College एवं Genious Coaching तथा उन सभी गुरुओं को मेरा सहृदय नमन है🙏🏻🙏🏻🙏🏻 ) (RD✍🏻✍🏻✍🏻)

Sunday, 2 September 2018

वो मेला

*मेले की उस जगह पे खड़े नजरें उन दुकानों क़ो ढूंढ रही हैं जहां सजा करती थी मिट्टी की वो मूरतें ,  वो गर्दन हिलाता दाढ़ी वाला बुढ्ढा , शिवलिंग पे लिपटा हिलने वाला सांप , वो गेहूं पीसने वाला जाता ,  वो गहरे गुलाबी और जलेबी रंगों वाले पुतले जो बजा करते थे , वो पट पट कर पानी में  चलने वाली टीन की नांव ,  वो मिट्टी की पुतला -पुतली किधर है ? कहाँ गया वो हल्की गुलाबी लालिमा लिए कुछ पीलापन लिए अधपके आलुओं की चाट सजाये वो दुकान वाला ?  वो खटास और महक कहाँ छोड़ आया वो ?  वो कागज़ की घिरनी बेचनेवाला शायद बीमार होगा जो नहीं आया . वो खींचकर जादू से लंबी -लंबी मीठी लड़ियों से मुर्गे , घिरनी और पंखे बनानेवाला किधर छिपा बैठा है ?  वो हवा मिठाई वाले की साइकिल किधर है जो पैडल मरते ही घौउ -घौउ की बेचैन कर देने वाली आवाज़ किया करता था ? वो बाइस्कोप पर दिल्ली क़ा कुतुबमीनार दिखाने वाला अबकी क्यों नहीं आया ? वो बाजे -बांसुरी क़ा शोर जो मेले की आवाज़ हुआ करती थी ,  क्यूँ नहीं सुनायी दे रहा ?  वो लोहे क़ा झूला जो झूलेवाला दो पैसे में चाहे जितना चक्कर लगवा लो चिल्लाया करता , वो अब खाली क्यूँ पड़ा है ? वो मिट्टी की टूमनी बेचनेवाला जिनके पास ना जाने कितने तरह की टूमनियाँ हुआ करती थी वो उस दुकान पे क्यूँ खड़ा है जहां पीग्गी बैंक सजे हैं ? वो शामियाने क़ा रंग-ओ -रूप भी क्यूँ बदला -बदला सा है ?  वो मेला जो सजता था एक एक पल के इंतजार में , आज़ इतना सूना क्यूँ दिख रहा ?  मन इसी ख्यालों के अंतर्द्वंद में उलझा सा था कि मोबाइल की घंटी बज उठी और आवाज़ आयी -"कहाँ हैं ? डिजनीलैंड कब जाना है ? "(RD)✍🏻✍🏻✍🏻*

Sunday, 26 August 2018

मिट्टी

उम्र किया ज़ाया मिट्टी क़ो महल  बनाने में

अब रोके ना रुकता पत्थर,  मिट्टी से  मिल  जाने  में

तिनका तिनका वक़्त गया अनजाने में

नींद खुली तो खुद क़ो पाया वीरने में

चला जा रहा असीम पथ पे क्या पाने क़ो

ठहरा तो फ़िर पाया खुद क़ो वीरने में 
(RD) ✍🏻✍🏻✍🏻

नया दौर

स्कूलों का वो शोर अब कुछ शांत सा है
तन्हाई में भी अब चित्त अब अशांत सा है ।

सुबह की वो लालिमा  अब धूमिल सी है
कलरवों का वो शोर अब मध्यम सा है ।

साँझ की वो बेला अब ख़त्म सी है
वो घंटियों की आवाज़ निकलती गयों के गले से अब ख़त्म सी है ।

जुगनुओ की वो अँधेरी रातों में टिमटिमाना अब अँधेर सी है
वो घुटनों की छीलन अब गायब सी है ।

वो लाल जलेबी अब रंग खोती सी है
वो पीली चाट और गुलाबी टिक्की रोती सी है ।

कंचों की वो खनखनाहट अब खोयी सी है
लट्टुओं की वो घनघनाहट अब शांत सी है ।

कित  -कित  की वो कित -कित था अब मौन सी है
बारिश में मिट्टी की सोंधी सी महक अब खोती सी है ।

कच्चे अमरूद का वो स्वाद अब फ़ीका सा है
गुड्डे गुड्डियो का वो खेल अब पुराना सा है ।

बारिश में नाव चलाने का दौड़ अब ख़त्म  सा है
कभी ना थकने का वो दौड़ अब मध्यम सा है ।

माँ के आँचल की कोर में बँधे खजाने अब लूटे से हैं
वो रँगीन होली अब बेरंग सी है वो रोशन सी दिवाली अब बेनूर सी है ।

हसरतें अब नये दौर में बदली सी है
बड़ी चाहतों में छोटी ख्वाहिशें अब गायब सी हैं ।

अब समय बदला बदला सा है रुत बदली बदली सी है
मीजाजे शहर भी अब बदला बदला सा है ।
✍(RD)

बहाव

सिमट रही है ये जिंदगी चुपके से ...
ढल रही है शाम -ए -ज़िँदगी आहिस्ते से ....
जुदा होते वो रहनुमाँ अपनों से ...
खुदा होते वो महफिल-ए -यार चुपके से .....
मैँ तो वहीँ हूँ जुदा हो रहा ये वक्त धोखे से .....
सिमट सी रही वो ख़्वाब-ए -मंजिल अलसाये से ....
लुट रहा खज़ाना -ए -बेशक़ीमती बेवज़ह से ....
मैँ तो वहीँ हूँ वक्त फ़िसल सा रहा तेज़ी से .....
तम्मना थी गले मिलने की किन -किन से , वो अब ना रहे अचानक से .....
दर्द -ए -दिल का हाल कैसे कहेँ किस -किस से वो अहसास-ए -रिश्ते  ना रहे.....
मैँ तो वहीँ हूँ कतरा -कतरा बह रहा चुपके से ....
जाने कहाँ  से वो अपनों की छाँव सिमट रहा आहिस्ते से .....
ऐ वक्त ज़रा ठहर मिलना है उनसे बेवज़ह रूठे हैं जिनसे ....
ऐ वक्त ज़रा ठहर कुछ गुफ़्तगू बाकी है उन बुज़ुर्गो से ...
ऐ वक्त ज़रा ठहर मिलना है ज़रा ख़ुद से ....
ऐ पल थोड़ा सा थम ढूँढ लेँ वो ख़ोया सा बचपन ....(RD)✍🏻✍🏻✍🏻

ज़ायका जलेबी का

वो जलेबियों की महक ,  रफ़ी के आजादी के गाने , वो 15 ऑगस्ट की तड़के की सुबह और सुबह के इंतजार में बीती शाम .......आज़ादी का मतलब पता नहीं था मग़र पूरे आज़ाद थे । सुबह तड़के उठ जाना और इस्त्री की हुई कमीज़ और हाफ़ पैंट नहाकर तुरत पहन कर पुराने जूतों को ढुंढवाने की जिद्द ज़ेहन में जिंदा है । जल्दी से राष्ट्रगान ख़त्म होने का इंतजार उन रसदार जलेबियों के ज़ायका लेने का । जलेबियों के आगे किसी भी चीज का मतलब न था । आज़ादी का मतलब पता न था मग़र आज़ाद थे । शायद वही असली आजादी थी । उन गरमा - गरम जलेबियों के रस का जायका अभी भी ताज़ा है ज़ेहन में । बंद आंखों से साफ़ दिखती वो पुरानी तस्वीर कभी धुंधली ना हुई । आज़ फ़िर आज़ादी का जश्न -ए -माहौल है और आज़ादी का मतलब बहुत पता है मग़र वो आज़ादी का लुफ़्त क्यों नहीं है ? अब जलेबियों का ज़ायका भी बदला - बदला सा है । उन भीनी - भिनी खुशबुओं का मिजाज़ भी जुदा - जुदा सा है । वो आज़ादी की खुशबू अब कहीं खोयी सी है । अब वो पुरानी जिद्द क्यों नहीं आती ?  क्यों नहीं इंतजार रहता उन बेशक़ीमती खजानों का जो माँ के आँचल के कोर से बंधी चवन्नी ख़रीद लेती थी ? 

(राजू दत्ता)✍✍✍

बरसात

आज़ फ़िर बरसात आयी है .

आयी है मग़र चुपके से
ना कोई संदेशा ,  ना कोई ख़बर .
पहले भी तो आती थी मग़र अंदेशा होता था .

वो टप टपाहट की धुन पर नाचती बूँदों का उत्सव क्यों बंद है

वो सुर्ख़ मिट्टी से बूँदों का मिलना और उस मिलन की सौंधी खुशबू कहाँ गुम हुई .

वो कागज़ की कश्तियों का लंगर कौन लूट ले गया .

 वो झँझावात , वो हवाओं की सनसनाहट किधर है .

बारिश में भींगते नहाते वो मंज़र क्यूँ नहीँ दिखते.
टिन की छत पर थिरकते बूँदों का वो सँगीत अब शाँत क्यूँ  है .

घर की दीवारों को गीला कर देने वाला वो लगातार रिसने वाला मौसम क्यूँ नहीँ आता .

बूढ़ा बरगद का वो पेड़ क्यूँ वीराँ पड़ा है . कहाँ गया उनपर कलरव करते पंछियों का वो रेला .

कहाँ गया उन बच्चोँ का मेला जो उनकी छाँव में हर रोज़ लगता .

उन बादलोँ के गरजने से पहले अपनी कानों पे सबसे पहले  ऊँगलियोँ रखने का वो खेल भी क्यूँ बंद पड़ा है .

वो अपनी ही धुन में टर्राते मेंढक अब कहाँ चले गये .

कहाँ गये वो टोटके जिनसे बारिश रोकी जाती थी .

मुहल्लों में घुटनों भर लगने वाला वो पानी जिसपर हमने  छप -छपाहट का खेल खेला ,

 कहाँ गुम हुआ वो .दिन को भी वो रात का मंज़र अब दिखता नहीँ . नहीँ दिखता बारिश का वो उत्सव .

अब तो सीधे बाढ़ आती है , बूँदों का वो दौर अब गुज़र चला है अब वो सारी धुन ,
वो भीनी महक और जज़्बात बंद कमरे की दीवारों में कैद है .

अब ये नया दौर आया है . (RD)✍✍✍