Thursday, 8 December 2022

बेरोजगारी का समाजवाद

*#बेरोजगारी का समाजवाद और गरम समोसा...!#*

सच है न ! बेरोजगारी की रईसी रोज़गार की शोहरत से ज्यादा मज़े दिया करती थी । वो भी क्या दिन हुआ करते थे जब पॉकेट खाली और दिल खुशियों से लबालब भरे हुआ करते थे । वो चाय की दुकान और वहां होनेवाली किच - किच के मजे कि पैसे कौन देगा? चाय के तू देगा और बिस्कुट के वो ! कल मैंने पिलाया था , आज तू देगा ! नाश्ते की दुकान हो या फिर समोसे की दुकान और या फिर मूंगफली वाले का ठेला हो , पैसे का किच - किच ही असली स्वाद दिया करता ! नया सिनेमा और पहले शो का पहला टिकट बुक होने से पहले का जुगाड़ और गहन माथापच्ची का क्लाइमैक्स आज की वेबसरीज के क्लाइमैक्स से भी ज्यादा क्लाइमैक्स दिया करता ! और यही उम्दा क्लाइमैक्स बेरोजगारी की दर्द को दबाए रखा करता ! बिना बुक्स मेंटेन किए पूरा और सही हिसाब - किताब हुआ करता और बैलेंस शीट पूरी तरह बैलेंस हुआ करता ! जो कुछ भी चिल्लर अपनी जेब में हुआ करता उसका १०० प्रतिशत अपने पर खर्च हुआ करता और उन दोस्तों की उधारी पर जिससे ऐश किए जाते ! ज्यादा अमीर दोस्त गरीब दोस्तों के खर्चे उठाया करता और कम अमीर अपना जुगाड़ खुद कर लेता । देश में समाजवाद भले ही फेल हुआ हो मगर बेरोजगारी का समाजवाद हमेशा सफ़ल रहा है । बेरोजगारी में कोई अमीर और कोई गरीब नहीं होता । सब एकसमन बेरोजगार होते हैं और इसका मज़ा सब बराबर - बराबर लेते हैं ! इसी मजे के नशे में मार्क्सवाद भी पनपा होगा !

 खैर..! फिर रोज़गार की घातक बीमारी फैली और वो शानदार नशा टूटा और फिर आदमी भी टूटा! अब पैसे जेब में आने लगे और वो दोस्तों की किच - किच ख़त्म होने लगी ! सारे रोजगारी हो गए ! बेरोजगारी का समाजवाद ध्वस्त हो गया । अब वो १०० प्रतिशत जो बेरोजगारी में अपने पर खर्च हुआ करता बाकि जिम्मेदारियों पर लुटा जाता है और बेरोजगारी का चिल्लर भी अब हाथ से गया ! आदमी पहले से ज्यादा कंगाल हो गया । अब बैलेंस शीट गड़बड़ा गया और लायब्लिटीज ज्यादा हो गया । हर कोई अपना बैलेंस शीट ठीक करने की जुगाड़ में व्यस्त होकर दोस्तों से किच - किच और हुल्लरबाजी भूलता गया और वो असली स्वाद जाता रहा ...! अब आदमी सिनेमा का उतना मजा नहीं ले पाता और खुद सिनेमा हो चुका है ।

जिंदगी का असली स्वाद दोस्तों की किच - किच और थोड़े अभाव में ही होता है । अपना समोसा जल्दी - जल्दी खाकर दोस्तों के समोसे को झट से उठाकर खा जाने का आनंद उस अपने हिस्से के समोसे के स्वाद से ज्यादा आनंदपूर्ण होता है । चाय के पैसे की किच - किच और आज तू पिलाएगा वाली फीलिंग ही गुड फीलिंग है और बाकी तो बस गहरी फीलिंग ही है ! किच - किच का जो संगीत है वही असली सुर है बाकि तो बस दिल को बहलाने का कोई भी ख्याल अच्छा है । पूरा रोजगार जिंदगी के संगीत को बेसुरा कर दिया करता है । थोड़ी बेरोजगारी जरूरी है जिंदगी में ताकि आप फुरसत में अपनों के साथ किच - किच कर जिंदगी में क्लाइमैक्स बनाए रख सकें और जिंदगी के नूरानी मज़े ले सकें ! 

*(राजू दत्ता✍🏻)*

Monday, 12 September 2022

घुघनी - मूढ़ी

#घुगनी -मूढ़ी#

लिट्टी - चोखा के बाद अगर हमारे बिहार में कोई दूसरी नंबर वन जोड़ी है तो वो है घुघनी - मूढ़ी की जोड़ी और साथ में चने की दाल वाली कचड़ी और आलू चॉप रहे तो सुभान - अल्ला 😋

शाम का समय हो और मध्यम सी हल्की - हल्की बारिश की फुहार  और चावल का भूंजा या फिर मूढ़ी और ऊपर से घुघनी और कढ़ाई पर खौलते तेल में तैरता कचड़ी,चॉप और फिर गरमा - गरम बैंगनी ...!😍 उसी गरम तेल को छनौटे से लेकर भूंजे में डालकर जो तड़का तैयार किया जाता उसे परवान चढ़ाता प्याज और हरी मिर्च का तीखापन और कचड़ी, चॉप और बैंगनी का संगम ....!😍

बस याद आते ही वही नायब स्वाद जिंदगी का फिर जिंदा हो उठता है ...! 🥰 छोटे शहर की बड़ी दास्तां अक्सर बड़े शहर की छोटी सी कहानी पर हावी हो ही जाती है ....😊

विशुद्ध देशी और मन को मोह लेनेवाला आईटम...! हर जेब में फिट और हमेशा सुपरहिट..! एकदम जिंदा आईटम...! प्रोटीन से लेकर विटामिन सी और तमाम मिनरल्स और सरसों तेल का हल्का फैट ! 🤩 शाम का ऐसा नाश्ता जिसका कोई जोड़ - तोड़ आजतक नहीं आया ...! पिज्जा - बर्गर, मोमो- टोमो और पास्ता -मैगी को धूल चटाता मूढ़ी - घुघनीं आज भी शानदार , जबरदस्त, जिंदाबाद से लबरेज़ आईटम नंबर १ ही है ...!😋

मिट्टी की भांड में सोंधी - सोंधी खुशबू लिए गरम चाय साथ में और फिर दिलखुश घुघनी - मूढ़ी का दिलकश आईटम और बारिश की फुहार और दोस्तों के साथ गुफ्तगू हो तो आप जन्नत में हैं...! बस आपके पास भींगे - भींगे से जज़्बात हों और चंद यार साथ हों और आप दूर कहीं छप्पर वाली दूकान पर उबलती चाय की केतली को तिरछी नजरों से देखते हुए भूंजा फांक रहे हों तो कसम से आप एक जिंदगी के बेहतरीन पलों में से एक बेहतरीन पल को जी रहे हैं ...!🥰 बाकी तो बस जज़्बातों का खेल है और गूंगे का गुड़ है ....!😇

हम तो इस जीवन रस का नायाब स्वाद लेते रहे हैं और आज भी नुक्कड़ की दूकान पर मिट्टी के चूल्हे की आंच में उबलती चाय और खौलते तेल में अपने भींगते जज़्बात की गर्म भांप को महसूस किया करते हैं ...!🥰

(राजू दत्ता✍🏻)

Wednesday, 31 August 2022

ढोलक साबुन से मिलेनियम तक

*ढोलक साबुन से मिलेनियम तक*

कटिहार से हैं और अगर ढोलक साबुन का नाम नहीं सुना तो याद ताजा किए देता हूं 😇 जी हां , ढोलक साबुन! ऐसा साबुन जो सबकुछ धो देने की काबिलियत रखता । सोडा की खटास भरी गंध लिए ढोलक साबुन की मिठास भरी यादें अब भी कटिहार और आसपास के क्षेत्रों के लोगों में ताज़ी हैं । ग्रोवर साहब की जी सोप फैक्ट्री में ढोलक साबुन तैयार होकर पूरे जिले को नहला - धुलाकर तैयार किया करता । उन दिनों शैंपू केवल मधुबाला जैसन मुंबईया हीरोइन ही इस्तेमाल किया करती थी । आम आदमी ढोलक साबुन जैसा साबुन ही माथा में घस घस के अपना गंदा और लट्ठा वाला बाल धोकर फुरफुरा करके हीरो वाला फीलिंग करता था । कपड़ा भी ढोलक ही धो दिया करता । आम आदमी जिसका कोई भी कभी भी बजा देता , चार आने का ढोलक साबुन खरीदकर अपना कच्छा बनियान से लेकर सबकुछ धो डालता था । बाकी सब साबुन अमीर और हीरो टाइप आदमी के लिए बना था । लाइफबॉय से नहाकर आदमी एकदम से तंदुरुस्त हो जाता बिना कोनो दवा के ।

इस छोटे से जीवन में तरह तरह का साबुन देखा और लगाया लेकिन आज भी गर्मी के दिनों में खस और जाड़ा में पियर्स का कोनो जोड़ - तोड़ नहीं है । 

भैया लोगन को लक्स लगाते देखते थे । दे लक्स ...दे लक्स । ढेला जैसा लेकिन सुगंधित । किसी पर चला दीजिए तो कपार फुट जाए । माधुरी दीक्षित भी लक्स से ही नहाते - नहाते हेरोइन हो गई थी । 

मम्मी का पसंदीदा होता था - मार्गो - नीम वाला । हम लगाते तो मुंह तक तित्ता हो जाता । जब हम लोग टीन एजर हुए तो - जिसका टीवी प्रचार बढ़िया - उहे साबुन खरीदाएगा । 

लिरिल 😝 आज भी लिरिल के प्रचार का कोई बराबरी नहीं कर पाया । ला... लाला ... ला.... 😶‍🌫नींबू की खुशबू के साथ - लिरिल से नहा लीजिए तो तन से लेकर मन तक फ्रेश फ्रेश 😊 नहाते वक़्त उसका प्रचार भी याद कर लीजिए 😝 मन कुछ और भी फ्रेश । 

फिर सिंथॉल आया - घोड़ा लेकर विनोद खन्ना अंकल ऐसा दौड़े की सिंथॉल भी बाज़ार में दौड़ने लगा - लेकिन हम कभी नहीं लगाए , ई वाला साबुन बड़का लोगन का होता था । 😐 पिता जी उम्र के विनोद खन्ना नहीं पसंद आए 😐 

एक आता था - मोती साबुन । वो और भी ढेला । तराजू के बटखरा जैसा । चंदन की खुशबू पहली बार मोती में ही सुंघे । फिर दक्षिण भारत से मैसूर चंदन वाला - सरकारी साबुन । ऐसा लगता था कि नहाने के बाद अब सीधे पूजा ही करना है - चंदन का असर होता था । कभी कभार खरीद कर थोक में घर भी लाते । अलग अलग क्वालिटी । एक्सपोर्ट क्वालिटी खरीदते वक्त एनआरआई टाइप फिल होता था 😁

लाइफबॉय का नसीब देखिए 🙃 उसका जिंदगी टॉयलेट के पास ही कट गया । कटा हुआ लाइफबॉय । जब किसी के शरीर में चमड़े का कोई बीमारी होता था तो बाबू उसको सलाह देते थे कि लाइफबॉय लगाव । हम उनका मुंह देखते थे - कोई कैसे शरीर में लाइफबॉय लगा सकता है 😐 लेकिन बैक्टीरिया मारने का सबसे बेजोड़ साबुन लाइफबॉय ही होता था ।😷 

उसी टीनएज दिनों में  डिंपल आंटी गोदरेज के किसी साबुन के प्रचार में आई । कुछ ग्लोरी टाइप । ऐसा ना जुल्फ झटकी की दो चार महीना वो भी खारीदाया । कोई दोस्त महिम बोल दिया - लेडिस साबुन है । डिंपल आंटी का प्रचार मन में रह गया और साबुन दूर हो गया ।🤦🏻‍♀️ 

पार्क एवेन्यू भी दूध के स्मेल टाइप कुछ प्रोडक्ट लाया लेकिन हम नहीं लगाए । बेकार । पूरा शरीर दुधाईन महकता था ।🙄

फिर कुछ ओव डोब आया - जनानी टाइप । लगा के नहाने के बाद , कितना भी तौलिया से देह पोंछिए - लगता था अभी भी साबुन देह में लगा ही हुआ है 😶‍🌫 

फिर , भारत का सबसे महंगा साबुन - मिलेनियम । ₹ 850 प्रति केक । 12 % चंदन का तेल । लगा लीजिए तो ऐसे ही खुद को मैसूर महाराजा समझने लगिएगा । अखोर बखोर से बात करने का मन नहीं करेगा 😝 

अभी हम डेटॉल साबुन से नहाय रहते हैं और डेटोल वाला गंध से गमगमाये रहते हैं । कोरोना में डेटॉल वाला जादा काम करता है ऐसा प्रचार वाला बार बार कहता है ।🤧😷

इधर रामदेव बाबा भी जड़ी बूटी वाला साबुन बेच रहे औरो योगा वाला आदमी सब वही साबुन से नहा रहा आजकल 😊

अभी लिख रहे हैं कि जोर का डांट पड़ा है कि छुट्टियों में चैन नहीं आपको .....😖

हद हाल है ...अब जन्मकुंडली के केंद्र में शुक्र बहुत मजबूती से बैठे हैं तो मेरा क्या दोष 😐 अब यही सब पसंद आएगा - साबुन तेल पाउडर गीत ग़ज़ल इतिहास भूगोल इत्यादि इत्यादि 😝

एक मेन चीज का चर्चा छूट गया – बॉडी वाश । आजकल बोतल औरो पाउच में साबुन का लिक्विड आने लगा है । एक बार कोनो बढ़िया होटल में मंगनी में मिला सो घस घस के नहाए । आह...। बेहतरीन मर्दानगी वाली खुश्बू के साथ । लेडिस वाला अलग से लिखा था । हर जगह के लिए अलग अलग लिक्विड रखे था , अलग अलग खुशबू लिए  😇

अब तो कोनो मर्दाना वाला पार्क एवेन्यू टाइप घासिए और ओल्ड स्पाइस आफ्टर शेव । मस्त होके गॉगल्स लगाइए और बुलेट हांक दीजिए – शर्ट का ऊपर वाला दो बटन खोल 😎 बीच बीच में गोविंदा वाला दांत निकलते हुए रजनीकांत स्टाइल में लहरियाते हुए ।

🥰 चाहे कितनों साबुन लगा लीजिए , ढोलक का मुकाबला कोनो नहीं .... काहे कि कटिहार का अपना साबुन है 😎

*(राजू दत्ता✍️ रंजन ऋतुराज भैया के आशीर्वाद से )*

Tuesday, 30 August 2022

ठेलागाड़ी

#ठेलागाड़ी#

९० के दशक तक जन्मे ऐसे कौन लोग होंगे जो लकड़ी की इस मर्सिडीज को नहीं जानते और इसका इस्तेमाल जिसने न किया हो 🥰 तीन पहिए वाले लकड़ी के इस ठेलागाड़ी ने हम सबको खड़े होकर चलना सिखाया है 🚶‍♂️घरवाले हमें इसके सहारे खड़े कर लगभग दौड़ा ही दिया करते और गिरते संभलते हम धीरे धीरे पक्के हो जाया करते 🥴 हर मेले और हर हाट में लकड़ी की यह ठेलागड़ी मिलती ही मिलती ☺️ बिना ब्रेक की इस गाड़ी ने हमें तेज चलते और दौड़ते हुए बिना ब्रेक के भी यह बखूबी सिखा दिया कि संभलना कैसे है और रुकना कब और कैसे है 😇 उठते - गिरते और संभलते और फिर दौड़ लगाते और साथ देती यह ठेलागाड़ी....🕺🏻इसी की सवारी करते हम कदमों को सही ताल देना सीख पाए और संतुलन का तरीका भी जान पाए 🕴️इस तीन पहिए की गाड़ी ने अपनी क्षमता से कहीं बढ़कर हमें सहारा दिया है 🧑‍🦯 

समय बदला और अचानक से यह गाड़ी गायब हो गईं और नए - नए रिक्शे और वॉकर आते गए और बच्चे डाइपर में वॉकर में पैर फंसाए चलना सीखने लगे । वॉकर में कोई रिस्क नहीं । बस दोनों तरफ टांगें फंसा दो और बच्चा खड़े - खड़े लुढ़कता जाता है और ऐसा करते करते बिना घुटना छिलाए चलना सीख जाता है । अब बिना घाव हुए ही  बच्चे चलना और दौड़ना सीख जा रहे हैं । संतुलन बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी मॉम - डैड का ही है । पहले की तरह खुद ठोकर खाते हुए संभलने का रिस्क नहीं रहा 😇 बिना ब्रेक के कब कैसे ब्रेक लगाना है और कैसे संतुलन बनाना है यह अब उतना अहम नहीं रहा ....😌 अपने समय में मां - पिताजी को ख़बर नहीं हुआ करती कि किस घुटने में किधर चोट के निशान हैं और हम कितनी बार गिरे । आज मॉम - डैड को दिन - रात की फिकर रहती है कि बेबी गिर न जाए । गिरने और संभालने की परिभाषा शायद बदलती सी जा रही है ...! नए खिलौने ने पुराने को बदलकर सबकुछ बदल दिया है और बदलाव जारी है ....😇 

चाहे जो भी हो अपनी पुरानी मर्सिडीज का कोई जोड़ - तोड़ नहीं ....🥰 तीन पहियों के साथ हमारे दोनों पैरों को दिशा देता और गिरकर संभलना सिखाता अपना तिपहिया सबपर भारी है...!

(राजू दत्ता✍🏻)

Saturday, 27 August 2022

ताड़ के पंखे का तार

#ताड़ के पंखे का तार#

जेठ की तपती दोपहरी और पसीने से तर बतर पूरा शरीर...! हवा का कोई नामो निशान नहीं ...! पत्ते भी खामोश !

पीढ़िया पर आलथी - पालथी मारे हम खाना खा रहे होते और मां पानी से भींगे ताड़ के पंखे से खुद पसीने से नहाए हमें हवा करती और हम राजा बाबू की तरह शीतल हवा में मस्त ! ये दौर था हमारी राजशाही का ...! 

उन दिनों बिजली का पंखा बहुत ऊंची चीज़ हुआ करती ...! बड़े लोग सीलिंग फैन लगाते और मध्यम लोग टेबल फैन और कम मध्यम लोग अपनी हैसियत के हिसाब से छोटा लोकल टेबल फैन...! बाकियों के लिए घूमने वाले रंगीन बांस के पंखे और ताड़ के पत्तों के पंखे । ताड़ के पंखों के चारों ओर करीने से पुरानी साड़ियों के कपड़े सीकर सजाए जाते ...! बड़ी शीतल हवा ताड़ के पंखों से आती और पानी से भिंगोकर पंखा झलने से कूलर जैसी ठंडी और पानी की फुहार वाली हवा आती और पूरे बदन को शीतल कर जाती ....! 

गर्मियों में दादी , नानी, मासी , काकी और मां सबके हाथों में अमूमन ताड़ के पंखे होते ...! सोते हुए भी पंखे झलने का नायब हुनर हमने अपनी मां में देखा है ...कई बार पंखे हाथ से छूट जाते और फिर नींद में ही पंखे फिर से झलने लगते ...! कभी कभी बाज़ार में बांस या प्लास्टिक के जापानी पंखे भी मिल जाते मगर ताड़ के पंखे की जगह नहीं ले पाए...! बिलकुल किफायती और ठंडी हवा का जरिया ...।

टेबल फैन की बात करें तो घूमने वाला टेबल फैन चारों तरफ़ हवा फेंका करता और आदमी बार - बार इंतज़ार में रहता कि कब पंखे का मुंह उसकी ओर आए...। चलती टेबल फैन के सामने चेहरा किए आवाज निकालने पर जो कटी - कटी सी फटी आवाज़ अर्र..... अर्र ... सी आती वो हमारे लिए नया संगीत हुआ करता और घूम - फिरकर अर्र..... अर्र ...की आवाज निकालते हुए मुग्ध होता बचपन ...!

उषा, सन्नी, बजाज और भी न जाने कितने ब्रांड मगर शादियों में लगने वाले तूफ़ान का धारदार पत्ती वाले फैन के तूफानी हवा के सामने सब फेल था । तेज स्पीड में दूर तक हवा फेंकने का अजूबा हुनर मानों सबकुछ उड़ा ले जायेगा .... तूफ़ान फैन में भी हमने अर्र..... अर्र ...कर अपने बुलंद हौसले को आजमाया हुआ था । बारातियों के बारात घर में यही तूफ़ान लगाया जाता और शादियां हुआ करती ....! लाईट कटने पर जनरेटर से तूफ़ान चला करता ।

सीलिंग फैन बड़ी चीज थी । गर्मियों में सीलिंग फैन का घर में होना जबरदस्त इज्ज़त की बात हुआ करती ...! बस स्विच दो , रेगुलेटर में स्पीड सेट करो और औंधे लेट जाओ बेखबर और देखते रहो घूमता हुआ पंखा ...! गर्मियों की रात लाइट गई और फिर चार आने की प्रसाद चढ़ाने की कबूलती और फिर लाइट आते ही खुशी से चिल्लाते हुए वापस घर और पंखा चालू....! पूरा माहौल सजा होता और जिंदगी पंखे की स्पीड से हवा छोड़ती उड़ती जाती ....! कभी गर्म तो कभी ठंडी हवा के झोंको से चलती जिंदगी ...!

ताड़ के पंखे धीरे - धीरे कम होने लगे ....बढ़ती हैसियत के साथ टेबल फैन और सीलिंग फैन का चलन बढ़ा और आदमी बिना हाथ के पंखे से हवा लेता आगे बढ़ता गया ....!

फिर कूलर बाबा आए और ठंडी हवा का नया झोंका लेकर आए और आदमी और ठंडा हुआ । तार और बांस का पंखा हाथ से मानों छूट ही गया ...! राजा बाबू अब कूलर के सामने डाइनिंग टेबल पर खाने लगा । मां को अब आराम हो गया ।

रेल की यात्रा और गरमी का मौसम और उल्टा लटका टेबल फैन बिना कलम घुसाए भला खुद चल जाए? चल गया तो चक्कर नहीं तो स्टेशन पर फिर वही हाथ वाला पंखा या फिर २ रुपए का प्लास्टिक का लिखो फेको वाला पंखा ।

फिर कूलर बाबा को नीचा दिखाने एसी साहब आए और गरमी में जाड़े की सरदी दे गए ...जेठ की दोपहरी तो वही मगर चादर ओढ़े एसी के कमरे में ....! आदमी अमीर होता गया और गरमी बढ़ती गई और फिर ठंडक का जुगाड बढ़ता गया ....! विंडो जिससे पड़ोसी के घर दिखा करते वहां विंडो एसी का कब्ज़ा हो गया । स्प्लीट एसी ने तो ऐसी गदर मचाई कि पूरे का पूरा घर बंद होकर ठंडा हो गया ...। जेठ की दोपहरी वाली गरमी अब ताड़ के पंखों का मोहताज नहीं रही । रिमोट कंट्रोल से मौसम उंगलियों का गुलाम हो गई और ताड़ का वो गीला पंखा और दोपहर के खाने के साथ मां की हवा खाने का दौर बदल सा गया ...! पंखा झलते मां हर बात और हर कहानी कहती जाती और राजा बेटा तपती दोपहरी में शीतल हवा में मुग्ध होकर गर्म खाना खाता !

मां की शीतल छांव में गुजरी जेठ की दोपहरी में जो ठंडक हुआ करती आज की सेंट्रलाइज्ड एसी में भी वो ठंडक कहां! लकड़ी की पीढ़ी पर आलथी - पालथी मारे बैठकर दोपहर का भोजन और करीब बैठकर मां का ताड़ का पंखा झलना ...स्वर्ग का सुख भी इसके आगे कुछ भी नहीं ...! ताड़ का पंखे का तार कहां तक जुड़ा हुआ करता यह तो वही जाने जिसने इसकी शीतलता का आनंद अपनी मां की ममता की छांव में लिया है ...! न जाने कितने ही ग्रीष्म काल बीते एसी के बंद कमरों में मगर वो ठंडक कभी महसूस नहीं होती ....मगर हां , उन यादों के साए में फिर वही ठंडक आज भी तो आती है ....आती है न?

#(राजू दत्ता✍🏻)#

Monday, 25 July 2022

बीघा से स्क्वायर फूट तक

#बीघा से स्क्वायर फुट तक#

दिल्ली एनसीआर, नोएडा , गुरुग्राम , मुंबई .....ये वो नाम हैं जहां हर कोई गुमनाम है ...🧙🏻‍♂️ गांव से निकले काफ़िले यहीं आकर रुकते हैं ....!🏃🏻‍♂️ 
कुछ को नौकरी चाहिए तो कुछ को रोज़गार और कुछ को चकाचौंध ...!💫 

बीघों की जमीन छोड़ स्क्वायर फीट में जिंदगी को फिट कर लेने की धुआंधार दौड़ में शामिल भीड़ और सोचता हुआ " मैं" .....!😇

समाज को कोसों दूर छोड़ता हुआ सोसायटी ढूंढता एक नया समाज!🕵🏻‍♂️ स्विमिंग पूल , क्लब , जिम और भी न जाने कौन - कौन सी अमेनिटीज ....और फिर स्क्वायर फीट में सिमटी २ , ३ और ४ बीएचके चमकते टाईल्स वाले फ्लैट्स ....और उसकी बालकनी से झांकती सुकुन ढूँढती हजारों आंखें और सोचता मन ....!🤔

92.7 एफएम पर बजता गाना - " दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात - दिन ...." और फिर उदास मन और फिर " एक अकेला इस शहर में , रात या दोपहर में ......" फिर चलते हैं कहीं दूर खुली वादियों में पहाड़ों की ओर तो फिर कहीं खुले आसमान के नीचे खुले समुंदर की ओर  .....!🌊
 बैचेन मन और फिर बीघे में बिखरी यादें और स्क्वायर फीट में सिमटी दास्तां.....!🫥 स्क्वायर फीट में लगी पूरी जमा पूंजी और फिर किश्तों में बटी जिंदगी और समझौतों में उलझी - उलझी बिना आसमां वाली रातें ....!🌑 सूखते और बिकते बीघे और स्क्वायर फीट के भरते किश्तों का सफ़र और बेहिसाब असर और फिर कटती उमर....!🕗

फिर एफएम पर " रात के बारह बजे दिन निकलता है ... सुबह के छः बजे रात होती है .... आमची मुंबई...  " फिर सब कुछ उल्टा - पुल्टा...!🙃 

रात - दिन और फिर दिन और रात सब बराबर और जमींजोद होती जिंदगी ....! यार ! निकल चलते हैं इस जंजाल से और चलते हैं उसी पुराने चौपाल पे और बीघों में फैले उस पुराने मकान में ...मगर , किंतु, परंतु, बट.....! 😇बहुत कन्फ्यूजन है ....!😇 

सांप - छुछुंदर के इस खेल में जिंदगी ऐसे ही बीतती जाती है और फिर ऑफिस , काम , किश्त, एफएम और ऐसी ही कशमकश में कश लगाता धुआं छोड़ता हर फिक्र को धुएं में उड़ाता धुआं - धुआं होता आदमी .....!🌪️ और फिर सुबह होती है , शाम होती है और जिंदगी यूं ही तमाम होती है ...! 👨🏻‍🦯

यात्रीगण कृपया ध्यान दें - " गाड़ी संख्या १२४२३ नई दिल्ली से गाजियाबाद , कानपुर के रास्ते इलाहाबाद , मुगलसराय, पटना होते हुए ....कटिहार .....प्लेटफार्म नंबर १६ पर आ रही है ....यात्रीगण अपने समान की रक्षा स्वयं करें ....भारतीय रेल आपकी सुखद और मंगलमय यात्रा की कामना करता है ....धन्यवाद!🚑

(राजू दत्ता✍🏻)

Saturday, 23 July 2022

टायर - ट्यूब से यूट्यूब तक

#टायर - ट्यूब से यूट्यूब तक#

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यूट्यूब वाले बच्चों !🫵🏻📢 

बचपन में हम भी बहुत टायर और ट्यूब चलाया करते थे....!🚨 मगर फासला बहुत है अब और तब में....!⏳ 
हम यूट्यूब भी चला लेते हैं मगर आज के इंटरनेटी बच्चे टायर और ट्यूब नहीं चला सकते...!😤

खाली पैर या फिर चप्पल के खुलते हुए फीते को अपनी पैर की उंगलियों से ही दुबारा भीतर ठेलते हुए दौड़ लगाते दनादन टायर चलाने का कौशल कूट - कूट कर भरा था....!🥳 

साइकिल की बेकार चिप्पी लगी टायर और ट्यूब हम पूरे दिन हांकते रहते और फ़िर उसी टायर और ट्यूब को एक दूसरे से फंसाकर झूला भी बनाकर झूमते रहते .....🧚‍♀️

टायरों को खुले हाथों या फिर छोटे डंडे से  मार मारकर हम भगाया करते और फिर रेस लगाते....!🚴🏼‍♂️ और फिर मर चुके टायर को जलाकर 🔥आग सेकने के बाद उसके भीतर के तार को जमा कर कबाड़ वाले को बेचकर कभी लाल वाली आइसक्रीम तो कभी लेमनचूस या फिर काला पाचक खरीद लेते....🥓🍡🍬 ऐसा जबरदस्त हुनर था हमारे पास ...😇 हम अपना जुगाड़ ख़ुद कर लेते ...! 

अब कौए के घोंसले में छापा मारकर उनके मजबूत चोंच और लोल से मार खाते और बचते - बचाते लोहा लक्कड़ निकलकर जब्त करके कबाड़ वाले से वैल्यूएशन करवा के सही दाम में बेच लेना और पैसे लेकर ऐश करना आज के इंटरनेट युग से कहीं ज्यादा हुनरमंदी का काम था ...!😇

 खैर ...! रात गई और बात गई ...और हम आ गए ट्यूबलेस युग में और पुराने टायर और ट्यूब हो गए ख़त्म..! अब बंद कमरों में यूट्यूब तेजी से चल रहे हैं ....और बच्चे साफ - सुथरे होकर चका - चक हो चुके हैं .....!🕵🏻‍♂️ अब स्केटिंग पर बच्चे फिसल रहे हैं और पेप्सी और कोक के साथ पिज्जा - बर्गर खाकर अपना पेट गड़बड़ कर रहे हैं ...🤮 

अब सोर्सेज और रिसोर्सेज बदल चुके हैं और ज़माना सरकते हुए कहीं दूर निकल चुका है ....!🏃🏻‍♂️

अब हमलोग तो उसी पुराने खेत के पुराने और पके हुए कनकजीरा टाइप महकते चावल हैं जिसकी गमगमाहट कभी ख़त्म नहीं होती ...!🥰🥰🥰

©(राजू दत्ता ✍🏻)

Friday, 22 July 2022

परसेंटेज का खेल

#परसेंटेज का खेल#

सोशल मिडिया से लेकर आकाश - पाताल तक बधाइयों का तांता लगा हुआ है ....🥳💐फलाना का लड़का निन्यानवे प्रतिशत लाकर सब कुछ रोशन कर गया ....💥⚡  निन्यानवें प्वाइंट निन्याने लाकर ज़िला हिला दिया ...💫  बहुत हर्ष और गर्व की बात है और जश्न भी बनता है 🎂 ...! 

अब जरा सोचें - पहले रिजल्ट में लोग पास या फ़ैल पूछते थे, 
फिर विकसित विचारधारा ने डिवीजन पूछना शुरू किया
और आजकल परसेंट पूछ कर असली औकात का आंकलन किया जाता है !! फिर एडमिशन का दौड़ शुरू होता है और फिर परसेंटेज की आग में सबकुछ धुआं - धुआं होकर राख होता महसूस होता है जब परसेंटेज के हिसाब से सब गुड़ - गोबर हो जाता है ...😣

मगर उन बच्चों का क्या जो निनानवे से चूक गए और सत्तर - पछत्तर पर ठहर गए? 🤔 क्या उनकी जिंदगी भी ठहर गई? 🤔 क्या उसने पूरे जहां में अंधेरा फैला दिया? 🤔 क्या उनके माता - पिता मातम मनाएं? 🤐 अरे भाई! परसेंटेज ही जिंदगी है क्या? परफॉर्मेंस की बात है! कभी ठीक तो कभी मोटा - मोटी! होगा न फिर से शानदार, जबरदस्त और जिंदाबाद! जश्न हर किसी का बनता है जब जिंदगी की नई पाली आरंभ होती है ....🥳 ये परसेंटेज का खतरनाक खेल महज आभासी है! असली जिंदगी में परसेंटेज से ज्यादा जमीनी सफलता मायने रखती है और सफ़लता का मैदान और क्षेत्र हर किसी का अलग - अलग होता है ...! हर कोई अपने - अपने मैदान में सचिन तेंदुलकर होता है ....! 

 किसी की योग्यता महज परसेंटेज पर आंकना ठीक नहीं ...जिंदगी की दौड़ में आगा - पीछा होता ही है और फिर जिंदगी के और भी इम्तेहान बाकी होते हैं? कभी - कभी सचिन तेंदुलकर भी जीरो पर आउट हो गए तो क्या? 🤔 

जिंदगी रूकती नहीं ...आगे असीम संसार है जहां मंजिलें इंतजार में है बस एक पल रुककर गहरी सांस लेकर लंबी छलांग लगाने की दरकार है ...! 🫵🏻

जिसकी परफॉर्मेंस ठीक नहीं रही उसका हौसला - आफजाई करें ...👍🏻 पैरेंट्स को भी और स्टूडेंट्स को भी ....!👍🏻 परसेंटेज के प्रचार से ज्यादा अहम साथ मिलकर चलना है 👯🏻‍♂️ क्या पता आज का बैक बेंचर कल आपके सामने अपने पुराने संघर्ष और अनुभव के बल पर एक आदर्श बनकर खड़ा हो जाए ...! 👨🏻‍🎨 और यह होता रहता है और जिंदगी अपने कई रंग में रंगती रहती है । आज सादा तो कल रंगीन ....🌈

हर छात्र उभरता हुआ सितारा है ...! जश्न जरूरी है , परसेंटेज तो महज एक संख्या है ...! मोटिवेट करें 🫵🏻 और आज की शाम का मोटिवेशन ही कल के उगते सूरज का उज्जवल प्रकाश है ....🌞

Dedicated to all students and their parents! 🙏🏻 

©(राजू दत्ता ✍🏻)

Sunday, 17 July 2022

मुड़े हुए नोट

*मुड़े हुए नोट*

यह छोटी सी तस्वीर सब कुछ बयां कर देती है । कुछ भी कहने की जरूरत नहीं रह जाती ....🙇🏻‍♂️ जीवन - सुख के  सम्पूर्ण सार को अपने में समेटे यह तस्वीर लाज़वाब है ...😍  आज हमारी जिंदगी  पैकेज में बंधी - बंधी सिमटी - सिमटी सी है । जीवन - सुख की परिभाषा बदल सी गई है ।  खैर  ! जिंदगी यूं ही बदलती रहती है और उनके मायने भी साथ - साथ बदलते जाते हैं 🙆🏻‍♂️ सफ़लता की बुलंदियों से नीचे झांकती जिंदगी बस एक धुंधली सी तस्वीर का अहसास ही करती है .... जिंदगी दूर तलक खोई - खोई सी बड़ी सी पैकेज में ऊंची बिल्डिंगों में समाई उन पुराने जज़्बातों से तन्हाई में गुफ्तगू करती है और हम उन अनमोल लम्हों के दीदार अपने अंतर्मन में कर जिंदगी को धुआं - धुआं होते दीदार करते हैं ....🧐

 खैर ....! आगे बढ़ते हैं ....🚶🏻‍♂️ इस तस्वीर की उस बेशकीमती स्पर्श को हम महसूस करने से भला खुद को कैसे रोकें ...!🫳🏻 यह तस्वीर हमारी उस जिंदा जिंदगी की एक धरोहर है जहां हमने अपने बेशकीमती लम्हें दर्ज किए हैं ....🕕

उन जर्जर हो चुके हाथों से हमारे बचपन ने जो बेशकीमती खजाने पाए हैं वो बेहिसाब हैं । त्यौहारों का जश्न हो या फिर मेहमानों की विदाई, उन बुजुर्ग हाथों ने चुपके से अपनी आंचल के कोर से बंधी जो विरासत हमें सौंपी है वह पूरी धरती के तमाम जवाहरातों से भी कीमती थे! वो चवन्नी, वो अठन्नी, वो करीने से मुड़े हुए नए नोट .....!🌝 दशहरा, दिवाली , होली  या फिर ईद और बकरीद या फिर बैसाखी.....हमारी जिंदगी इसी मुड़े नोट से सीधी और बेहिसाब खुशी भरी हुआ करती! नानी , दादी, काकी, नाना, दादा और काका सब के सब हमारे जिंदा बैंक हुआ करते और हम उन बैंकों के इकलौते मालिक! क्या सल्तनत थी हमारी .....ननिहाल से लेकर ददिहाल तक फैली सल्तनत और हम रहते भी तो थे फैले - फैले से .....!💂‍♀️💂‍♀️💂‍♀️ 

खनाजों का हिसाब हम रात और दिन लगाया करते! बार - बार सिक्कों की गिनती और गिनती के वक्त चवन्नियों की खनखनाहट के अलौकिक संगीत से हम सरोबार रहते । उन जमा खजानों से हम सब कुछ खरीद लेने का जज़्बा रखते .....🥰

कभी बाईस्कोप वाले के पीछे दौड़ते - भागते १० पैसे में दिल्ली का कुतुबमीनार देख आते तो कभी लाल - पीली आइसक्रीम खाकर अपने जीभ रंगते हुए सबको दिखाते फिरते । काग़ज़ की घिरनी , फन फैलाए सांप, आर्मी वाली जीप और टैंक, राजा की कोठी और रानी की सेज सब के सब हमारी हैसियत के भीतर ही तो थे ....🫶🏻

आसमां से जमीं और फिर जमीं से आसमां सबकुछ ख़रीद चुके थे । हमारे पास उन झुरझुरे हाथों की ताक़त हुआ करती और हम उसी ताकत के बलबूते राजा हुआ करते....🕵🏻‍♂️ 

अब क्या कहें? कोई बराबरी नहीं । जीवन भर की कमाई एक तरफ़ और वो चुपके से थमाए गए मुड़े हुए नोट एक तरफ़ .....! असली सल्तनत वही तो थी जिसके सुलतान हम ही तो थे ....! कसम से इतने सुंदर हाथ जिनसे हमारे बचपन को करीने से संवारा और सहेजा , हमने अभी तक नहीं देखे ....और शायद कहीं दूर तलक नहीं दीदार होने वाले ...! वो मुड़े हुए नोट अब ख़त्म हो चुके हैं और हमारा बेहिसाब खज़ाना अब ख़ाली हो चुका है और लाखों की पैकेज लेकर हम तन्हां - तन्हां जिंदगी का साथ निभाते चले जा रहे हैं ...!🤝


(राजू दत्ता✍🏻)

Tuesday, 12 July 2022

पुरानी कहानी

📔पुरानी कहानी📔

बात उतनी भी पुरानी नहीं! कहानी उस दौर की है जब हर हर घर के आंगन में आम , जामुन, अमरूद, कटहल , नारियल और भी कई तरह के फलदार पेड़ लगे हुआ करते थे जिनके पके और अधपके फलों से भरी डालियां बरामदे से बाहर भी झूमा करते थे ।🌳 हमारे झुंड बिना व्हाट्स के हुआ करते और हर कोई एडमिन हुआ करता!👨‍🚒

हम अक्सर जामुन, आम आदि फल चुराकर और खुद से तोड़कर खाया करते थे । कभी आंगन की तंग दीवारों पर चुपके से चढ़कर तो कभी झुकी डालियों में करीने से लटकते हुए पेड़ के ऊपर । आंगन के बाड़े के छेदों में पैर फंसाए हम लटकते फलों तक पहुंचने का नायाब हुनर रखा करते । फल चाहे पका हो या अधपका और या फिर कच्चा, हम इंतजार में यकीं नहीं करते थे! बस तोड़ लेने का जानदार जज़्बा हुआ करता! नाजुक बदन पर चाहे कितने ही खरोचें आ जाए मगर निशाना चूके नहीं चूका करता ।🤺 हमारी गुटों की रणनीति बेजोड़ हुआ करती । एक साथी तो बस उस खड़ूस बुढ़िया के आने पर ही टूक नज़र रखा करता जिसके आंगन में पके शरीफों से लदे पेड़ हुआ करते ।🍑 बेर के कांटों से भरे डाल हमारे जज़्बातों के आगे कुछ भी नहीं हुआ करते ।🍒 अधपके बेर से हमारे पॉकेट भरे रहा करते । काले नमक और पिसे हुए लाल मिर्च की पुड़िया हमेशा हमारे पॉकेट में हुआ करती और हम बेर और इमली के साथ उन्हें मिलाकर पुराने खंडहर में बड़े शान से राजशाही अंदाज में खाया करते ।🥑 परोस की काकी के घर के कच्चे अमरूद जो कभी पूरे पक न सके इसका श्राप हमें रोज लच्छेदार भाषा में मिला करता और हम बस आंखें बंद किए कसीले अमरूदों में भी पुख्ता स्वाद ढूंढ लिया करते । फल तो फल , हम तो फूलों तक को ब्रह्मबेला से पहले ही तोड़कर उनकी जन्मजात खुशबुओं से रूबरू हो जाया करते।🌺 पूजा के फूल तड़के सवेरे हम चुरा कर पहले ही पूजा कर लिया करते।🪷 बिना उगाए और सींचे ही हम पूरी बगिया के सुल्तान हुआ करते । जहां तक हमारी पहुंच नहीं होती , हमारी गुलेल पहुंच जाती । निशाना अचूक हुआ करता । उन दिनों ओलंपिक ज्यादा मशहूर नहीं था और गुलेल को शामिल भी नहीं किया गया था नहीं तो गोल्ड 🏅 पक्का था । गुलेल भी हम चुराई हुई अमरूद की टहनी और चमरे और रिक्शे के सीट के रबर से ही बनाया करते । पूरा फ़्री का शो हुआ करता वो भी हर वक्त । बंसी लेकर घंटों तालाब के किनारे बैठकर बेर खाते हुए मछली पकड़ना और फिर सेठजी के आते ही दौड़ते गिरते भाग खड़ा होना और फिर मुर्गियों के ताजे नरम अंडे उठाकर छिपा देना । ये सब हमारे कंपल्सरी आउटडोर एक्टिविटी हुआ करते । इंडोर का स्कोप चूंकि था ही नहीं तो हम आउटडोर में ही व्यस्त होकर रहा करते । मार - पीट , कुटाई , डांट - डपट , पेड़ पर उल्टा लटका देने जैसे दंड हमारे लिए बहुत छोटी और तुच्छ सी चीज़ हुआ करती जिसकी अच्छी खासी प्रैक्टिस हमने कर रखी थी । हमारे लिए हमारे मिशन का टारगेट ज्यादा अहम था न कि कुटाई । "मिशन एकंप्लिशड" ही हमारा एकमात्र ध्येय हुआ करता और मरते दम तक उसे पूरा करते फिर चाहे कितनी ही रातें क्यों न काली करनी होती । वो जुनून, वो जोशो - खरोस , वो जज़्बा हमारे अंदर लबालब भरा हुआ करता । ये पुरानी कहानी थी हमारी उस जिंदगानी की! 


युग बदला और फिर झुंड बदला  फिर हमें ख्याल आया कि हमें तो विकसित होना है ! पश्चिम की भांति सजावटी दिखावटी बनना है। बस फिर क्या था फलदार पेड़ों को जगह ले ली सजावटी पेड़ पौधों ने और डंडे, पत्थर से फल तोड़ने और पेड़ पर मित्र की मदद से चढ़ने की कला का स्थान ले लिया, मोबाइल ने और सेल्फी स्टिक ने । बचपन जिसको मिट्टी में लोटना था, कीचड़ में खिलना था और नदियों में तैरना था  वो रील, टिकटोक, फेसबुक, इंस्टाग्राम, पब जी, 4 जी में घुस गया।
बस होना क्या था..सब कहानी खत्म, हो गया, टाटा, बाय बाय! 🫠

अब नेटफ्लिक्स और अमेजन पर वेब सीरीज देख बच्चे कौतुहलता को महसूस किया करते हैं और असली रोमांच जो पुरानी जिंदगी में थी उसको बस परदे पर देख उसकी चुभन महसूस करते हैं । जिंदगी बदल गई है अब । आहते पर अब आम और अमरुद नहीं और वो झुंड भी नहीं! खड़ूस बुढ़िया की लच्छेदार गालियों का संगीत अब कहां? सेठजी के तालाब अब सूख चुके हैं और बचपन का वो रस भी अब सूखकर रसातल में चला गया है। वो सौंदर्य और संगीत अब स्टूडियो तक ही सीमित रह गया है । बचपन अब बेजान चीजों में जान ढूंढती नज़र आती है! वो जिंदगी जो हम जी चुके जिसने हमें जिंदगी का हर फलसफा समझाया और जिसने हर चीज से जुड़ने का सबक सिखाया और जिसने संघर्ष का पाठ पढ़ाया अब दिखता नहीं । बगीचे उजाड़ दिए गए और फिर चॉइस बदल दी गई और फिर सबकुछ बदल गया! ☺️ 

(राजू दत्ता ✍🏻)

Friday, 24 June 2022

कजरौटा काजल का

#कजरौटा काजल का#
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बात उन दिनों की है जब हम बिना जॉनसन शैंपू और पाउडर के जॉनसन बेबी से भी ज्यादा स्मार्ट दिखा करते थे! यकीं नहीं होता न? एक बार गौर और इत्मीनान से ठंडे दिमाग के साथ  फ़ोटो को देख डालिए तो सबकुछ साफ़ दिख जायेगा ....!👼🏻

आजकल सुपरफास्ट 5जी का जमाना है । पैदा होने से पहले ही घर पर जॉनसन का पैक तैयार मिलता है और छट्टी में तो 10 में से 8 शगुन तो जॉनसन का ही रहता है । शैंपू, तेल , चिरोनी और लंगोट से लेकर पोछना तक ...सब ब्रांडेड और अंगरेज वाला । 

जॉनसन काल से पहले तो पैदा होते ही घुट्टी पिलाकर कड़वा तेल से जबरदस्त मालिश किया जाता और मालिश के दरम्यान सरसो तेल के दीए के ऊपर कजरौटा लगाकर देशी काजल से आंखों पर सूरमा कुछ ऐसे ही लगाया जाता था । आंखों पर परपराकर लगने वाला जलन अभी भी काजल देखते ही महसूस हो जाता है । एक बार काजल घसने के बाद धीरे - धीरे पूरे का पूरा काजल फैलकर पूरे चेहरे को अपनी आगोश में लेकर एक नायाब और बेहद खूबसूरत चेहरे का रूप हमें दिया करता । गले और बाह में काला धागा और काजल का जलवा हमें अप्रतिम सौंदर्य से ओत प्रोत कर दिया करता । कसम से इतना स्मार्ट तो अंगरेज का आज का बच्चा भी नहीं दिखता जितना कि काजल पोते हम चवन्नी की मुस्कान मारे दिखा करते थे ।😍

पहले तो बच्चा का गंध भी अलग ही होता था । कड़वा तेल, काजल और कपड़े में सूख चुके दूध और बच्चे के चरणामृत का मिश्रित गंध खास तरह का ही होता था ।😍

अब तो बच्चा जॉनसन वाला महक छोड़ता है और काजल का टिक्का तो खोजना ही पड़ेगा कि किधर है । कजरौटा वाला दिन अब ढल गया है और जॉनसन वाला डब्बा मजे में है । लंगोट विकास का चरम रूप लेकर अपने नए अवतार "डायपर" में तब्दील हो चुका है । जींस और टॉप के फैशन में अब भला देशी और आरामदायक लंगोट बनाने के लिए मां की साड़ी का टुकड़ा कहां से मिलेगा । और फिर डायपर मां बाप को पूरा सुविधा भी तो दे डालता है....मस्त सोते सोते मोबाइल देखते हुए लुढ़क जाइए ..... चद्दर - भोटिया और लंगोट बदलने का कोनो झंझट नहीं ...🥳

अब डायपर पहन के बच्चा काजल लगाकर अपना इज्ज़त का फलूदा तो नहीं निकाल सकता न !👻

 मगर बिना काजल पोते बच्चा स्मार्ट कैसे दिख सकता है ये समझ से परे है.... 🤔

खैर! काजल का जलवा हमेशा रहेगा भले ही आदमी कितना भी डायपर बदल ले ...! ये वाला  मुश्की काजल लगाकर ही आएगा और यही दिल लूट ले जायेगा ...!🥰 

(©राजू दत्ता✍🏻)